'अनारकली ऑफ आरा' फ़िल्म के निर्देशक अविनाश
दास से एक इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि ‘दरभंगा में क्या आप जानते
थे कि आप फ़िल्म बनाना चाहते हैं.’ उनका जवाब था- ‘हां, लेकिन तब किशोर उम्र में
मैंने किसी को बताया नहीं था. मैं नहीं चाहता था कि लोग मेरे ऊपर हँसे.’
यह बात 80 के आख़िरी और 90 के शुरुआती वर्षों की है.
यह बात 80 के आख़िरी और 90 के शुरुआती वर्षों की है.
सोचिए, यदि अविनाश ने
दरभंगा-मधुबनी (मिथिला इलाके) में किसी को अपनी फ़िल्म बनाने की इच्छा के बारे में
बताया होता तो क्या प्रतिक्रिया होती. घर-परिवार, आस-पड़ोस के लोग हँसते और
फिर दुत्कारते हुए कहते—अबारा
नहितन (आवारा कही का)!
दरभंगा-मधुबनी इलाके में आज़ादी के बाद से ही फ़िल्मों के प्रति लोगों
की
दीवानगी रही है (खास कर पुरुषों में), पर एक घोर वितृष्णा का भाव
भी रहा है. ऐसा नहीं कि सूचना क्रांति के इस दौर में,
25-30 सालों
में, इस
रुख में कोई भारी बदलाव आया हो. यह दुचित्तापन आज भी कायम है. फ़िल्म
निर्माण-निर्देशन या अभिनय से जुड़ना आवारगी की श्रेणी में ही आता है! फिर भी
गाहे-बगाहे इस क्षेत्र से ‘मुंबई
एक्सप्रेस’ पकड़ने
वाले लोग मिल जाते हैं. पर उनका सारा ध्यान बॉलीवुड में जोर अजमाइश में ही लगा
रहा.
64 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों की सूची देख
रहा था और सोच रहा था कि क्या मैथिली में बनी कोई फ़िल्म भी इस सूची में है? असल में, पिछले वर्ष ‘मिथिला मखान’ को मैथिली भाषा में
सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार मिला था और स्मृति में यह बात थी. शायद, ‘मिथिला मखान’ एक मात्र मैथिली में बनी
फ़िल्म है जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. अविनाश भी गीतकार के रूप में इस
फ़िल्म से जुड़े थे.
पिछले
दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के
साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स
सिनेमाघर और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को
पुनर्परिभाषित किया है. इस बार जिस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार मिला
है वह एक मराठी फ़िल्म ही है-कासव (कच्छप-कछुआ). साथ ही सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का
पुरस्कार भी राजेश मापुस्कर को उनकी मराठी फ़िल्म ‘वेंटिलेटर’ के लिए मिला है.
जहाँ
कम लागत, अपने
कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी फ़िल्म
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है, वहीं भारतीय सिनेमा के
इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फ़िल्मों की चर्चा नहीं मिलती.
यहाँ
तक की पापुलर फ़िल्मों में भी भोजपुरी फ़िल्मों की ही चर्चा होती है, जबकि दोनों ही भाषाओँ में
फ़िल्म निर्माण का काम एक साथ करीब पचास-पचपन साल पहले शुरू किया गया था. जहाँ
वर्तमान में भोजपुरी सिनेमा एक उद्योग का रूप ले चुकी है, वहीं मैथिली सिनेमा अपने
पैरों पर भी खड़ी नहीं हो पाई है.
‘ममता
गाबए गीत’ जैसी
फ़िल्म एक अपवाद है, जिसे
गीत-संगीत की वजह से मिथिला के समाज में आज भी याद किया जाता है. इस फ़िल्म में
महेंद्र कपूर, गीता
दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और
मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. एक गीत विद्यापति का लिखा भी शामिल था
और संगीत श्याम शर्मा ने दिया था.
प्रसंगवश, ‘ममता गाबए गीत’ के निर्माताओँ में शामिल
केदार नाथ चौधरी इस फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए
लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म
के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ
मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब.
राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप
मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा.
राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं).
इस
फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस
फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद
भी मैथिली में सुनाई पड़ता है! हीरामन ‘अनारकली ऑफ आरा’ में भी मौजूद है, पर उसका रूप बदला हुआ है.
वह मिथिला का सीधा-साधा गाड़ीवान नहीं है, महानगर दिल्ली में एक
मैनेजर है!
क्या
‘तीसरी
कसम’ मैथिली
में बन सकती थी? यदि
यह फ़िल्म मैथिली में बनी होती तो शायद मैथिली सिनेमा का इतिहास कुछ और होता. आप
कह सकते हैं कि यह तो ख्याम-ख्याली है. जैसे यह सोचना कि ‘मैला आँचल’ उपन्यास यदि मैथिली में
लिखा गया होता या नागार्जुन मैथिली को छोड़ कर हिंदी की ओर रुख नहीं करते तो
मैथिली साहित्य की प्रगतिशील धारा और पुष्ट और संवृद्ध हुई होती.
ऐसा
नहीं कि इन वर्षों में मैथिली में फिल्में नहीं बनी, या प्रयास नहीं किए गए. पर
जो छिटपुट, इक्का-दुक्का
फिल्में बनी और एक नज़र उन पर डालें तो स्पष्ट लगता है कि इन फ़िल्मों की ना कोई
विशिष्ट सिनेमाई भाषा है और ना हीं इनमें कोई दृष्टि मिलती है जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में
कलात्मक रूप से रच सके.
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि
जिस तरह से हिंदी सिनेमा जगत में भोजपुरी बोली-वाणी में रची-बसी ‘अनारकली ऑफ आरा’ को आलोचनात्मक स्वीकृति
मिली है, वह अविनाश
और मुंबई में रहने वाले मिथिला के कलाकारों को मैथिली में फ़िल्म बनाने को भी
प्रेरित करेगी. मैथिली सिनेमा नागराज मंजुले, चैतन्य ताम्हाणे जैसे
निर्देशकों का इंतज़ार बेसब्री से कर रहा है!
नोट:
मैथिली के लेखक केदार नाथ चौधरी ने ‘ममता गाबए गीत’ के निर्माण से जुड़ी व्यथा
कथा को बेहद रोचक शैली में अपनी किताब ‘अबारा नहितन’ में चित्रित किया है.
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