अविनाश दास की फिल्म ‘अनारकली’ कल देर रात देखी. अविनाश के जज्बे को सलाम. उनके संघर्ष को सलाम.
अविनाश आदिम मित्र हैं. उनकी चेतना, विचार और कला प्रेम को नजदीक से जानता हूँ. उनके पत्रकारिता कर्म और साहित्य से परिचय था, पर फ़िल्म निर्देशक के रूप में पहली फ़िल्म से ही उन्होंने गहरी छाप छोड़ी है.
फिल्म एक सामूहिक कला है, लेकिन बावजूद इसके इसे ‘डायरेक्टर्स मीडियम’ कहा गया है. अनारकली पर अविनाश की छाप हर सीन में है. बतौर लेखक और बतौर निर्देशक! स्वरा से जैसी बेहतरीन अदाकारी उन्होंने करवाई है, वह उनके निर्देशक रूप को हिंदी सिनेमा जगत में स्थापित करता है.
बॉलीवुड फिल्मों की भाषा हिंदी भले हो, हिंदी जगत, उसकी बोली-वाणी, बात-व्यवहार को उसने हमेशा हाशिए पर रखा है. पिछले कुछ सालों में जब दिल्ली से कुछ लेखक-कलाकार बंबई पहुँचे उन्होंने हिंदी फ़िल्म के व्याकरण को बदला है. एक नया मुहावरा गढ़ा है. ‘अनारकली ऑफ आरा’ इस मुहावरे को नई अर्थवत्ता प्रदान करता है.
आरा जैसे छोटे शहर की ख़ुशबू, भाषा के भदेसपन (Bihari lilt) को यह फ़िल्म बखूबी पकड़ती है. कैमरा यथार्थ को, कलाकारों के मनोभावों को चित्रित करने में कामयाब रहा है. चूँकि फ़िल्म के केंद्र में नृत्य-संगीत (नौटंकी?) से जुड़ी एक लोक कलाकार और निजी संघर्ष है, इस लिहाज से फिल्म का गीत-संगीत कहानी को आगे बढ़ाने में सहायक है. जेएनयू के मेरे सीनियर डॉ सागर का गाना सबकी जबान पर है आज कल-मोरे पिया मतलब का यार!
अनारकली के गाने द्विअर्थी (innuendo) हैं. तीन साल की बेटी, कैथी की वजह से इसे ठीक से नहीं सुन पाया था. सिनेमा देखने के बाद आज फिर से फूल वाल्यूम पे स्पीकर पर सुना.
राजनीतिक चेतना किस कदर गानों में नए अर्थ भर सकते हैं इसका उदाहरण है- हमका देखे सुरती फांके/ चोर नज़र से लहंगा झांके/हटल नज़रिया... प्रतिरोध की भाषा किसी दुविधा की भाषा नहीं होती (सुविधा की तो कतई नहीं). रवींद्र रंधावा जो अनारकली ऑफ आरा के एसोशिएट डायरेक्टर भी हैं, इस गीत को लिखा है. यहां रेखांकित करना ज़रूरी है कि रवींद्र और उनके बड़े भाई प्रीतपाल रंधावा हमारे समय में जेएनयू में राजनैतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े रहे.
'छतिया पे रख के चला दे तू बंदूकिया, अब तो गुलमिया ना ना ना...', हर कोई नहीं लिख सकता. गोरख पांडेय की परंपरा हिंदी फ़िल्मों में आए इससे बेहतर क्या हो सकता. वैसे, कैथी भी गाना सुन कर हे पिया, हे पिया...गा रही है. रोहित शर्मा का संगीत पूरी तरह पूरबिया लोक के सुर और गंध को हमारे सामने लाने में सफल रहा है.
आरा की अनारकली का निजी संघर्ष, उसकी लड़ाई समकालीन भारतीय समाज के स्त्री संघर्ष से जुड़ कर अखिल भारतीय हो जाता है.
क्लाइमेक्स के शॉट में अनारकली रात में बलखाती, इठलाती, अकेले सुनसान सड़क पर निकलती हुई दिखती है. मुझे इसमें ‘बेख़ौफ़ आज़ादी’ की अनुगूंज सुनाई दी.
आइए, हिंदी फ़िल्म जगत में अविनाश का खुले दिल से स्वागत करें! अविनाश को, पूरी टीम को एक बार फिर से शुभकामनाएँ और बधाई.
No comments:
Post a Comment