Friday, June 17, 2016

कैराना में बहुत कम बच रहा है कैराना

लखनऊ में बहुत कम बच रहा है लखनऊ
इलाहाबाद में बहुत कम इलाहाबाद
कानपुर और बनारस और पटना और अलीगढ़
अब इन्हीं शहरों में
कई तरह की हिंसा कई तरह के बाज़ार
कई तरह के सौदाई
इनके भीतर इनके आसपास
इनसे बहुत दूर बम्बई हैदराबाद अमृतसर
और श्रीनगर तक
हिंसा
और हिंसा की तैयारी
और हिंसा की ताक़त

सफ़ेद रात शीर्षक से लिखी आलोकधन्वा की इस कविता में विस्थापन का सवाल है. शहर की चिंता है, शहर बचा न पाने की बेबसी है. हिंसा का सवाल है. पर यह सारे सवाल एक कवि के हैं. कवि और राजनेता की भाषा में फर्क होता है, उनकी चिंता में भी. अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर में कह सकते थे: तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बरदोश, हम आएँ सुबह-ए- बनारस की रौशनी लेकर, और इसके बाद यह पूछें कि कौन दुश्मन है. वह राजनेता थे, कवि थे.

पर यह दौर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का है. कहने को प्रधानमंत्री मोदी भी गुजराती के कवि है, पर वह नाम के कवि है. मुश्किल सवालों पर चुप्पी उन्हें ज्यादा पसंद है.

आजकल उत्तर प्रदेश के शामली जिले स्थित कैराना चुनावी राजनीति के कारण चर्चा में है. बीजेपी का आरोप है कि कैराना के मुस्लिम बहुल इलाके से हिंदुओं ने भय से अपना घर-बार छोड़ दिया है. पिछले दिनों इलाहाबाद में बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह ने कैराना का हवाला दिया और कहा कैराना के अंदर जो पलायन हुआ है उसको उत्तर प्रदेश की जनता को हलके से नहीं लेना चाहिए.

जिस तरह से कभी भगवान राम उत्तर प्रदेश की राजनीति के केंद्र में थे, संभव है कि कुछ महीनों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले भगवान राम की फिर से वापसी हो! सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और विकास का पाठ बीजेपी एक साथ साधना चाहती है.

फिलहाल हम चर्चा कैराना की कर रहे हैं. जिसका अपना एक सांस्कृतिक इतिहास है. कैराना का संबंध हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के चर्चित किराना घराना से है. इस घराने के सबसे प्रसिद्ध गायक उस्ताद अब्दुल करीम खान की गायकी, उनकी ठुमरी, खयाल की चर्चा पुराने-नए शास्त्रीय संगीत से शौकीन आज भी करते हैं. करुण और श्रृंगार रस से भरे उनकी मौसकी में जो लोच है वह सहृदय को दशकों से अपनी ओर खींचती रही है. कहते हैं राम का गुणगान करिए/ राम प्रभु की भद्रता का, सभ्यता का ध्यान धरिए गाने वाले पंडित भीमसेन जोशी करीम खान के गाए पिया बिन नहीं आवत चैनऔर पिया मिलन की आससुन कर इस कदर प्रभावित हुए कि वह संगीत सीखने घर से भाग निकले. सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खान के मुताबिक भीमसेन जोशी का कहना था, अगर गाना गाना है तो ऐसे ही गाए’. मतलब उस्ताद करीम खान साहब की तरह. उस्ताद करीम खान के अलावे उनके भाई उस्ताद अब्दुल वहीद खान और उनकी दो बेटियाँ हीराबाई बड़ोदकर और रौशनआरा बेगम किराना घराने के चर्चित गायक रहे हैं.   

कैराना गाँव में 1873 में जन्मे करीम खान का भी कैराना से विस्थापन हुआ था. उन्हें मैसूर के महाराज ने रियासत में दरबार के गायक के रूप में नियुक्त किया. कर्नाटक संगीत की दुनिया में इस तरह से करीम खान साहब ने हिंदुस्तानी संगीत को प्रतिष्ठित किया. वे खुद कर्नाटक संगीत में भी पारंगत थे. यूँ उनके शिष्य पूरे भारत में रहे पर महाराष्ट्र और बंगाल में उन्होंने अपना काफी समय गुजारा था. पंडित सवाई गंधर्व (उस्ताद करीम खान के शिष्य और भीमसेन जोशी के एक गुरु),  भीमसेन जोशी, गूंगूबाई हंगल, फिरोज दस्तूर, फैयाज अहमद खान, प्रभा आत्रे आदि ने किराना घराने की गायकी को ही अपनाया.

इसी घराने के फैयाज अहमद खान की गायकी बाजू बंद खुल खुल जाए सुन कर प्रसिद्ध गायक केएल सहगल उनके शिष्य बन गए और बाद में उसे एक फिल्म में गाया भी था. उन्होंने राग झिंझोटी में उस्ताद करीम खान के गाए पिया बिन नाहीं आवत चैन भी गाया था.

किराने घराने के गायकों की मौसिकी ही उनके लिए इबादत थी, जहाँ हिंदू-मुस्लिम का राजनीति विभाजन मिट गया. चर्चित कवि मंगलेश डबराल लिखते हैं: असली कैराना संगीत का कैराना है, भाजपा के बेशर्म सांप्रदायिक झूठों और अफवाहों का नहीं.

कैराना ने महजबी राजनीति से दूर संगीत के सुरों को पूरी दुनिया में पहुँचाया. पर इस तरह के झूठ और अफवाहों से कैराना कैसे बचा रह सकता है? क्या मुजफ्फरनगर बचा रहा, क्या अयोध्या बचा रहा? आलोक धन्वा अपनी कविता में पूछते हैं:


क्या लाहौर बच रहा है?
वह अब किस मुल्क में है?
न भारत में न पाकिस्तान में
न उर्दू में न पंजाबी में
पूछो राष्ट्र निर्माताओं से
क्या लाहौर फिर बस पाया?

Saturday, June 11, 2016

सफर में समांतर सिनेमा

पिछले दिनों जब मैंने अपने गुरु प्रोफेसर वीर भारत तलवार से पूछा कि इस बीच आपने कौन-सी फिल्म देखी, तो मुस्कराते हुए उन्होंने कहा कि इन दिनों काफी अच्छी फिल्में बन रही हैं. फिर उन्होंने अलीगढ़का जिक्र किया था. हिंदी सिनेमा जहां अस्सी के दशक के बॉलीवुड को काफी पीछे छोड़ चुका है, वहीं पिछले दशक में अन्य भारतीय भाषाओं में भी लगातार कई अच्छी फिल्में आई हैं. ऐसा नहीं कि बॉलीवुड में फार्मूलाबद्ध, मसाला फिल्में नहीं बन रही हैं. एक दर्शक वर्ग के लिए इन फिल्मों का अपना सांस्कृतिक-सामाजिक महत्त्व है. लेकिन पिछले दशक में कई नए निर्देशकों ने परंपरागत तौर पर फिल्मी कहानियों से इतर अपनी फिल्मों में भारतीय समाज के यथार्थ को नए सिरे से पकड़ने की कोशिश की है. एक तरह से इसे सत्तर के दशक में विकसित समांतर सिनेमा का विस्तार कहा जा सकता है. यह अनायास नहीं है कि समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल आज के निर्देशक अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली, गुरविंदर सिंह की प्रशंसा करते थे.

पच्चीस साल पहले जब आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के साथ भूमंडलीकरण भारत में अपने पांव पसार रहा था, तब लोगों को इस बात की चिंता सता रही थी कि कहीं हॉलीवुड और बॉलीवुड का बाजार क्षेत्रीय फिल्मों के विकास को रोक न दे. लेकिन भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीक की उपलब्धता और सुगमता ने क्षेत्रीय फिल्मों को भी अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित होने का मौका दिया हैक्षेत्रीय सिनेमा ने स्थानीयता की धुरी पर मजबूती से खड़े होकर राष्ट्रीय-भूमंडलीय दर्शकों तक अपनी पहुंच बनाई है. इस बाबत विभिन्न शहरों में बने मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की भूमिका को भी रेखांकित किया जाना चाहिए. साथ ही कुछ युवा निर्देशकों-कलाकारों की सृजनशीलता और जज्बा भी सराहनीय है. इन दिनों मराठी, पंजाबी, मलयालम, कन्नड़ आदि भाषाओं में बनी फिल्में राष्ट्रीय स्तर पर सराही जा रही हैं. पिछले वर्ष युवा निर्देशक चैतन्य ताम्हाणे की फिल्म कोर्टको भारत की ओर से आधिकारिक रूप से ऑस्कर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था. इसी तरह, 2011 में सलीम अहमद निर्देशित एक मलयाली फिल्म एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी ऑस्कर के लिए भेजा गया था. चर्चित लेखक गुरुदयाल सिंह की कहानी पर आधारित और गुरविंदर सिंह निर्देशित अन्हे घोड़े दा दानको 2011 में बेहतरीन निर्देशन और सिनेमेटोग्राफी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन और उसके दमन के इर्द-गिर्द रची गई गुरविंदर की फिल्म चौथी कूटको इस बार भी पंजाबी भाषा में राष्ट्रीय पुररस्कार से सम्मानित किया गया

यानी कि सिनेमा के परदे पर क्षेत्रीयता की ऐसी धमक मौजूद है, लेकिन लगता है कि दिल्ली की जनता को इन फिल्मों से कोई खास लेना-देना नहीं है. पिछले दिनों मैंने अनु मेनन निर्देशित और नसीरुद्दीन शाह-कल्कि कोचलिन अभिनीत वेटिंगफिल्म देखी. प्रेम, बिछोह, दर्द और इंतजार को लेकर दो पीढ़ियों की अपनी समझ-नासमझ को फिल्म में जीवंत बना दिया गया है. लेकिन एक मशहूर सिनेमा हॉल में पहले दिन इस फिल्म के एक शो में बमुश्किल पंद्रह लोग थे. इसी तरह राम रेड्डी की राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित चर्चित कन्नड़ फिल्म तिथिको देखने के लिए एक शो में पच्चीस-तीस से ज्यादा दर्शक सिनेमा हॉल में मौजूद नहीं थे. जबकि कर्नाटक के एक गांव में केंद्रित कड़वे यथार्थ और हास्य बोध से भरी इस फिल्म की अंतरराष्ट्रीय जगत में भी खूब सराहना हुई है. बिना किसी स्टार के गैर पेशेवर कलाकारों ने जिस तरह से इस फिल्म में अभिनय किया है, वह किसी भी फिल्म के कला पक्ष पर विचार करने वाले समीक्षक को चौंकाता है. इसमें तो सेट, कैमरा, ध्वनि संयोजन वगैरह भी इस फिल्म को लीक से अलग ले जाकर खड़ा करता है. इसी तरह, अभी तक आर्थिक रूप से सबसे सफल मराठी फिल्म सैराटकी भी खूब चर्चा हुई. लेकिन दिल्ली में दर्शकों की पहुंच सीमित रही.

असल में पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली में सिनेमा के प्रदर्शन, विवेचन-विश्लेषण की परंपरा में कमी आई है. युवाओं के बीच लीक से हट कर बन रही फिल्मों का प्रचार-प्रसार ज्यादा नहीं हो पाता है. गौरतलब है कि पिछले दशक में दिल्ली में ओसियान फिल्मोत्सव ने दर्शकों को देश-विदेश, क्षेत्रीय सिनेमा की अच्छी फिल्मों को देखने का एक मंच दिया था. मगर 2008 में आई आर्थिक मंदी का असर इस समारोह पर भी पड़ा और इसे बंद करना पड़ा. मैंने 2005 में पहली मराठी फिल्म श्वासदेखी थी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. ‘श्वासको 2004 में ऑस्कर के लिए भी भारत की ओर से नामांकित किया गया था. इस तमाम क्षेत्रीय सिनेमा की सिनेमाई भाषा काफी अलहदा है. ये फिल्में अपने कथ्य और कहन में साफगोई और सहजता के लिए जानी जाती है. चिंता की बात यह है कि अगर इन फिल्मों की पहुंच एक बड़े दर्शक वर्ग तक नहीं हुई, तो कहीं वे अपने उद्देश्य में समांतर सिनेमा की तरह ही पिछड़ न जाएं! 
(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे में प्रकाशित, 11 जून 2016)

Thursday, June 02, 2016

लोक मन के क़रीब शेख पीर (शेक्सपीयर)

क़रीब 25 वर्ष पहले जेएनयू के खुले रंगमंच पर हबीब तनवीर के निर्देशन में नया थिएटर ने शेक्सपीयर के नाटक मिड समर नाइट्स ड्रीमका मंचन किया था. ज़ाहिर है, यह नाटक उन्होंने अंग्रेजी में नहीं, हिंदुस्तानी और छत्तीसगढ़ की रंगभाषा में किया था. 

मेरे बड़े भाई उस वक्त जेएनयू में पढ़ते थे और उन्होंने काफी तारीफ़ के साथ इस नाटक के बारे में बताया था. और उन्होंने यह भी बताया था कि बकौल हबीब तनवीर जेएनयू के पार्थसारथी रॉक्स पर बना ओपन एयर थिएटरजैसा खुला मंच भारत में कहीं नहीं है!

बहरहाल, पिछले बीस वर्षों में दिल्ली में मैंने कई नाटक देखे. हबीब तनवीर निर्देशित आगरा बाज़ार, चरण दास चोर, सड़क, पोंगा पंडित आदि भी देखे, पर कहीं ना कहीं कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपनादेखने की चाह बची रही थी. 

इस साल जनवरी में संगीत नाटक अकादमी दिल्ली में नया थिएटर के इस नाटक का मंचन देखने का मौका मिला. हबीब तनवीर के ग़ुजर जाने के बाद नया थिएटर में वो तासीर नहीं बची है, फिर भी लोक कलाकारों के अभिनय देख कर, शेक्सपीयर के पात्रों का देसी संवाद सुन कर गुदगुदी सी होती रही. देश-काल की सीमा से परे शेख पीर शेक्सपीयर की आत्मा लोक भाषा में हमारे सामने थी. मनोरंजन के लिए इतना काफ़ी था.

लेकिन मैं अभी शेक्सपीयर को क्यों याद कर रहा हूँ? असल में, एवन के बार्ड (चारण, भाट) को इस दुनिया से गए 400 साल पूरे हुए हैं और दुनिया भर उनकी पुण्यतिथि मनाई जा रही है.  इंग्लैंड के एवन नदी के तट पर एक छोटे से गाँव स्ट्रैटफोर्ड में 26 अप्रैल 1564 को शेक्सपीयर का जन्म हुआ था और 23 अप्रैल 1616 को देहांत. 

लंदन के टेम्स नदी के तट पर उन्होंने ग्लोब थिएटर की स्थापना 1599 में की. इन चार सौ सालों में ग्लोब ने वक्त के कई थपेड़े झेले हैं. पिछले बीस बरस से इसे शेक्सपीयर ग्लोब के नाम से जाना जाता है.  शेक्सपीयर कभी इस जगह सशरीर टहलते-घूमते रहे होंगे. ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, ग्लानि, करुणा, हास्य से भरे हैमलेट, रोमियो एंड जूलिएट, किंग लियर, एज यू लाइक इट, मच अडो एबाउट नथिंग आदि के पात्र दर्शकों से मुखातिब होते होंगे और मंच पर आकर शेक्सपीयर अभिवादन स्वीकार करते होंगे! कैसी दुनिया रही होगी तब. इन सवालों को मन में लिए कुछ वर्ष पहले जब मैं लंदन घूमने गया था तब शेक्सपीयर ग्लोब में एक नाटक का मंचन देखा था. खुले आंगन में बने मंच, जिसके दोनों ओर दर्शकों के बैठने के झरोखे हैं और सामने खड़े दर्शकों के लिए जगह. शेक्सपीयर ग्लोब अपनी वास्तुकला शिल्प में भी अदभुत है.

शेक्सपीयर ग्लोब ने दुनिया भर में घूम, शेक्सपीयर के नाटकों का मंचन कर इस महान नाटककार को श्रद्धांजलि दी है. साथ ही पूरे साल विभिन्न सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रमों के माध्यम से लंदन में इस महान साहित्यकार को याद किया जा रहा है.  प्रसंगवश, अतुल कुमार के निर्देशन में टवेल्थ नाइटका अनुदित नाटकपिया बहरूपियाका ग्लोब थिएटर में मंचन किया जा चुका है. सोचिए लंदन में बैठी जनता नाटक में कबीर के पद-थारा रंगमहल में, अजब शहर में/ आजा रे हंसा भाई/ निर्गुण राजा पे सिरगुन सेज बिछाई…,’ सुन कर कैसा महसूस करती होगी.  यकीन मानिए यदि आप पिया बहरूपियाके इस देसी रूप को देखेंगे-सुनेंगे तो एक ऐसे रंग अनुभव से भर उठेंगे जो समय-काल से परे अदभुत और अलौकिक है.
शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर में नाटक का मंचन

इसी तरह पुराने लोग प्रसिद्ध नाटय निर्देशक बी वी कारंत के यक्षगान शैली में किए गए मैकबेथ’ (बरनम वन) को याद करते हैं.

सच तो यह है कि साहित्य यदि उत्कृष्ट हो तो वह किसी भाषा की मोहताज नहीं होती. वह सहृदय में रस का संचार करने के लिए पर्याप्त होती है.

भरत मुनि ने नाटक को सभी कलाओं का उत्स कहा है. साथ ही नाटक भिन्न कलाओं का संगम भी है. आधुनिक समय में नाटक का स्थान सिनेमा ने ले लिया. भारत और ख़ास तौर से हिंदी के प्रसंग में तो यह बात कहीं ही जा सकती है. पर ऐसा नहीं कि हिंदी सिनेमा शेक्सपीयर के प्रभाव से अछूता हो. शेक्सपीयर का मैकबेथ कभी बंबई के माफिया संसार में मकबूलबन कर, तो कभी ओथेलो  मेरठ के जाति से बंटे समाज में ओंकाराके रूप में, तो कभी हैमलेट हैदरके रूप में रक्त रंजित कश्मीर की वादियों में भटकता है. 

हालांकि, मुक्तिबोध की एक काव्य पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो बंबइया सिनेमा ने हिंदी थिएटर से लिया बहुत ही ज्यादा, दिया बहुत ही कम है. 

कुछ वर्ष पहले मैंने मनोज बाजपेयी से पूछा था कि नेटुआ (मनोज बाजपेयी का प्रसिद्ध नाटक) की मंच पर वापसी कब होगी? उन्होंने भरी भीड़ में जवाब दिया था, जल्दी. इस बात को पाँच साल हो रहे हैं. और हम इंतज़ार ही कर रहे हैं

ख़ैर, शेक्सपीयर के बहाने यदि हम अपने अमर नाटककारों को भी याद करें, नाटक की स्थिति-परिस्थिति की चर्चा करें, नाटककारों, अभिनेताओं की बदहाली और हिंदी समाज की उपेक्षा की विवेचना करें तो हमारी संवृद्ध नाटक परंपरा को गति मिल सकती है. एक बार फिर दुहाराना उचित होगा कि भरत मुनि ने नाटक को सर्वशिल्प-प्रवर्तकमकहा है.


                                                             ( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)