तस्वीर: प्रदीप पांडे (साभार)
शेखर जोशी नई कहानी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण रचनाकार रहे हैं. उनकी कहानी ‘कोसी का घटवार’ 'परिंदे' (निर्मल वर्मा) और 'रसप्रिया' (फणीश्वर नाथ रेणु) के साथ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानियों में गिनी
जाती हैं.
88 वर्षीय शेखर जोशी ने उम्र के इस पड़ाव में आकर अपने बचपन को ‘मेरा ओलियागाँव’ में पंक्तिबद्ध किया है. जैसा कि नाम से स्पष्ट है इस किताब में कुमाऊँ पहाड़ियों के गाँव में बीता लेखक का
बचपन है, विछोह की स्मृतियां हैं. बचपन से लिपटा हुआ
औपनिवेशिक भारत का समाज चला आता है. स्मृतियों में अकेला खड़ा सुंदर देवदारु,
कांफल का पेड़ है, बुरुंश के फूल हैं. पूजा-पाठ और तीज-त्यौहार हैं. लोक मन में
व्याप्त अंधविश्वास और सामाजिक विभेद भी. किसी भी
रचनाकार के रचना का उत्स उसके बचपन में ढूंढ़ा जा सकता है. शेखर जोशी इसके अपवाद
नहीं हैं. अपने ऊपर पड़े साहित्यिक प्रभाव को याद करते हुए वे एक जगह लिखते हैं:
“दूसरे
विश्व युद्ध के समय में बच्चा ही था. उन दिनों के.एम.ओ.यू (कुमाऊँ मोटर ओनर्स
यूनियन) की मोटर गाड़ियाँ फौजियों से भरी रहती थीं. आम जनता को सामान्यत: पैदल ही यात्रा करनी पड़ती थी... हम लोग पैदल ही मोटर मार्ग पर अल्मोड़ा
के लिए चल पड़े. रास्ते में थोड़ी- थोड़ी दूर पर बस्तियों के निकट किसी रणबाँकुरे
फौजी को विदा करने के लिए उसके परिवार के स्त्री-पुरुष बस की प्रतीक्षा करते हुए
मिलते. विदा देने वालों में अधिकतर महिलाएँ होतीं-संभवत: माँ, भाभी, चाची और बहिनें थीं
और कभी-कभी कम उम्र की पत्नी भी. बस आ पहुँचती तो कड़क फौजी वर्दी में सजा जवान बस
के अंदर आ बैठता और ‘घुर्र’ की
आवाज कर गाड़ी आगे बढ़ जाती, तब जो रुलाई का स्वर उठता वह
बहुत ही हृदय विदारक होता. रास्ते भर हमें ऐसे ही दृश्य देखने को मिलते रहे. युद्ध
में समिधा बनते गए उन नौनिहालों मे से बहुत कम लोग सकुशल लौटे थे.”
शेखर जोशी टिप्पणी करते हैं कि ‘शायद कोसी का घटवार का नायक
गुसाई भी इसी घटना का परिणाम हो.’ गुंसाई का चरित्र हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय है. इस
प्रेम कहानी में गुंसाई की ‘फौजी पैंट की चाहत’ और उससे उपजा अकेलापन मर्म को
भेदती है.
आधुनिक काल में पहाड़ों से विस्थापन बड़ी मात्रा में हुआ है. उत्तराखंड के हजारों गाँव ‘भुतहा गाँव’ की संज्ञा पा चुके हैं. उदारीकरण-भूमंडलीकरण
के बाद न सिर्फ पहाड़ी गाँवों की बल्कि मैदानी भागों में बसे गाँवों की छवियाँ भी बदल रही है. इन बदलावों का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना
अभी बाकी है. यह किताब छोटे-छोटे अट्ठाइस अध्यायों में
विभक्त है. इसका रचना विधान और संयोजन अलहदा है, जो पाठकों
को अगले एक के बाद एक अध्याय पढ़ने को प्रेरित करता है.
इस आत्मवृत्तात्मक किताब में एक संवेदनशील मन का प्रतिबिंब दिखता है. ऐसा नहीं
है कि लेखक को अपनी सामाजिक अवस्थिति का बोध नहीं है. जिसे उन्होंने स्वीकार भी
किया है. पर श्रम के महत्व और हाशिए के समाज के प्रति लेखक की
संवेदना और सहानुभूति मुखर होकर व्यक्त हुई है, दृष्टि
परिवर्तनकारी है. जाहिर है अपने कथ्य और बनावट में यह किताब दलित आत्मकथाओं से साफ
अलग है. इसकी तुलना ‘जूठन’ (ओमप्रकाश
वाल्मीकि) या ‘मुर्दहिया’ (तुलसी
राम) से नहीं की जा सकती.
हिंदी में कथा-साहित्य का इतना जोर रहता है कि कथेतर साहित्य की चर्चा कम ही
हो पाती है. कथेतर गद्य की भाषा बरतने के लिहाज से भी यह किताब पढ़ी जानी चाहिए. न
केवल साहित्य में बल्कि हिंदी आलोचना में भी आजकल अबूझ भाषा के प्रयोग का चलन बढ़ा
है. संप्रेषण से ज्यादा लेखकों-आलोचकों का जोर अपनी गुरुता सिद्ध करना रहता है.
अनायास नहीं कि आज ‘नई वाली हिंदी’ की खूब चर्चा है, जो लोक से दूर
है. यह किताब याद दिलाती है कि कैसे साफ-सुथरी और सहज भाषा से पाठकों तक अपने
विचारों को संप्रेषित किया जा सकता है. सवाल है कि क्या हिंदी में अंग्रेजी के
शब्दों को ठूंस देने से, वक्रोति भर देने से कोई भाषा ‘नई’ हो जाती है? भाषा बनाने का काम पूरा समाज करता है. जिसे हम ‘नई वाली हिंदी’ कहते हैं वह भूमंडलीकरण के दौर
में उभरे नव-मध्यम वर्ग की भाषा है. ओलियागाँव में ‘मडुगौड़े’, ‘धानरोपै’ और ‘अखोडझड़ैं’ जैसे बोलचाल
की भाषा के शब्द भी मौजूद हैं जिनमें लेखक के शब्दों
में ‘विराट जनकल्याण
की भावना और सामूहिकता की ध्वनि छिपी हुई है’ और इससे इंकार भी नहीं.
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