वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय की किताब ‘दारा शुकोह: संगम-संस्कृति का साधक’ का लंबे समय से इंतजार था, जो उनके गुजरने के बाद हाल ही में प्रकाशित हुई है. जीवन के आखिरी वर्षों में मुगल शाहजादा दारा शुकोह (शिकोह) पर वे शोध कर रहे थे. उनके लिए यह एक महत्वाकांक्षी परियोजना थी. जब हम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में उनके छात्र थे, तब भी वे इसकी चर्चा करते थे.
मुगल सम्राट शाहजहां का ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी दारा शुकोह (1615-1659) का बहुआयामी व्यक्तित्व इतिहासकारों, साहित्यकारों और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं के लिए कई सवाल लेकर आता रहा है जिससे वे अपने लेखन में जूझते रहे हैं.
दारा ने मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति से परिचित कराने के लिए उपनिषदों और श्रीमद्भागवत गीता का फारसी में अनुवाद किया था. हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों के बीच मेल-जोल, संवाद और एकता को लेकर वह काफी तत्पर था. यही कारण है कि एक तरफ उसने ‘मज्म ‘उल बहरैन’ (फारसी) में और दूसरी तरफ संस्कृत में ‘समुद्र संगम’ किताबें लिखी. जाहिर है उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. राजसत्ता की लड़ाई में शायर और सूफी के इस साधक की औरंगजेब ने हत्या करवा दी, लेकिन उसके विचारों और दर्शन की अनुगूंज सुनाई देती रही.
यह किताब आलोचना की नहीं है. मैनेजर पाण्डेय ने इसे जीवनी और इतिहास का मेल कहा है. वे लिखते हैं, “दारा की औरंगजेब ने हत्या करवाई तब लोगों ने मान लिया था कि अब संगम-संस्कृति का अंत हो गया, उदारता हार गई और कट्टरता जीत गई. लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि संगम-संस्कृति की पंरपरा भारत में दारा के बहुत पहले से मौजूद थी और बहुत बाद तक फलती-फूलती रही जो आज भी मौजूद है.” इस किताब में वे दारा के लेखन के माध्यम से संगम-संस्कृति के विचारों की विवेचना करते हैं. हिंदुस्तान में मौजूद इस परंपरा पर पर्याप्त रोशनी डालते हैं. साथ ही आज के समय में उसकी जरूरत को रेखांकित करते हैं.
यह किताब ‘शहीद शाहजादा’, ‘संगम-संस्कृति का साधक’, ‘दारा शुकोह का लेखन’, ‘संवादधर्मी व्यक्ति और विचारक’ और ‘हिंदी साहित्य में दारा शुकोह’ अध्याय में विभक्त है. पाण्डेय जी के लेखन में सामाजिकता और स्वतंत्रता पर जोर रहा है. स्वतंत्रता और एकता का जहाँ अभाव होता है वहीं कट्टरता पनपती है. अमीर खुसरो, कबीर, रहीम जैसे शायरों और भक्ति आंदोलन के कवियों के लेखन में हिंदू-मुस्लिम एकता की बात प्रमुखता से है. दारा का लेखन और विचार इससे प्रभावित था.
किताब में लेखक ने विलियम इरविन और इतिहासकार यदुनाथ सरकार के बीच हुए पत्राचार को उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘हारनेवाला इतिहास में बहुत कम न्याय पाता है.’ दारा शुकोह भारतीय इतिहास में ‘ट्रेजडी’ के एक नायक के रूप में सामने आता है. सत्ता के इशारे पर हुए इतिहास लेखन में दारा की निंदा हुई है, पर स्वतंत्रचेता लेखकों ने भारतीय इतिहास और संस्कृति में दारा के विशिष्ट स्थान और योगदान को रेखांकित किया है. यह किताब उसी कड़ी में है. समकालीन समय और समाज में जब धर्म के नाम पर विभेदकारी राजनीति का बोलबाला है, दारा के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ गई है.
No comments:
Post a Comment