हिंदी के आलोचक और झारखंड के चर्चित बुद्धिजीवी वीर भारत तलवार अपने पचहत्तरवें वर्ष में हैं. लोकतंत्र में आलोचना को केंद्रीयता हासिल है, ऐसे में आजादी के अमृत महोत्सव में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को याद करना जरूरी है. तलवार जैसा जीवन बहुत कम बौद्धिकों को नसीब होता है. जमशेदपुर में जन्मे, सत्तर के दशक में उन्होंने धनबाद के कोयला-खदान के मजदूरों और राँची-सिंहभूम के आदिवासियों के बीच काम किया. झारखंड राज्य आंदोलन में अग्रणी पंक्ति में रहे. फिर अस्सी के दशक में दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर नामवर सिंह के निर्देशन में प्रेमचंद के साहित्य पर शोध किया और वहीं भारतीय भाषा केंद्र में छात्रों के चहेते शिक्षक भी बने. उन्होंने हिंदी नवजागरण को आधार बना कर ‘रस्साकशी’ जैसी मौलिक शोध पुस्तक की रचना की और हिंदी नवजागरण को प्रश्नांकित किया है. वे इसे ‘हिंदी आंदोलन’ कहने के हिमायती हैं क्योंकि इसका ‘यही लक्ष्य था’.
देश में 19वीं सदी का नवजागरण उनकी चिंता के केंद्र में रहा है. उन्होंने ‘हिंदू नवजागरण की विचारधारा’ में लिखा है: ‘अपनी परंपरा, धर्म, रीति-रिवाजों और सामाजिक संस्थाओं को आलोचनात्मक दृष्टि से देखना, उन्हें बुद्धि-विवेक की कसौटी पर जांच कर ठुकराना या अपने समय के मुताबिक सुधारना हर नवजागरण -चाहे वह यूरोपीय हो या भारतीय- की सबसे केंद्रीय विशेषता रही है.’ उनके शोध को पढ़ कर हम समकालीन सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याओं को नए परिप्रेक्ष्य में देखने लगते हैं. तलवार की रचनाओं में शोध और आलोचना का दुर्लभ संयोग मिलता है. इस लिहाज से उनकी किताब ‘सामना’ खास तौर पर उल्लेखनीय है. इस किताब में शामिल ‘निर्मल वर्मा की कहानियों का सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र’ अपनी पठनीयता और आलोचनात्मक दृष्टि की वजह से काफी चर्चित रहा है. उनकी आलोचना भाषा सहजता और संप्रेषणीयता की वजह से अलग से पहचान में आ जाती है. यहाँ बौद्धिकता का आतंक या दर्शन की बघार नहीं दिखती. अकारण नहीं कि उनके लिखे राजनीतिक पैम्फलेट भी काफी चर्चित रहे हैं.
वाम आंदोलन के दिनों में तलवार ने फिलहाल (1972-74) नाम से जो राजनीतिक पत्र का संपादन किया उसका ऐतिहासिक महत्व है. इसके चुने हुए लेख ‘नक्सलबाड़ी के दौर में’ किताब में संग्रहित हैं. इसी तरह उन्होंने ‘झारखंड वार्ता’ और ‘शालपत्र’ का भी संपादन किया. ‘झारखंड के आदिवासियों के बीच एक एक्टिविस्ट के नोट्स’ में उनके अनुभव संकलित हैं. इस किताब को उनके ‘झारखंड में मेरे समकालीन किताब’ के साथ रख कर पढ़ना चाहिए. खास तौर पर इस किताब में संकलित रामदयाल मुंडा पर लिखा उनका विश्लेषणात्मक निबंध उल्लेखनीय है.
जेएनयू में उनके जैसा शिक्षक और गाइड बहुत कम थे. शोध के प्रसंग में अक्सर मंत्र की तरह कहा करते थे- ‘ढूंढ़ो, खोजो, पता लगाओ’. जब भी उनसे बातचीत होती है वे सबसे पहले पूछते हैं: अच्छा, आज कल क्या लिख-पढ़ रहे हो.’ सिनेमा से तलवार जी का काफी लगाव है. उनका ‘सेवासदन पर फिल्म: राष्ट्रीय आंदोलन का एक और पक्ष’ लेख (राष्ट्रीय नवजागरण और साहित्य) एक साथ कई विषयों को समेटे है. ‘सेवासदन’ फिल्म (1934) के बहाने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उठे सांस्कृतिक आंदोलन और उसकी असफलता को वे रेखांकित करते हैं. वे सवाल उठाते हैं कि इन वर्षों में हिंदी फिल्में क्यों हिंदी जगत की संस्कृति और परंपराओं से दूर रही?
1 comment:
आपके इस लेख से तलवार जी पर ख़ास जानकारी प्राप्त हुई। जमशेदपुर में रहते हुए भी उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती थी।
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