Wednesday, November 22, 2023

आम आदमी का नायकत्व: द रेलवे मेन


एक पत्रकार अपने समय का साक्षी होता है. कहानियों, तस्वीरों के माध्यम से वह सामाजिक यथार्थ को सामने लाता है, पर जरूरी नहीं कि उसका यह हस्तक्षेप कारगर ही हो. उसके पास महज कलम की ताकत होती है, जो लोगों की चेतना जगाने में हमेशा सफल नहीं होती.

ऐसी ही एक कहानी राजकुमार केसवानी (1950-2021) की है. भोपाल में जन्मे पत्रकार केसवानी यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में सुरक्षा, लापरवाही को लेकर रिपोर्ट, लेखों के माध्यम से ढाई साल पहले से चेतावनी देते रहे थे जिसकी अनदेखी की गई. सच सुना नहीं गया, नतीजा फैक्ट्री में हुए गैस लीक और भोपाल त्रासदी (1984) के रूप में हुआ जिसमें पंद्रह हजार से ज्यादा लोगों की जान गई. आजाद भारत की यह ऐसी कहानी है जिसका दर्द आज भी सालता है. कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं.
नेटफ्लिक्स पर चार एपिसोड में रिलीज हुई वेब सीरीज ‘द रेलवे मेन’ एक पत्रकार जगमोहन कुमावत (सन्नी हिंदुजा) की आँखों देखी है, जो यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में सुरक्षा की अनदेखी, कारगुजारियों को उजागर करने की कोशिश में लगा है. उसे पुलिस और तंत्र से उपेक्षा हासिल होती है. सीरीज की शुरुआत ही इस सवाल के साथ होती है कि ‘जानते हैं इस देश मे एक जान लेने की सजा क्या है?’ और फुटेज और मीडिया रिपोर्ट के सहारे यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वॉरेन एंडरसन को हिरासत में लिए जाने और फिर छोड़ दिए जाने का विवरण है. इस प्रसंग में यहाँ महात्मा गाँधी के अहिंसा और वर्तमान प्रासंगिकता पर एक टिप्पणी है. वॉयस ओवर के रूप में की गई यह टिप्पणी जितना आम नागरिकों को लक्ष्य है, उतनी ही राजनीतिक सत्ता को भी घेरे में लेती है.
जैसा कि नाम से स्पष्ट है, फैक्ट्री के कारनामों को लेकर कुमावत की पड़ताल के साथ-साथ यह वेब सीरीज भोपाल रेलवे स्टेशन पर घटती है, जहाँ पर स्टेशन मास्टर इफ्तिखार सिद्दीकी (के के मेनन) और उसके सहयोगी इमाद रियाज (बाबिल खान) के साहस, कर्म के प्रति ईमानदारी और सहज मानवीय संवेदनाओं से हम रू-ब-रू होते हैं. शक्तिशाली व्यवस्था की असंवेदनशीलता के उलट आम आदमी के नायकत्व से हम परिचित होते हैं. महाकाव्यों के प्रसंग में जिस धीरोदात्त नायकों का जिक्र होता है, कई बार किताबों से निकल कर वे हमारे सामने आ खड़े होते हैं.
दुनिया भर में हुए औद्योगिक त्रासदियों में भोपाल गैस त्रासदी कुख्यात है. चेर्नोबिल न्यूक्लियर पावर प्लांट में हुए हादसे को लेकर बनी वेब सीरीज (2019) से यह सीरीज प्रभावित लगती है. साथ ही इस सीरीज से पहले भोपाल गैस लीक और त्रासदी को लेकर फिल्में और वृत्तचित्र सामने आ चुकी हैं, हालांकि आम आदमियों की कहानी कहती यह वेब सीरीज वेदना और मानवीय संवेदना के इर्द-गिर्द बुनी गई है. के के मेनन, बाबिल खान, दिव्येंदु, आर माधवन जैसे कुशल अदाकारों के मार्फत यह हमारे सामने भावपूर्ण ढंग से खुलती है.
इन ‘रेलवे मेन’ ने दो-तीन दिसंबर की भयावह रात अपनी जान पर खेल कर अनेक लोगों की जान बचाई, बिना किसी उम्मीद और अपेक्षा के. कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करना उनका एकमात्र ध्येय था. कथानक के साथ उनके निजी जीवन प्रसंग भी लिपटे हुए चले आते हैं.
वेब सीरीज की ज्यादातर घटनाएँ प्लेटफॉर्म पर ही घटती है. सीरीज में दृश्यों के साथ ध्वनियों का कुशल संयोजन है. दूर से आती रेलगाड़ी की आवाज एक उम्मीद है. गोरखपुर-बंबई एक्सप्रेस को भोपाल पहुँचने से रोकने और राहत के लिए ट्रेन के इंतजाम की जद्दोजहद के बीच स्टेशन पर जमा यात्रियों के अंदर व्याप्त भय, असुरक्षा और जीवन-मौत के बीच की पतली डोर को नाटकीयता से बुना गया है. निर्देशक अतिशय भावुकता या मेलोड्रामा में नहीं फंसे है.
यह वेब सीरीज मर्म को छूती है और कहीं बोझिल नहीं हुई है. एक कारण तो यह है कि सीरीज को महज चार एपिसोड में ही खत्म किया गया है और इसे ज्यादा खींचा नहीं गया, जैसा कि वेब सीरीज में हम देखते रहे हैं. इस सीरीज में एक उपकथा इंदिरा गाँधी की हत्या और उसके बाद देश में जो सांप्रदायिक उन्माद फैला उसके सहारे बुनी गई है, जो बहुत प्रभावी नहीं कही जाएगी. यह उप-कथा ट्रेन के अंदर ही घटती है.
'द रेलवे मेन' सीरीज देखते हुए आप प्रोडक्शन (उत्पादन) की गुणवत्ता से काफी प्रभावित होते हैं. चालीस साल पहले के कालखंड को यथार्थपूर्ण ढंग से रचा गया है, पर ऐसा नहीं कि इसमें आत्मा कहीं खो गई हो. यश राज फिल्मस के बैनर के तले बनी इस सीरीज के साथ शिव रवैल ने निर्देशक का दायित्व पहली बार संभाला है और सफल हुए. उत्कृष्ट लेखन और अदाकारों का उन्हें भरपूर सहयोग मिला है.

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

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