पी साइनाथ |
भारतीय साहित्य और राजनीति की भाषा में गाँव अभी भले
जीवित हो, महानगरीय पत्रकारिता से गाँव-देहात गायब हो चला है. जब कभी हजारों
किसान-मजदूर दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के लिए आते हैं, तो अखबारों, टेलीविजन
चैनलों में खबरें इन लोगों की वजह से प्रभावित होने वाले ट्रैफिक की होती है. हमें
पता भी नहीं चलता कि इनकी माँगें क्या थी? किन समस्याओं को लेकर ये दिल्ली आए थे? ऐसे में गाँव और उसके बदलते
यर्थाथ को विश्वविद्यालयों में होने वाले समाजशास्त्रीय अकादमिक अध्ययनों के लिए
छोड़ दिया गया है.
भारतीय गाँव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को
एक जगह समेटने के उद्देश्य से पिछले दिनों पी साईंनाथ की पहल से ‘पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल
इंडिया’ नामक एक वेब साइट शुरु की गई
(http://www.ruralindiaonline.org/) है. इसे उन्होंने हमारे
समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा है. इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ
विषय वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं. इस पर उपलब्ध सामग्री,
फोटो, वीडियो का इस्तेमाल कोई भी मुफ्त में कर सकता है. साथ ही कोई भी इस वेबसाइट
के लिए सामग्री मुहैया करा सकता है और इसके लिए पेशेवर पत्रकारीय कौशल की जरुरत नहीं
है. इस वेबसाइट को चलाने के लिए पी साईंनाथ किसी राजनीति या कारपोरेट जगत से धन
नहीं लेना चाहते, बल्कि आम जनों के सहयोग की उन्हें दरकार है.
कई बार सोचता हूँ कि यदि हमारे समय में पी साइनाथ नहीं होते तो क्या हम भारतीय गाँव-देहातों, किसानों की खबरों से रू-ब-रू हो पाते? क्या उदारीकृत, वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसानों की समस्या, उनकी आत्महत्या के कारणों, विषम परिस्थितियों में खेतीबाड़ी को जान पाते? ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘द हिंदू’ में पत्रकारीय कार्य के दौरान उनकी रिपोतार्जों का कोई सानी नहीं है. उनकी लिखी चर्चित किताब ‘एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्रॉट’ पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए एक ‘टेक्स्ट बुक’ की तरह है.
कई बार सोचता हूँ कि यदि हमारे समय में पी साइनाथ नहीं होते तो क्या हम भारतीय गाँव-देहातों, किसानों की खबरों से रू-ब-रू हो पाते? क्या उदारीकृत, वैश्विक अर्थव्यवस्था में किसानों की समस्या, उनकी आत्महत्या के कारणों, विषम परिस्थितियों में खेतीबाड़ी को जान पाते? ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ और ‘द हिंदू’ में पत्रकारीय कार्य के दौरान उनकी रिपोतार्जों का कोई सानी नहीं है. उनकी लिखी चर्चित किताब ‘एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्रॉट’ पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए एक ‘टेक्स्ट बुक’ की तरह है.
जनसत्ता, 25 दिसंबर 2014 |
जन्मभूमि और कर्मभूमि आप खुद नहीं चुनते, वो आपको
चुनती है. मेरा जन्म मिथिला के एक पिछड़े गाँव में हुआ और मेरी बेटी कैथी पिछले
वर्ष दिल्ली में जन्मी. मेरे लिए गाँव एक जीवित यर्थाथ है जहाँ देश की आबादी के
करीब 70 फीसद लोग रहते हैं. पर पता नहीं बीस-तीस साल बाद मेरी बेटी के लिए गाँव
का मानचित्र कैसा हो!
मुझे गाँव छोड़े लगभग बीस साल हो गए. पर गाँव अभी
छूटा नहीं है. बरस-दो बरस में एक-दो बार गाँव चला ही जाता हूँ. जब गाँव से शहर की
ओर लौटता हूँ तो लगता है कि कुछ छूट रहा है. बचपन की कुछ स्मृतियां, सपने, रंग और
आबोहवा. जो बचा है मन उसे तेजी से समेट लेना
चाहता है. निस्संदेह मेरे जैसे हजारों लोगों के लिए यह पहल इस गुजिश्ता साल की एक
सुखद भेंट हैं. पर इस भेंट को आने वाली पीढ़ी के लिए संभालने का जिम्मा भी हम जैसे
लोगों पर ही है, जो मुख्यधारा की मीडिया के बरक्स न्यू मीडिया से बदलाव लाने की
अपेक्षा पाले बैठे हैं!
4 comments:
मुझे भी घर से वापस लौटते समय लगता है कि दिल्ली जाने की यात्रा कभी खत्म ही न हो. रेलगाड़ी के साथ गुजरते खेत-खलिहानों, लोगों, पेड़-पौधों और छोटे-बड़े कस्बों को चुपचाप निहारता रहता हूं.....पता नहीं कि कब लौटना हो.
बेहद अच्छी लगी आपकी पोस्ट। जनसत्ता(25 दिसम्बर) के बरास्ते आप तक पहुंचा। पी. साईनाथ की ‘तीसरी फसल’ पढ़ी है। बेचैन कर देने वाली किताब है। खासकर हम विद्याार्थियों के लिए जिनका बचपन पलामू, छतरपुर, गढ़वा, डालटनगंज, झारखंड जैसे नक्सल प्रभावित और अति पिछड़ी जगह में गुजर-बसर करते हुए बीता हो।
हो सकता है आप मेरे विचार से अलग मत रखते हों लेकिन मेरा अपना मानना है कि अधिसंख्य ‘सिविल सोसायटी’ टाइप शहरी लोग पैदाइशी सामन्त होते हैं। उनका आत्मकेन्द्रित चेहरा प्रायः शहरी दहलीज़ से आवाजाही करते उन लोगों को अवश्य सालता होगा जो गांव से हैं या गांव की मिट्टी से बने-गुने हुए हैं। शहरी समाज में संवाद, बहस-मुबाहिसे, विचार-चिंतन इत्यादि सब कुछ नियोजित-प्रायोजित ढंग से घटित होता है। वे इंच भर मुसकान तक की कीमत वसूलते हैं शायद! इसीलिए उनमें स्वाभाविक हास-परिहास, विनोद, व्यंग्य, चुहल...आदि की न तो समझ होती है और न ही वे इसके महत्त्व को जानने-समझने का वाकई कोई प्रयत्न करते हैं। गांववाले हम जैसे विद्यार्थी जानते हैं कि हमारा निधड़क बोलना-चालना, बड़ी आत्मीयता और और बड़े लाड़ से अपनी कोई भी बात यों ही कह देना कइयों को नागवार गुजरता है; वे प्रशंसा भी चाहते हैं और प्रशंसा उलीचने का तहजीब और सलीका भी हमें बताना चाहते हैं। महानगरीय जीवनशैली के आत्ममुग्ध ऐसे लोग चाहे कितने भी चाकचुक या फीटफाट हों; अंदर से मरे-बुझे हुए लोग ही होते हैं जिनकी ज़िदगी में ऐश, मौज, लुत्फ़, खुशी, आनंद सबकुछ ‘डिमांड आॅन कैश’ दिखाई देता है लेकिन वे तब भी अधूरेपन में जीते हैं...अजनबीयत उनका साथ नहीं छोड़ती है।
गांव कई अर्थों में इनसे दूर है। गांववाले कई मायनों में इनसे अधिक खुशनसीब हैं। तमाम दुश्वारियों के बावजूद वे मानवीयता बचाए रखने में जुटे हैं जबकि बाहरी दबाव उनके मूलाधार पर लगातार प्रहार और चोट कर रहा है। मैं देख पाता हूं, वहां अभाव में भी आदर-भाव का सलीका, आगवानी और अरियातने का तौर-तरीका; पूरे जमाव के साथ बड़े-बुजुर्ग सभी का आपके कहे का अपने अनुसार भाव-अर्थ समझने की मुद्रा, भाव-भंगिमा, दैहिक चेष्टा, बोल-बर्ताव...सबकुछ मोहक और मन को सुकून पहुंचाने वाला होता है।
और मीडिया जिसकी सूरत, चाल-ढाल, रूआब-रुतबा सबकुछ नकली-नकलची नकाब-दास्ताने से बने-गढ़े हुए हैं; उससे तो यह अपेक्षा ही नहीं की जानी चाहिए कि वह गांव के बारे में कुछ सही और समझदार शब्दों में लिखेगा या रंगीन ओवरलैपिंग करते अजीबोगरीब दृश्यों, विज्ञापनों, सीरियलों में गांव का मर्म, दुख, टीस, हुक, संताप, यातना, शोषण, अत्याचार, भूख, गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा, रोग, संक्रामक बीमारी इत्यादि को ‘वस्तुनिष्ठ/निष्पक्ष/तथ्यपरक//पारदर्शी’ ढंग से पूरे देश को बतायेगा-दिखायेगा जहां ‘मेक इन इंडिया’ का गर्जन-तर्जन है, हुंकार-अहोगान है।...
फिलहाल, पी. साईनाथ की पहलकदमी को तहेदिल से आभार...शुक्रिया! और आपके इस संबंध में संवेदनशीलता दिखाने और वाज़िब/बेहद जरूरी पोस्ट लिखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
@anonymous @rajeev शुक्रिया आप दोनों का
Teesri fasal book chahiye mujhe . Kaha milegi?
Post a Comment