Thursday, April 25, 2024

एक बातचीत: सिनेमा के समंदर से कैसे निकालें काम की फिल्में

 

नितिन ठाकुर के साथ

पॉडकास्ट लिंक:

https://podcasts.aajtak.in/history-education/padhaku-nitin/how-to-pick-best-films-among-so-many-options-bekhudi-mein-khoya-shehar-arvind-das-1929125-2024-04-25


वीडियो लिंक: 

https://www.youtube.com/watch?v=7vZLcgJUIUo&list=PLW8nwheTMPtH8lO0_2DGVgqmssrGJRk-5&index=2

(जिगन, लंदन, वियना, शंघाई और आधी दुनिया घूमकर भारत लौटे एक पत्रकार ने ढेरों नोट्स बनाए, और फिर उससे निकाली एक सुंदर सी किताब. इसका नाम है- ‘बेखुदी में खोया शहर- एक पत्रकार के नोट्स.’ इस किताब में दुनियाभर के शहर हैं, सिनेमा है, कला है, संगीत है और साथ में हैं ढेरों यादें उस गांव देहात की जो वो पीछे छोड़ आया. आज के पढ़ाकू नितिन में ढाई दशक से पत्रकारिता कर रहे अरविंद दास से मुखामुखम हुआ, उसका आनंद लीजिए.)

'बेखुदी में खोया शहर, एक पत्रकार के नोट्स' किताब के बहाने एक बतकही आजतक रेडियो से

Sunday, April 21, 2024

पॉप संगीत का चमकीला सितारा

 


हिंदी सिनेमा के इस सदी में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है.  विशाल भारद्वाज,   अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, हंसल मेहता जैसे फिल्मकार इसके अगुआ हैं. पिछले दिनों नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई अली की फिल्म  अमर सिंह चमकीलाविषय, शिल्प और फिल्म निर्माण की दृष्टि से व्यावसायिक और समांतर सिनेमा के बीच एक पुल की तरह है. आश्चर्य नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल इम्तियाज अली की तारीफ करते थे.

बहरहाल, हिंदी सिनेमा में पंजाब का दलित समाज विरले दिखता है, जबकि पंजाब मूल के फिल्मकारों का शुरू से ही दबदबा रहा है. ऐसा क्यों? अमर सिंह चमकीला की पहचान एक ऐसे लोकप्रिय पंजाबी गायक की थी, जो दलित परिवार में जन्म लेने के बावजूद अपनी प्रतिभा और संघर्ष के बूते पिछली सदी के 80 के दशक में लोगों के दिलों पर राज करते थे. यही दौर था जब पंजाब में चरमपंथियों के आतंक के साये में लोग जी रह रहे थे. इसी दौर में देश में कैसेट कल्चरके मार्फत पॉप संगीत का उभार तेजी से हो रहा था. प्रसंगवश, चर्चित गायक गुरदास मान चमकीला के समकालीन रहे.

जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह फिल्म अमर सिंह चमकीला (1960-1988) का जीवनवृत्त है जिसे अभिनेता दिलजीत दोसांझ ने अपने अभिनय और गायन से जीवंत कर दिया है. उन्हें परिणीति चोपड़ा (अमरजोत कौर की भूमिका में) का भरपूर सहयोग मिला है. निर्देशक ने संवेदनशीलता के साथ चमकीला के जीवन संघर्ष और दुखद अंत को दर्शकों के सामने लाया है. फिल्म में जिस तेजी से दृश्यों को संयोजित किया गया है वह खटकता है. बार-बार विंडो में चमकीला-अमरजोत की पुरानी तस्वीरों (फुटेज) को दिखाया गया है, जिसे संपादित जा सकता था.

पंजाबी लोक गायन में सुरिंदर कौर, असा सिंह मस्ताना, लाल चंद यमला जाट की गायकी को लोग आज भी याद करते हैं. 80 के दशक में चमकीला की चमक ने सबको पीछे छोड़ दिया. असल में, पॉप संगीत अपने भड़कीले बोल और तेज संगीत की वजह से लोगों से जल्दी जुड़ते हैं. शादी-विवाह के अखाड़े में चमकीला की खूब मांग हो रही थी, उसके कैसेट बाजार में ब्लैकमें बिकते थे. 

सफलता के साथ उसे कई मोर्चों पर लड़ना पड़ा था.  अमरजोत कौर से उसकी दूसरी शादी जहाँ कथित उच्च जाति के लोगों को खटक रही थी, वहीं समकालीन गायकों की ईर्ष्या-द्वेष भी उसे झेलना पड़ रहा था. साथ ही चरमपंथियों, धार्मिक संगठनों के निशाने पर भी वह था. चमकीला और अमरजोत की हत्या कर दी गई.

जीवन में और हत्या के बाद भी जिस वजह से उसकी आलोचना होती रही वह अश्लील, द्विअर्थी गाने थे, जो स्त्री विरोधी थे. इस तरह के गानों के पक्ष में चमकीला की अपनी दलीलें थी. बाजार की मांग और आपूर्ति के सिद्धांत के तहत उसका कहना था कि लोग यही चाहते हैं!

गीत-संगीत या कोई भी कला यदि अपने समय की उपज होती है तो समाज को परिष्कृत भी करती है. वह मूल्य निरपेक्ष नहीं हो सकती. निर्देशक ने फिल्म में अश्लीलताको लेकर एक विमर्श रचा है, जो दर्शकों को उकसाता है, पर कोई जवाब नहीं देता. जवाब दर्शकों को ही देना है.

Sunday, April 07, 2024

पहरेदारी में जीवन: एवलांच


पिछले महीने 'महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स’ (मेटा) के तहत दिल्ली में हुए नाटकों के प्रदर्शन में ‘एवलांच (हिमस्खलन)’ नाटक अपनी प्रस्तुति, विषय-वस्तु और अदाकारी को लेकर चर्चा में रहा. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के स्नातक गंधर्व दीवान के निर्देशन में हिंदुस्तानी भाषा में हुए इस नाटक का ‘स्टेज डिजाइन’ अपने-आप में अनूठा था.

नाटक को कमानी सभागार के मंच पर एक बंद स्पेस में किया गया, जहाँ पर तापमान बेहद कम रखा गया. साथ ही ऊंची पहाड़ियों पर तेज बहने वाली हवा के माध्यम से देशकाल का बोध करवाया गया था. असल में, तुर्की के नाटककार टूनजेर जूजुनलू के इसी नाम से लिखे नाटक पर आधारित यह नाटक पहाड़ी इलाके में एक गाँव में अवस्थित है. यहाँ नौ महीने तक हिमस्खलन का खतरा रहता है. इस अवधि में जोर से बोलने, हंसने, चीखने यहाँ तक कि प्रसव की भी मनाही है.
एक तरह से सत्ता ने नौ महीने तक बोलने की मनाही कर रखी है. इस नाटक में न तो पात्रों का कोई नाम हैं न किसी देश या स्थान का ही नाम लेखक-निर्देशक ने दिया है. सब पात्र आपस में फुसफुसाहट में ही बात करते हैं. यहाँ तक कि उनके कदमों की आहट भी सुनाई नहीं देती.
बोलने या दूसरो शब्दों में सत्ता से सवाल करने की मनाही एक ऐसा सच है, जो आज पूरी दुनिया में कमोबेश व्याप्त है. इस लिहाज से नाटक का विषय अति प्रासंगिक है. काफ्का के साहित्य में जो हताशा और मानवीय संत्रास है, यह नाटक देखते हुए भी हमें उसी तरह का बोध होता है.
नाटक के दौरान बंद स्पेस में घुटन और भय को हम तेजी से महसूस करते हैं. मंच पर प्रवेश करते ही जूजुनलू यह कथन लिखा हुआ दिखता है: ‘हिमस्खलन महज एक प्राकृतिक घटना नहीं है, बल्कि हमने अपने मन में इस भय का निर्माण कर रखा है’.
शार्दूल भारद्वाज, जिन्हें हमने ‘ईब आले ऊ’ फिल्म में देखा था, इस नाटक में युवा पुरुष की भूमिका में थे, वहीं श्वेता पासरिचा उनकी पत्नी की भूमिका में थी. पति के किरदार को भारद्वाज और आसन्न प्रसवा स्त्री की भूमिका को पासरिचा ने कुशलता से निभाया. विक्रम कोचर, अश्वथ भट्ट के साथ-साथ स्वरूपा घोष और राजीव गौर सिंह जैसे मंजे अभिनेता बूढ़े पति-पत्नी की प्रभावी भूमिका में मौजूद थे.
दो अंक के इस नाटक में पहला अंक बेहद धीमा है, दूसरे अंक में तीव्रता आती है. समाज के मुखिया का युवा स्त्री (पासरिचा) को जिंदा दफनाने का फरमान दिया जाता है, चूंकि उसका बच्चा समय से पहले जन्म लेने को है. अंत में उसका पति (भारद्वाज) इस फैसले का विरोध करता है और बंदूक उठा लेता है.
प्रतीकात्मक रूप से यह नाटक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सवालों को घेरे में लेती है. बोलने पर पहरेदारी सत्ता के स्वभाव के अनुकूल है, पर यह हमारी स्वतंत्रता पर भी प्रश्नचिह्न है. जैसा कि हिंदी के कवि उदय प्रकाश ने अपनी एक कविता में लिखा है: आदमी/मरने के बाद/.कुछ नहीं सोचता/ आदमी/ मरने के बाद/ कुछ नहीं बोलता/ कुछ नहीं सोचने/और कुछ नहीं बोलने पर/ आदमी मर जाता है.