देश के प्रतिष्ठित फिल्म एवं टेलीविजन
संस्थान (एफटीआईआई) के चेयरमैन की नियुक्ति को लेकर पिछले एक हफ्ते से मीडिया और
कला जगत में घमासान मचा है. संस्थान के छात्रों ने इस नियुक्ति के खिलाफ मोर्चा
खोल दिया है और वे हड़ताल कर रहे हैं. भारतीय जनता पार्टी ने अपने एक कार्यकर्ता
गजेंद्र चौहान को चेयरमैन बनाया है. चौहान ने टेलीविजन सीरियल ‘महाभारत’ में युद्धिष्ठिर की भूमिका निभाई थी और उनके नाम कुछ बेनाम सी
फिल्में और सीरियल भी हैं!
ख़बरों के मुताबिक सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, जिससे यह संस्थान संबद्ध
है, के सामने श्याम बेनेगल, गुलजार और अडूर गोपालकृष्णन जैसे फिल्मकार के भी नाम
थे पर उसने गजेंद्र चौहान पर अपनी मुहर लगाई. ज़ाहिर है नियुक्ति में राष्ट्रवादी
विचारधारा को तरजीह दी गई. कला, सौंदर्य बोध और एफटीआईआई के इतिहास
और भारतीय फिल्म के इतिहास में इसकी महती भूमिका को नज़रअंदाज किया गया.
भारतीय जनता
पार्टी दिल्ली में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद देश में अपने कार्यकर्ताओं और
समर्थकों को सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों पर बिठा रही है ताकि देश में हिंदूत्ववादी
सांस्कृतिक प्रभुत्व स्थापित हो सके. भारत जैसे बहुलतावादी समाज और संस्कृति के
लिए यह खतरे की घंटी है. गजेंद्र चौहान की नियुक्ति को इसी संदर्भ में देखा जाना
चाहिए.
गौरतलब है कि
इससे पहले मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने वाई सुदर्शन राव को इंडियन कौंसिल ऑफ
हिस्टोरिकल रिसर्च (आईसीएचआर) का मुखिया नियुक्ति किया. एक अजाने से इतिहासकार की
नियुक्ति पर देश के जाने माने इतिहासकार हतप्रभ थे. राव का मानना है कि भारतीय
इतिहास की सारी समझ वेद और महाभारत में हैं! इसी तरह गुजरात के एक
कारोबारी और प्रधानमंत्री के करीबी जफर सरेशवाला को मौलाना आजाद नेशनल यूनिवर्सिटी
का कुलपति बनाया गया. इन नियुक्तियों को
लेकर अखबारों और सोशल मीडिया में भले ही छिटपुट विरोध दर्ज हुए हो, पर कोई व्यापक
आंदोलन नहीं हुआ. इस बार एफटीआईआई में हुई इस नियुक्ति के विरोध की आवाज़
मुंबई से लेकर कोलकाता और दिल्ली तक सुनाई दे रही है.
पुणे स्थित फिल्म संस्थान की आबोहवा में रचनात्मकता और अराजकता साथ-साथ
चलती रही है. यदि आप इस संस्थान में कदम रखें तो ‘सिनेमा ऑर नथिंग’, ‘सिनेमा इज ट्रुथ’ जैसे नारे (ग्रैफिटी) दीवारों में अंकित दिखेंगे. घटक,
हिचकॉक और जॉन अब्राहम की तस्वीरें यहाँ-वहाँ उकेरी हुई मिलेगी. ‘विजडम ट्री ‘के आप-पास देर
रात तक बहस करते छात्र और बीयर की टूटी बोतलें मिलेंगी. संस्थान के
छात्रों-अध्यापकों के लिए सिनेमा एक जुनून से कम नहीं. और इसी जुनून की वजह से
सरकार के इस फैसले के खिलाफ ‘फिल्म इज ए
बैटलग्राउंड’, ‘स्ट्राइक डॉउन
फासिज्म’ से नारों के साथ छात्र सड़क पर उतरे हैं.
एफटीआईआई |
असल में पिछले कुछ वर्षों से एफटीआईआई के निजीकरण को लेकर सरकार योजना
बनाती रही है पर छात्रों के विरोध के कारण इसे स्थगित करना पड़ा है. बॉलीवुड की
मायावी चमक से दूर एफटीआईआई पिछले साठ वर्षों से सिनेमा के अर्थ और इसकी
अर्थच्छवियों से छात्रों को रू-ब-रू करवाता रहा है. इसने देश-विदेश में भारतीय
सिनेमा को एक नई पहचान दी है. आजाद भारत में ऐसे शैक्षणिक संस्थान गिनती के हैं
जिनकी उत्कृष्ठता सर्वमान्य हो. एफटीआईआई को ऐसे चैयरमैन की जरूरत है जिनकी पहचान
राजनीतिक विचारधारा विशेष से ना होकर सिनेमा से बनी हो!
(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में, 'मनमानी के पद' शीर्षक से 2 जुलाई 2015 को प्रकाशित)
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