पत्रकार को पिटती पुलिस |
हरियाणा के सतलोक आश्रम में रामपाल की गिरफ्तारी को
लेकर पुलिस की कार्रवाई का खबरिया चैनलों पर शोर था, तभी अचानक स्क्रीन पर
पत्रकारों की पिटाई के दृश्य आने लगे. लेकिन भाजपा की नई मनोहर लाल खट्टर सरकार की
देखरेख में पुलिस की इस अप्रत्याशित और निंदनीय कार्रवाई के खिलाफ एनडीटीवी पर प्राइम टाइम में रवीश कुमार के कार्यक्रम जैसे एक-दो अपवाद को
छोड़ मुख्यधारा के मीडिया में कोई बहस-मुबाहिसा नहीं है. हां, सोशल मीडिया में जरुर लोग इस घटना की चर्चा
कर रहे हैं पर चटखारे लेकर. इस भाव से की अच्छा ही हुआ! ये चैनल वाले इसी काबिल हैं!
भारत में सोशल मीडिया पर जो चर्चा देखी जाती है वह आम
तौर पर ‘माई वे’ या ‘हाइ वे’ के बीच बहस के लिए कोई और रास्ता नहीं छोड़ती. पर मुख्यधारा के मीडिया में पुलिस की
इस कार्रवाई को लेकर, बहस, प्रतिक्रिया, आलोचना क्यों गायब है? ऐसा क्यों लग रहा है कि
सबकी खबर देने वाला मीडिया अपनी खबर देना भूल गया. कुछ ही दिन पहले जब सोनिया
गाँधी के दामाद और कारोबारी रॉबर्ट वॉडरा ने एक एजेंसी के पत्रकार को जब झिड़का और
रिकॉर्ड किया गया फुटेज डिलीट करने को विवश किया तो टेलीविजन चैनलों, अखबारों और
सरकार ने मिल कर ठीक ही इस कृत्य की चौतरफा निंदा की थी. पर इस बार ऐसा कुछ नहीं
हुआ. ना किसी को लोकतंत्र पर हमला दिखा ना हीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा. पुलिस से पत्रकारों की पिटाई के बाद जिस तरह की शांति छाई रही उससे यह पंक्ति याद आई-- ‘मार खा रोई नहीं’!
जनसत्ता, 24 नवंबर 2014 |
इस बार आम चुनाव में जिस तरह से राजनीतिक पार्टियों, खास तौर पर भारतीय जनता पार्टी ने ‘मीडिया मैनेज’ किया, वह अलग अध्ययन का विषय है. इस चुनाव प्रचार
में नरेंद्र मोदी एक ब्रांड के रुप में उभरे जिसे मीडिया ने खूब भुनाया. इस बात से
शायद ही कोई इंकार करे कि इस चुनाव में मीडिया के अधिकांश घराने एक सहयोगी राजनीतिक
पार्टी की भूमिका में थे! विशेष रूप से खबरिया चैनलों की भूमिका संदिग्ध रही.
हालांकि पिछले छह महीने की मोदी सरकार का मुख्यधारा
के मीडिया को लेकर जो रवैया रहा है उससे ऐसा लगता है कि प्रत्यक्ष रूप से सरकार
मीडिया के साथ एक निश्चित दूरी बरत रही है और सरकार सोशल मीडिया पर ज्यादा सक्रिय है.
ऐसे में मुख्यधारा का मीडिया अपनी भूमिका तय नहीं कर
पा रहा है कि वह किसके साथ है-- सरकार के या समाज के. आम जन से उसकी दूरी बढ़ती जा
रही है जो लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी वैधता पर ही सवाल खड़े करता है. पिछले छह
महीनों में यदि मीडिया की विषय वस्तु का विश्लेषण करें तो ऐसा लगता है कि सरकार की
नीतियों और काम काज के तरीकों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया के भीतर एक भय और बिन
माँगे सरकार के समर्थन का रुख है.
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