Wednesday, March 16, 2022

राइटिंग विद फायर: ऑस्कर पुरस्कार के लिए दावेदारी


हर साल की तरह इस साल भी ऑस्कर पुरस्कार को लेकर कयास लगाए जा रहे हैं. अगले हफ्ते 27 मार्च को पुरस्कार समारोह मे क्या ‘द पॉवर ऑफ डॉग’ की धूम रहेगी या ‘कोडा’ की? क्या स्टीवन स्पिलबर्ग ‘वेस्ट साइड स्टोरी’ के साथ फिर से इतिहास रचने में कामयाब होंगे? अंतरराष्ट्रीय फीचर फिल्मों की कैटेगरी में पाओ चोइनिंग दोरजी की चर्चित भूटानी फिल्म ‘लूनाना: ए याक इन द क्लासरूम’ को क्या बेस्ट फीचर फिल्म का खिताब मिलेगा?
बहरहाल, भारत में सबकी नजरें रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायर' पर टिकी हैं. जैसा कि हम जानते हैं इसे 94वें अकादमी पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फीचर श्रेणी में मनोनीत किया गया है. भारत की यह पहली वृत्तचित्र है जो अंतिम पाँच डॉक्यूमेंट्री फीचर में शामिल हैं. इसे असेंशन, एटिका, फ्ली और समर ऑफ सोल वृत्तचित्रों के साथ टक्कर लेनी होगी.
देश में कथा फिल्मों पर इतना जोर रहता है कि समीक्षक वृत्तचित्रों की सुध नहीं लेते. समस्या यह भी है कि ज्यादातर वृत्तचित्र फिल्म समारोहों तक ही सीमित रह जाती हैं. इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाता, जैसा फीचर फिल्मों का होता है. डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. उल्लेखनीय है कि भारत में आम दर्शकों के लिए यह फिल्म अभी भी उपलब्ध नहीं है.
यह फिल्म ‘खबर लहरिया’ अखबार के प्रिंट से डिजिटल के सफर, इस सफर में आने वाली परेशानी, प्रतिरोध, समाज और मीडिया के रिश्ते के इर्द-गिर्द है. इसके केंद्र में मीरा, सुनीता और श्यामकली हैं, जो खबर लहरिया से जुड़ी पत्रकार हैं. उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में बीस साल पहले शुरु किए गए इस अखबार के उत्पादन और प्रसारण में दलित महिलाओं की केंद्रीय भूमिका रही जिन्हें समाज में ‘दोहरा अभिशाप’ झेलना पड़ता है. वैकल्पिक मीडिया का यह उपक्रम पूरी तरह महिलाओं के द्वारा संचालित है. पुरुष प्रधान समाज में यह किसी खबर से कम नहीं! आज भी मीडिया के न्यूजरूम में पुरुषों की ही प्रधानता है.
पिछले दशक में डिजिटल क्रांति के मार्फत आई मोबाइल और तकनीकी सुलभता ने मीडिया को अप्रत्याशित विस्तार दिया है. छोटे शहरों-कस्बों में भी समाचारों की कई ऑनलाइन वेबसाइट उभरी हैं जो मुख्यधारा के मीडिया में प्रचलित ‘नैरेटिव’ को चुनौती देती रही हैं. यहाँ जमीनी स्तर पर मौजूद समस्याओं और सवालों को प्रमुखता मिलती है, जो मुख्यधारा के मीडिया से ओझल रहता आया है. इनमें पिछले वर्षों में दलितों के द्वारा शुरु किया गया यूट्यूब चैनल भी शामिल हैं. सोशल मीडिया इस नई पत्रकारिता का वाहक बना है, जहाँ वीडियो के माध्यम से कहानी कहने पर जोर है. इसे देखते हुए वर्ष 2016 से ‘खबर लहरिया’ पूरी तरह ऑनलाइन अवतार में आ चुका है. इसके यूट्यूब चैनल की पहुँच आज लाखों दर्शकों तक है. पहले जहाँ यह बुंदेलखंड तक सिमटा था, अब इसे देश के और भी हिस्सों में ले जाने की योजना है.
मोबाइल फोन इन पत्रकारों के हाथों में ताकत बन कर उभरा है, जिसके माध्यम से वे सामाजिक यथार्थ को निरूपित करते हैं, सत्ता से सवाल पूछते हैं. मीडिया विशेषज्ञ इसे ‘सिंबॉलिक पावर’ कहते हैं. ‘राइटिंग विद फायर’ में मीरा मीडिया को ‘लोकतंत्र का स्रोत’ कहती हैं. जहाँ वे आम जनता के दुख-दर्द को वीडियो में दर्ज करती हैं, वहीं सत्ता से बेधड़क सवाल भी पूछती हैं. हालांकि उनके लिए यह रास्ता आसान नहीं है और संघर्ष से भरा पड़ा है. ‘खबर लहरिया’ के पत्रकारों को अवैध खनन से जुड़े माफिया से लड़ना पड़ता है. बलात्कार पीड़ितों की आवाज बनने, उन्हें न्याय दिलाने के लिए पुलिस तंत्र से जूझना पड़ता है. इस प्रतिरोध में उन्हें सफलता मिलती है और इसका समाज पर असर पड़ता है. पर उन्हें अपने काम को लेकर घर-परिवार में मर्दवादी रवैये को भी झेलना पड़ता है.
इस डॉक्यूमेंट्री में जाति का सवाल, उत्पीड़न, लैंगिक असमानता को ‘खबर लहरिया’ की पत्रकारिता के साथ कुशलता से बुना गया है. यह वृत्तचित्र ‘खबर लहरिया’ के पत्रकारों की संघर्षपूर्ण निजी जीवन की कहानी से आगे जाकर समकालीन समाज और राजनीति को भी अपने घेरे में लेती है. वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव, हिंदुत्व की राजनीति, ‘विकास’ का सवाल, स्वच्छ भारत अभियान का स्वर भी यहाँ सुनाई देता है.

सशक्त विषय-वस्तु और सिनेमाई कौशल को लेकर यह वृत्तचित्र देश-विदेश के फिल्म समारोहों में पर्याप्त सुर्खियां बटोर चुकी है. पिछले दिनों डेढ़ घंटे की इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को ब्रिटेन के दर्शकों के लिए बीबीसी ने रिलीज किया. जाहिर है, इससे फिल्म की पहुँच बढ़ेगी और इसके पक्ष में राय बनाना आसान होगा. जब मैंने फिल्म के निर्देशक सुष्मित घोष से बातचीत करनी चाही तब उन्होंने अपनी यात्रा और अकादमी पुरस्कार की तैयारी का हवाला दिया और अपनी असमर्थता जताई. उनकी तैयारी रंग लाए, शुभकामनाएँ. 

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Sunday, March 06, 2022

दर्शकों से दूर डॉक्यूमेंट्री फिल्में


 ‘जय भीम' और 'मराक्कर' भले ही ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ से बाहर हो गई हो, फिर भी इस महीने होने वाले ऑस्कर समारोह पर सबकी नजरें टिकी रहेंगी. रिंटू थॉमस और सुष्मित घोष की डॉक्यूमेंट्री 'राइटिंग विद फायर', जिसे 94वें अकादमी पुरस्कार के लिए सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री फीचर श्रेणी में मनोनीत किया गया है, से काफी उम्मीदें हैं. भारत की यह पहली वृत्तचित्र है जो अंतिम पाँच डॉक्यूमेंट्री फीचर में शामिल हैं. इसे असेंशन, एटिका, फ्ली और समर ऑफ सोल वृत्तचित्रों के साथ टक्कर लेनी होगी. अलहदा विषय-वस्तु की वजह से यह वृत्तचित्र काफी सुर्खियाँ बटोर चुकी है.

इस वृत्तचित्र के केंद्र में ‘खबर लहरिया’ अखबार है, जिसे बुंदेलखंड इलाके में वर्ष 2002 में निकालना शुरु किया गया. इसके उत्पादन, प्रसारण में सिर्फ महिलाएं शामिल हैं. वर्ष 2015 से यह अखबार डिजिटल अवतार में आ गया है. इनकी रिपोर्टिंग टीम में फिलहाल करीब बीस सदस्य हैं जो दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखती हैं. ‘राइटिंग विद फायर’ में अखबार से डिजिटल तक के सफर, उस सफर में आने वाली परेशानियों, सत्ता और समाज के रिश्ते को दिखाया गया है.
ऐसा लगता है कि आनंद पटवर्धन, अमर कंवर, कमल स्वरूप जैसे चर्चित निर्देशकों के बाद डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की दुनिया में युवा फिल्मकारों का समय आ गया है, जिनकी धमक साफ सुनी जा रही है. इसी साल जनवरी में शौनक सेन की डॉक्यूमेंट्री ‘ऑल दैट ब्रिद्स’ को सनडांस फिल्म समारोह में विश्व सिनेमा वृत्तचित्र श्रेणी में ग्रांड ज्यूरी पुरस्कार मिला है. यह वृत्तचित्र दो भाइयों सऊद और नदीम के इर्द-गिर्द घूमती है, जो बीस साल से घायल पक्षियों की देखभाल करते हैं. साथ ही दिल्ली में प्रदूषण की समस्या भी इसमें शामिल है. पिछले साल पायल कपाड़िया की ‘ए नाइट ऑफ नोइंग नथिंग’ को भी कान फिल्म समारोह में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का पुरस्कार मिल चुका है.
पिछले दिनों मुंबई फिल्म समारोह में सृष्टि लखेड़ा निर्देशित ‘एक था गाँव’ वृत्तचित्र दिखाई गई, जिसके केंद्र में उत्तराखंड के गाँवों से लोगों का पलायन है. यह वृत्तचित्र ऐसे गाँवों की व्यथा कथा है. इससे पहले पौड़ी-गढ़वाल जिले के एक बुजुर्ग किसान के संघर्ष और गाँवों से पलायन पर बनी निर्मल चंदर की डॉक्यूमेंट्री ‘मोतीबाग’ भी चर्चित रही है. ये सारी वृत्तचित्र समकालीन समय और समाज से जुड़ी हैं, जिसमें राजनीतिक स्वर भी गाहे-बगाहे सुनाई पड़ती हैं.
समस्या यह है कि ज्यादातर वृत्तचित्र फिल्म समारोहों तक ही सीमित रह जाती हैं. इनका प्रदर्शन उस रूप में नहीं हो पाता, जैसा फीचर फिल्मों का होता है. फलस्वरूप ये आम दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं. पिछले दो सालों में कोरोना महामारी की वजह से देश में ज्यादातर समारोह भी स्थगित ही रहे और ये डॉक्यूमेंट्री विदेशी फिल्म समारोहों, मुट्ठी भर दर्शकों तक ही सीमित रही. सच यह है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के प्रदर्शन के लिए देश में आज भी कोई तंत्र विकसित नहीं हो पाया है. आनंद पटवर्धन की फिल्में भी समारोहों, कॉलेज-विश्वविद्यालयों में या उनके व्यक्तिगत प्रयास से ही उपलब्ध होती रही हैं. ऐसा लगता है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म भी फीचर फिल्मों को लेकर जितने तत्पर रहते हैं उतने वृत्तचित्रों को लेकर नहीं.

(प्रभात खबर, 6 मार्च 2022)

Wednesday, March 02, 2022

एक निर्देशक की यादों में इरफान


इरफान (1967-2020) हमारे समय के एक बेहतरीन अभिनेता थे. उनके प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं. हाल ही में फिल्म निर्देशक अनूप सिंह की लिखी किताब ‘इरफान: डॉयलाग्स विद द विंड’ प्रकाशित हुई है. यह किताब एक शोक गीत है, पर इसमें जीवन का राग है. अनूप सिंह ने ‘किस्सा’ (द टेल ऑफ ए लोनली घोस्ट, 2013) और ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ (2017) फिल्म में इरफान के साथ काम किया था. अनूप सिंह ने किताब की शुरुआत में लिखा है कि फरवरी 16, 2018 को उन्हें इरफान का एक मैसेज मिला: ‘बात हो सकती है? कुछ अजब ही सफर की तैयारी शुरु हो गई है. आपको बताना चाह रहा था.’  इरफान अभी सफर में थे. उन्हें एक लंबी दूरी तय करनी थी. सिनेमा जगत को उनसे काफी उम्मीदें थी, लेकिन कैंसर की वजह से यह सफर थम गया. उनकी अभिनय यात्रा अचानक रुक गई.

अपने मित्र और अभिनेता को केंद्र में रखते हुए यह किताब स्मृतियों के सहारे लिखी गई है. उन स्मृतियों के सहारे जो इरफान के गुजरने के बाद बवंडर की तरह अनूप सिंह के मन पर छाई रही. इस किताब के माध्यम से अनूप सिंह ने एक अभिनेता की तैयारी, कार्यशैली और क्राफ्ट को हमारे सामने रखा है. इस अर्थ में यह किताब महज संस्मरण नहीं है. इस किताब से इरफान का व्यक्तित्व हमारे सामने आता है. साथ ही एक अभिनेता और निर्देशक के आपसी रिश्ते, एक-दूसरे के प्रति आदर और कला के प्रति दीवानगी से भी हम रू-ब-रू होते हैं.

उल्लेखनीय है कि जहाँ इरफान ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) से अभिनय में प्रशिक्षण प्राप्त किया था, वहीं अनूप सिंह पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान से प्रशिक्षित हैं और स्विट्जरलैंड में रहते हैं. वे मणि कौल और कुमार शहानी की परंपरा के फिल्म निर्देशक हैं. प्रसंगवश, उन्होंने कौल और शहानी के गुरु ऋत्विक घटक के ऊपर ‘एकटि नदीर नाम’ (द नेम ऑफ ए रिवर) फिल्म का निर्माण किया है, जिसे वर्ष 2006 में ओसियान फिल्म समारोह में ‘ऋत्विक घटक रेट्रोस्पेक्टिव’ में दिखाया गया था. यह फिल्म घटक को समर्पित है.

दृश्यात्मक शैली में पूरी किताब लिखी गई है और भाषा काव्यात्मक है. यह ऐसी भाषा है जो विछोह से उपजती है. इस किताब का आधा हिस्सा ‘किस्सा’ फिल्म निर्माण-निर्देशन के इर्द-गिर्द है और कुछ हिस्सों में ‘द सांग ऑफ स्कॉर्पियंस’ की चर्चा है. ‘किस्सा ‘काफी चर्चित रही है इसे पुरस्कार भी मिले. देश विभाजन की त्रासदी और उससे उपजी पीड़ा की पृष्ठभूमि में रची गई यह कहानी एक भूत के माध्यम से कही गई है. यथार्थ और कल्पना के बीच यह फिल्म झूलती रहती है. साथ ही इस फिल्म में एक स्त्री की परवरिश एक पुरुष के रूप में है. इरफान ने अंबर सिंह का किरदार निभाया है. फिल्म के रिहर्सल के दौरान एक वाकया को याद करते हुए अनूप सिंह लिखते हैं कि किस तरह इरफान ने उन्हें वॉन गॉग की एक पेंटिंग ‘ग्रूव ऑफ ऑलिव ट्रीज,’ जो उन्होंने भेजी थी, का जिक्र करते हुए कहा था-‘ मैं इन्हीं ऑलिव वृक्षों में से एक होना चाह रहा था.’  अनूप सिंह लिखते हैं कि इस तस्वीर में प्रकृति (नेचर) और प्रारब्ध (डेस्टिनी) के विरुद्ध विद्रोह है.  इरफान इस फिल्म में  भाव-भंगिमा के सहारे अंबर सिंह की पीड़ा को सामने लाने में सफल हैं. इस किताब की भूमिका लिखते हुए अमिताभ बच्चन ने भी नोट किया है कि किस तरह ‘पीकू’ फिल्म के एक दृश्य में इरफान महज आंखों की अपनी एक भंगिमा से संवादों के पूरे  पैराग्राफ को अभिव्यक्त करने में सफल रहे. इरफान एक अभिनेता के रूप में अपने समय और स्थान के प्रति हमेशा सजग रहते थे.

वर्ष 2004 में विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘मकबूल’ में नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा जैसे मंजे कलाकारों के साथ काम करते हुए ‘मकबूल’ के किरदार को उन्होंने जिस सहज अंदाज में जिया है, वह अविस्मरणीय है. आश्चर्य नहीं कि अपने श्रद्धांजलि लेख में नसीरुद्दीन शाह ने लिखा था कि ‘इरफान ऐसे अभिनेता हैं जिनसे मुझे इर्ष्या होती थी’.  इरफान ने अभिनय की ऊंचाई हासिल करने के लिए काफी मेहनत की जिसकी चर्चा नहीं होती. जाहिर है, जयपुर से दिल्ली और फिर बॉलीवुड-हॉलीवुड की उनकी यात्रा संघर्षपूर्ण थी. एक बार वे बोरिया-बिस्तर समेट कर जयपुर लौटने की तैयारी कर चुके थे. फिल्म निर्माण बड़ी पूंजी आधारित है, इसे वे बखूबी जानते थे पर कला के प्रति उनमें दीवानगी थी. ‘किस्सा’ के निर्माण के दौरान उन्होंने अनूप सिंह से कहा था- ‘अनूप साहब, प्रोड्यूसर तो फाइनली फिल्म बेचेगा. लेकिन जो लोग हैं वो तो आपकी फिल्म देखेंगे. आप बस अपनी फिल्म बनाइए.’ उनके जीवन और कला के बीच कोई फांक नहीं था.

किताब के आखिर में जो अस्पताल का दृश्य है, मौत से पहले की बातचीत है, वह बेहद मार्मिक है. एक कलाकार विभिन्न किरदारों को जीते हुए फिल्मों में, नाटकों में कई बार मरता है पर वास्तविक जीवन में मौत को सब झूठलाते हैं. इरफान अनूप सिंह से पूछते हैं:  मैं कहां मरूंगा?  दर्द के अलावे मेरे साथ कौन होगा?’ बिस्तर पर लेटे इरफान के साथ अनूप सिंह की गुफ्तगू है: ‘हम जो साथ मिल कर फिल्म बनाने वाले हैं उनमें एक-दो में मैं मरता हूँ, नहीं? ये पोस्चर अच्छा है, नहीं? आप कैमरा कहां लगाएँगे? साहिर लुधियानवी ने ठीक ही लिखा है: ‘मौत कितनी भी संगदिल हो, मगर जिंदगी से तो मेहरबां होगी’. इस किताब को पढ़ते यह अहसास हमेशा बना रहता है.


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)