युवा अर्थशास्त्री श्रयना भट्टाचार्य ने हाल में ही प्रकाशित किताब ‘डिस्परेटली सीकिंग शाहरुख’ में उदारीकरण के बाद भारतीय महिलाओं की जिंदगी, संघर्ष और ख्वाबों का लेखा-जोखा बेहद रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है. खास बात यह है कि इस किताब में देश के विभिन्न भागों और वर्गों की महिलाओं की जिंदगी में साझेदारी फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को लेकर बनती है, जो उनकी ‘फैंटेसी’ और ‘आजादी’ को पंख देता है.
इस बात पर
शायद ही किसी को असहमति हो कि आजाद भारत में बॉलीवुड ने देश को एक सूत्र में बांधे
रखने में एक प्रमुख भूमिका निभाई है. भले बॉलीवुड के केंद्र में मनोरंजन और ‘स्टार’ का तत्व
हो, पर ऐसा
नहीं कि आजादी के 75 वर्षों में सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ से इसने नजरें चुराई हैं. खासकर, पिछले
दशकों में तकनीक और बदलते बाजार ने इसे नए विषय-वस्तुओं को टटोलने, संवेदनशीलता
के प्रस्तुत करने और प्रयोग करने को प्रेरित किया है-स्त्री स्वतंत्रता का सवाल हो
या समलैंगिकता का!
आधुनिक
समय में सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है. किसी भी कला से ज्यादा
सिनेमा का प्रभाव एक बहुत बड़े समुदाय पर पड़ता है. आजादी के तुरंत बाद से सरकार
ने देश में सिनेमा के प्रचार-प्रसार में रुचि ली. वर्ष 1949 में
सिनेमा उद्योग की वस्तुस्थिति की समीक्षा के लिए ‘फिल्म इंक्वायरी कमेटी’ का गठन
किया गया था. इस समिति ने सिनेमा के विकास के लिए सुझाव दिए थे. इसी के सुझाव के
आधार पर ‘फिल्म
फाइनेंस कॉरपोरेशन’, जो बाद में ‘नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन’ के नाम से जाना गया, का गठन 1960 में किया
गया. साथ ही सिनेमा के शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए पुणे में फिल्म संस्थान (1960) की
स्थापना हुई. क्या यह आश्चर्य नहीं कि बॉलीवुड की मुख्यधारा धारा से इतर भारत में
जो समांतर सिनेमा (न्यू वेब सिनेमा) की शुरुआत हुई उसमें इन सरकारी संस्थानों की
बड़ी भूमिका रही है!
तत्कालीन पीएम नेहरू देश-दुनिया के सामने सिनेमा के माध्यम से एक स्वतंत्र राष्ट्र की ऐसी छवि प्रस्तुत करना चाह रहे थे जो किसी महाशक्ति के दबदबे में नहीं है. वर्ष 1952 में देश के चार महानगरों में किए गए ‘पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह’ के आयोजन को हम इस कड़ी के रूप में देख-परख सकते हैं. साथ ही देश के फिल्मकारों और सिनेमा प्रेमियों को विश्व सिनेमा की कला से परिचय और विचार-विमर्श का एक मंच उपलब्ध कराना भी उद्देश्य था. वे सिनेमा के कूटनीतिक महत्व से परिचित थे. तभी से सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल किया जाता रहा है.
पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में आधुनिकता के साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. फिल्मों पर नेहरू के विचारों की स्पष्ट छाप है. दिलीप कुमार इसके प्रतिनिधि स्टार-अभिनेता के तौर पर उभरते हैं. हालांकि राज कपूर, देवानंद, गुरुदत्त जैसे अभिनेताओं की एक विशिष्ट पहचान थी.
सत्तर-अस्सी
के दशक में अमिताभ बच्चन की सिनेमा-यात्रा देश में ‘नक्सलबाड़ी आंदोलन’ की
पृष्ठभूमि से होते हुए युवाओं के मोहभंग, आक्रोश और भ्रष्टाचार को अभिव्यक्त
करता है. हालांकि इसी दशक में देश-दुनिया में भारतीय समांतर सिनेमा की धूम रही.
बॉलीवुड में शुरुआत से ही ‘पॉपुलर’ के साथ-साथ गाहे-बगाहे ‘पैरेलल’ की धारा
बह रही थी, पर इन
दशकों में पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित युवा निर्देशकों, तकनीशियनों
के साथ-साथ नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़मी, स्मिता
पाटील जैसे कलाकार उभरे. सिनेमा सामाजिक यथार्थ को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त करने
लगा. हम कह सकते हैं कि समांतर सिनेमा का सफर 21वीं सदी में भी जारी है, भले
स्वरूप में अंतर हो.
नब्बे के
दशक में उदारीकरण (1991) और भूमंडलीकरण के बाद देश में जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव हुए उसे शाहरुख, सलमान, आमिर खान, अक्षय
कुमार, अजय देवगन
की फिल्मों ने पिछले तीन दशकों में प्रमुखता से स्वर दिया हैं. अमिताभ बच्चन भी नए
रूप में मौजूद हैं. यकीनन, बॉलीवुड मनोरंजन के साथ-साथ समाज को
देखने की एक दृष्टि भी देता है.
कोई भी
कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में भी आज राष्ट्रवादी
भावनाएं खूब सुनाई दे रही है. आजादी के तुरंत बाद बनी फिल्मों में भी राष्ट्रवाद
का स्वर था, हालांकि
तब के दौर का राष्ट्रवाद और आज के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को
देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. यह एक अलग विमर्श का विषय है.
उदारीकरण
के बाद भारत आर्थिक रूप से दुनिया में शक्ति का एक केंद्र बन कर उभरा है, लेकिन जब
हम सांस्कृतिक शक्ति (सॉफ्ट पॉवर) की बात करते हैं तब बॉलीवुड ही जेहन में आता है.
आजाद भारत में यह बॉलीवुड के सफर की सफलता है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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