Sunday, January 14, 2024

कठपुतली कला में पुरुषोत्तम राम


अहमदाबाद में सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए चर्चित प्रदर्शनकारी कला संस्थान ‘दर्पण’ ने पचहत्तर वर्ष पूरे किए हैं. साबरमती नदी के तट पर, गाँधी आश्रम के करीब स्थापित इस संस्थान ने कला यात्रा में ऐसा मुकाम हासिल किया है जो आजाद भारत में दुर्लभ है. प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई और वैज्ञानिक विक्रम साराभाई इसके केंद्र में रहे. पिछले हफ्ते विक्रम साराभाई की याद में हुए सालाना कला समारोह में ‘अबाउट राम (राम के बारे में)’ एक कठपुतली नाटक का मंचन खुले सभागार ‘नटरानी’ में हुआ. मेरी जानकारी में आधुनिक साज-सज्जा से लैस इस तरह का खुला रंगमंच देश में बेहद कम है.


कठपुतली कला में प्रशिक्षित अनुरुपा रॉय के निर्देशन में हुए इस नाटक के केंद्र में भगवान राम नहीं बल्कि पुरुषोत्तम राम हैं. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के उद्धाटन को लेकर राजनीतिक सरगर्मियाँ तेज है. इन सरगर्मियों को वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से भी जोड़ कर देखा रहा है. धर्म निजी आस्था का मामला नहीं रहा, इसे राजसत्ता का समर्थन हासिल है. राजनीतिक राम आध्यात्मिक राम पर हावी हैं!

वर्तमान समय में सांस्कृतिक रूपों के बहुर्थी होने की संभावना बेहद क्षीण हो गई है. मिथकों की विवेचना और पुनर्व्याख्या आसान नहीं है. रामायण की कहानियाँ तीन सौ से ज्यादा ढंग से कही गई है. राम कथा के कई रूप मौखिक रूप में भी प्रचलित हैं, जिन्हें लिपिबद्ध नहीं किया गया है. उत्तर भारत में हालांकि तुलसीदास कृत रामचरित मानस ही लोकप्रिय है.

बहरहाल, इस नाटक में दशरथ के पुत्र राम सिंहासन पर बैठे हुए अंत में नितांत अकेले हैं. सीता उनके साथ नहीं है. राम-सीता की यह कहानी दुखांत है. कथा वही है जो भारतीय लोक मानस में सदियों से गहरे बैठी है, लेकिन कहानी कहने का शिल्प अलग है. यह आधुनिक अर्थबोध लिए हुए है. सिया के बिना राम का क्या अस्तित्व रह जाता है? क्या सत्ता की प्राप्ति ही एक मात्र लक्ष्य है?

इस नाटक की खास बात कला के विभिन्न रूपों यथा कठपुतली, एनिमेशन और अभिनय के बीच आवाजाही रही. मंच पर मौजूद कलाकार कठपुतली के माध्यम से रामायण के प्रमुख पात्रों राम, सीता, हनुमान और रावण को दर्शकों के सामने लाने में सफल थे. ध्वनि और प्रकाश का संयोजन कुशलता से किया गया था. खुद अनुरुपा भी कठपुतली के साथ मंच पर मौजूद थी. भरे सभागार में विभिन्न आयु वर्गो के दर्शकों के साथ बच्चों की मौजूदगी सुखद थी. देश में इस कला रूप की चर्चा आज नहीं होती. पेशेवर प्रदर्शन के लिए जगह भी बेहद कम है. कठपुतली कला के चर्चित नाम दादी पदुमजी का जुड़ाव भी दर्पण अकादमी के साथ रहा है.

वर्ष 1948 में स्थापित इस संस्थान के शुरुआती दशकों में शास्त्रीय नृत्यों पर जोर रहा, लेकिन 60 के दशक के आखिर में यहाँ आधुनिक थिएटर और कठपुतली के शिक्षण-प्रशिक्षण की विधिवत शुरुआत हुई जिसका श्रेय कैलाश पंड्या, दामिनी मेहता और मेहर कांट्रेक्टर को जाता है. वर्ष 1977 में नृत्यांगना और राजनीतिक एक्टिविस्ट मल्लिका साराभाई इस संस्था की जब ऑनरेरी डायरेक्टर नियुक्ति हुई, संस्थान में कला के माध्यम से सामाजिक बदलाव का विमर्श आया. यहां कला, मीडिया और तकनीक के विभिन्न रूपों के बीच सहज मेल-जोल दिखता है.

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