तमाशा-ए-नौटंकी का एक दृश्य |
पिछले दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय
नाट्य विद्यालय की एक ग्रेजुएट साजिदा के निर्देशन में एक नाटक ‘तमाशा-ए-नौटंकी’ देखने का मौका मिला। इसे युवा
रंगकर्मी और पत्रकार मोहन जोशी ने लिखा है। यह नाटक लोक नाट्य शैली, नौटंकी के उरूज, अवसान और मौजूदा समय में उसकी बदहाल
स्थिति पर एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है। हालांकि यह नाटक दुखांत न होकर सुखांत है।
इसमें नाट्यकार नौटंकी की हिंदी समाज में पुनर्वापसी को लेकर यथार्थ के बदले मंच
पर एक आदर्श लोक की सृष्टि करता है, जो आश्चर्य में डालता
है!
बात चाहे नौटंकी की हो, जात्रा की या भवाई की, आधुनिक समाज में लोक नाट्य
विधाओं की जो स्थिति है, वह सुखद नहीं कही जा सकती। जब से
पॉपुलर कल्चर और खासतौर पर सिनेमा का प्रचार-प्रसार और मनोरंजन के साधन के रूप में
उसकी पहुंच भारतीय समाज में बढ़ी है, लोक में प्रदर्शनकारी
कला के जो रूप चलन में थे, वे हाशिये पर आ गए। जाहिर है,
सिनेमा के प्रचलन में आने से पहले और बाद के दशकों में भी ये लोक
नाट्य विधाएं लोगों की रुचि और प्रोत्साहन की वजह से चलन में रहीं। अगर आज ये
दर्शकों या मंच के लिए तरस रही हैं तो इसके लिए हमारा समय और समाज भी जिम्मेदार
है।
बेशक सिनेमा आधुनिक समय
में मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम है जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी
शिल्पों को खुद में समेटे हुए है। भरत मुनि ने नाटक को ‘सर्वशिल्प-प्रवर्तकम’ कहा था, पर
यह बात शिल्प-तकनीक और दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने की क्षमता के कारण सिनेमा
के बारे में भी कही जा सकती है। प्रसंगवश, सत्तर के दशक में
चर्चित फिल्मकार ऋत्विक घटक ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि ‘अगर कल को या दस साल बाद कोई नया माध्यम सामने आता है जो सिनेमा से ज्यादा
प्रभावशाली है, तो मैं तुरंत सिनेमा छोड़ कर उस नए माध्यम को
अपना लूंगा।’ किसी भी प्रतिभाशाली कलाकार या रचनाकार के लिए
विचार महत्त्वपूर्ण होते हैं, पर नए माध्यम की तलाश भी
उन्हें हमेशा रहती है जो उनकी बातों को दूर और एक वृहद समुदाय तक ले जाए। वह
लगातार उस माध्यम की तलाश में रहता है जहां उसके मनोभावों की ठीक ढंग से
अभिव्यक्ति मिल सके। इसलिए कहा गया है कि ‘प्रतिभा
नवोन्मेषशालिनी होती है।’
बहरहाल, बात सिर्फ नौटंकी जैसी लोक नाट्य विधाओं की नहीं है, जिसे सिनेमा जैसे सशक्त माध्यम से चुनौती मिली, बल्कि
आधुनिक नाटक के बारे में भी यह सच है। हाल में कई नाटक ऐसे देखने का मौका मिला,
जिनसे काफी निराशा हुई। बल्कि कई मशहूर लेखकों के उपन्यासों पर जैसी
कमजोर प्रस्तुति हुई, उसे देख कर लगा कि प्रयोग के नाम पर
किस तरह का हल्कापन परोसा जा रहा है। कला और मनोरंजन के साथ-साथ बखूबी
सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना करने वाले और बीते लंबे समय से मशहूर किसी उपन्यास की
प्रस्तुति भी अगर उसे हल्का बना देती है तो यह चिंता की बात है। नाटकों में प्रयोग
ने बहुत ऊंचाई हासिल की है। इसलिए ऐसा नहीं कि नाट्य प्रयोग नहीं होना चाहिए।
लेकिन उसके लिए जो दृष्टि या तैयारी होनी चाहिए, वह एक सिरे
से गायब दिखती है।
हालांकि इसके लिए दोष
सिर्फ नाटक के निर्देशक या उससे जुड़े अदाकारों के सिर नहीं मढ़ा जा सकता। सारे
कलाकार पेशेवर नहीं कहे जा सकते। कई ऐसे भी कलाकार होते हैं जो शौकिया रंगमंच से
जुड़े होते हैं और जिनके लिए रंगमंच रोजी-रोटी का जरिया नहीं है। ऐसे में इनमें
पेशेवर उत्कृष्टता देखने को नहीं मिलती। देश के विभिन्न भागों में जो भी कलाकार
रंगकर्म से जुड़े हैं, उनमें अधिकतर के बारे में कहा जा
सकता है कि वे अपने जुनून के कारण इसे निबाह रहे हैं या उन्हें मुंबई की मायानगरी
में अपना भविष्य दिख रहा है। मगर सवाल है कि मुंबई की मायानगरी में भी इन चार-पांच
दशकों में नाटक की पृष्ठभूमि वाले बमुश्किल दस-बीस ऐसे अदाकार हैं जिन्हें
पर्याप्त प्रतिष्ठा और पैसा मिला है। बाकी लोगों की क्या स्थिति है, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है या एक चुप्पी का आलम है।
पिछले कुछ दशकों के दौरान
बाजार के फैलने के बाद कला के कई रूपों को फायदा पहुंचा है। लेकिन लोक नाट्य
विधाएं इससे अछूती रहीं। रंगकर्मियों के लिए बाजार नए अवसर लेकर नहीं आया। ऐसे में
तमाशा,
नौटंकी या जात्रा के लिए बाजार से कोई उम्मीद नहीं। सवाल उठता है कि
फिर उम्मीद किससे है? मेरा उत्तर यह होगा कि उम्मीद उसी समाज
से, जो अपनी आदिम अभिव्यक्ति के लिए लोक नाट्य शैलियों का
सहारा लेता रहा है। लेकिन तेजी से बदलते इस आधुनिक समाज में क्या यह उम्मीद सच के
करीब है!
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 18 मार्च, 2017 को प्रकाशित)
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