आज महान फिल्मकार ऋत्विक घटक (1925-76) का जन्मदिन है. अजांत्रिक, मेघे ढाका तारा, कोमल गांधार, सुवर्ण रेखा, तिताश एकटि नदीर नाम जैसी उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की थाती है. पर बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने भारतीय सिनेमा की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया, जब वे वर्ष 1965-67 में भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई), पुणे में उप-प्राचार्य के रूप में नौकरी की.
पिछली सदी के 70-80 के दशक में व्यावसायिक फिल्मों से अलग समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट करने वाले फिल्मकार मणि कौल, कुमार शहानी, अडूर गोपालकृष्णन, जानू बरुआ, सईद मिर्जा, जॉन अब्राहम जैसे फिल्मकार खुद को ‘घटक की संतान’ कहलाने में फख्र महसूस करते रहे हैं.
मणि कौल घटक के एपिक फॉर्म से काफी प्रभावित थे. कौल ने मुझे कहा था कि ‘ऋत्विक दा की फिल्मों से आज भी में बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नव-यथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.’ उन्होंने कहा था 'उनकी फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए.' 'मेघे ढाका तारा' फिल्म को छोड़ कर उनकी कोई फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं रही.
अन्यत्र एक बातचीत में कौल ने घटक की फिल्मों के प्रसंग में ‘एपिक फॉर्म की’ चर्चा की है. उन्होंने कहा है कि ‘एपिक फॉर्म मेलोड्रामा के विपरीत होता है. यहाँ आमतौर पर नैरेटिव क्षीण होता है. और हर चरण में इसका विकास होता है जहाँ हमें नए परिप्रेक्ष्य मिलते हैं. न सिर्फ चरित्रों को लेकर बल्कि प्रकृति, इतिहास और विचारों के मामले में भी.’
पिछले दिनों एक बातचीत में कुमार शहानी ने मुझे कहा कि 'जब आप मेरी फिल्म चार अध्याय देखेंगे तो ऋत्विक दा आपको भरपूर नजर आएंगे'. शहानी भी स्वीकार करते हैं कि एपिक फॉर्म से घटक ने ही फिल्म संस्थान में उनका परिचय करवाया था. इसी तरह पुणे फिल्म संस्थान के छात्र रहे फिल्मकार अनूप सिंह की फिल्मों में भी एपिक फॉर्म दिखाई देता है.
सिंह की बेहतरीन फिल्म 'एकटि नदीर नाम' (2002) ऋत्विक घटक को ही समर्पित है. उन्होंने मुझे ऋत्विक घटक के बारे में बातचीत करते हुए कहा कि ‘फिर से सोचना, फिर से चखना, फिर से छूना, फिर से जीना... क्योंकि हर पल नया है और, अगर आप वास्तव में जीना चाहते हैं, तो हर पल आपके जीवन को बदलना होगा. ऋत्विक घटक की फिल्में मुझे यहाँ लेकर आईं.
असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ बताते हैं, मैं जिंदगी में पहली बार ऐसे आदमी (ऋत्विक घटक) से मिला जिसके लिए खाना-पीना, सोना, उठना-बैठना सब कुछ सिनेमा था.
ऋत्विक घटक के बिना आज भी फिल्म संस्थान के बारे में कोई भी बात अधूरी रहती है. वर्षों बाद भी उनकी उपस्थिति कैंपस के अंदर महसूस की जा सकती है.सईद मिर्जा जब फिल्म संस्थान (73-76) में थे तब कोर्स के दूसरे वर्ष में ऋत्विक घटक संस्थान आए थे और उन्हें (एक क्लास) पढ़ाया था. सईद और कुंदन शाह (जाने भी दो यारो) सहपाठी थे.
सईद मिर्जा ने अपनी किताब- आई नो द साइकोलॉजी ऑफ रैट्स’, में लिखा है कि कुंदन ने क्लास के दौरान घटक से पूछा था कि ‘कैसे कोई अच्छा निर्देशक बनता है?' उन्होंने सिनेमा पर टेक्सट बुक पढ़ने, तकनीक दक्षता हासिल करने को कहा. साथ ही उन्होंने जोड़ा था कि ‘एक अच्छा निर्देशक एक पॉकेट में अपने बचपने को और दूसरे में शराब की बोतल लेकर चलता है’. फिर घटक ने कुंदन से पूछा कि मेरी बात समझ आई? जिस पर कुंदन ने कहा था- यस, सर. अपने पर विश्वास रखो और सहज ज्ञान (इंट्यूशन) को न छोड़ो’. सईद लिखते हैं कि ‘कुंदन ने बस वही किया!’
घटक ढाका में जन्मे थे और विभाजन की त्रासदी को झेला था. उनकी फिल्में बंगाल विभाजन, विस्थापन और शरणार्थी की समस्या का दस्तावेज है. ‘सुवर्णरेखा’ की कथा विभाजन की त्रासदी से शुरू होती है. फिल्म के आरंभ में ही एक पात्र कहता है 'यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी?' ऋत्विक घटक निर्वासन और विस्थापन की समस्या को एक नया आयाम देते हैं. आज भूमंडलीय ग्राम में जब समय और स्थान के फासले कम से कमतर होते चले जा रहे हैं हमारी अस्मिता की तलाश बढ़ती ही जा रही है. ऋत्विक की फिल्में हमारे समय और समाज के ज्यादा करीब है. घटक अपनी कला यात्रा की शुरुआत में ‘इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) से जुड़े थे. वर्ष 1948 में विजन भट्टाचार्य और शंभु मित्रा के प्रसिद्ध नाटक ‘नवान्न’ से उन्होंने अभिनय की शुरुआत की. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन घटक के इप्टा की पृष्ठभूमि और संगीत के कलात्मक इस्तेमाल की ओर इशारा करते हैं.
एक गुरु अपने योग्य शिष्यों के माध्यम से भी हमारे सामने आते रहते हैं, फिल्मकार ऋत्विक घटक के बारे में यह कहना बिलकुल सटीक है.
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