90 के दशक में ‘डायस्पोरा’ यानी
विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों (एनआरआई) की जिंदगी फिल्मों में पूरे
तामझाम के साथ आई। ‘दिल वाले
दुल्हनियां ले जाएंगे’, ‘परदेस’ और ‘कभी खुशी
कभी गम’ जैसी फिल्मों ने भारतीय दर्शकों पर
जादू किया क्योंकि मध्यवर्गीय समाज भी उनके चरित्रों की तरह समृद्ध होने और विदेश
में बसने के सपने देख रहा था। बॉलिवुड की फिल्में पहले भी विदेशों में शूट की जाती
थीं लेकिन पिछले दो-ढाई दशकों में हर दूसरी बड़े बजट की फिल्म को बाहर शूट करने पर
निर्माता-निर्देशकों का जोर बढ़ा है। ये फिल्में मुख्य रूप से भूमंडलीकरण के बाद
उभरे महानगरीय उच्च मध्य वर्ग को केंद्र में रखकर बनाई गईं। इस तरह बॉलिवुड
फिल्में ‘ग्लोबल’ हुईं। करीब एक दशक तक ऐसी फिल्मों की लहर चली लेकिन पिछले कुछ
वर्षों से उनका जादू उतार पर है क्योंकि ये एक खास तरह के फॉर्मूले और रूढ़ियों में
फंसकर रह गई हैं।
असल में इंटरनेट के बढ़ते
प्रसार ने अब बाहरी दुनिया को रहस्य नहीं रहने दिया है। सब कुछ अब सेलफोन पर देखा
जा सकता है,
इसलिए विदेशी धरती, विदेशी रहन-सहन को देखने का आकर्षण कम हो गया है। शायद यही
वजह है कि ‘जब हैरी मेट सेजल’ और ‘ऐ दिल है
मुश्किल’ जैसी फिल्में पर्दे पर कुछ भी नया
गढ़ने में नाकाम रही हैं। बड़े स्टार्स और निर्देशकों का नाम जुड़ा होने के बावजूद
ये बॉक्स ऑफिस पर भी कोई खास करिश्मा नहीं कर पाईं। ऐसे में कम बजट की कई फिल्में
ताजा हवा के झोंके की तरह आईं और उन्होंने बॉलिवुड का मुहावरा बदल दिया। लंबे समय
तक विदेश में रमे रहने के बाद फिल्मी कैमरा आसपास के कस्बों की तरफ लौटा जिन्हें
हम लगभग भूल ही गए थे।
हाल के वर्षों में निर्देशकों
और लेखकों का एक नया वर्ग उभरा है जो विदेशी लोकेशन पकड़ने के बजाय मुंबइया
फिल्मों को भारत के छोटे शहरों और कस्बों में ले जा रहा है। ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’, ‘आंखों
देखी’, ‘तितली’, ‘मसान’, ‘दम लगा
के हईशा’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘मुक्ति भवन’ और ‘अनारकली
ऑफ आरा’ जैसी इन फिल्मों में चुटीली कहानियों
के जरिए ‘वासेपुर’, ‘बरेली’, ‘बनारस’ या ‘आरा’ के बहाने
छोटे शहरों-कस्बों की जिंदगी, परिवार, नाते-रिश्तेदारी और अस्मिता को उकेरा गया है। प्रसंगवश ‘आंखों देखी’ या ‘तितली’ फिल्म की
पृष्ठभूमि किसी छोटे शहर के बजाय दिल्ली जैसा महानगर है लेकिन यह वह ‘दिल्ली’ है जो
हिन्दी सिनेमा के 100 वर्षों
के इतिहास में उसकी नजरों से छूट ही जाती रही है। दिल्ली में होने के बावजूद इनमें
ना तो हम ‘लाल किला’ देखते हैं, ना ही ‘इंडिया गेट’। अन्य
बातों के अलावा ये फिल्में स्त्रियों की एक अलग छवि गढ़ने में भी कामयाब हुई हैं
जो ‘स्टीरियोटाइप’ नहीं है।
‘बरेली की बर्फी’ में नायिका बिट्टी पर ‘भारतीय
संस्कृति’ के प्रदर्शन का वैसा बोझ नहीं है, जैसा ‘दिलवाले
दुल्हनिया ले जाएंगे’ या ‘परदेस’ के
स्त्री पात्रों के चित्रण में दिखता है। पितृसत्ता के साथ भी उसके रिश्ते बदले हुए
हैं। इसी तरह ‘अनारकली ऑफ आरा’ में अनारकली पितृसत्ता से टकराते हुए एक आधुनिक भारतीय
स्त्री की चेतना से लैस दिखती है। इस क्रम में स्थानीयता की भूमि पर विकसित अनारकली की लड़ाई समकालीन भारतीय समाज के
स्त्री संघर्ष से जुड़कर अखिल भारतीय हो जाती है। इसी कड़ी में हम ‘न्यूटन’, ‘लिपस्टिक
अंडर माय बुर्का’
या ‘टॉइलट: एक प्रेम कथा’ को भी
देख सकते हैं जिनकी कहानी महानगरों से दूर की जगहों में रची-बसी है। छोटे शहरों, कस्बों के इर्द-गिर्द घूमती ये हिन्दी फिल्में भूमंडलीकरण
के औजारों और नई तकनीकों का इस्तेमाल कर हाशिए पर पड़े हिन्दी समाज, उसके भदेसपन, उसकी
बोली-बानी की खूशबू को मुख्यधारा में लाने की सफल कोशिश करती दिख रही हैं।
दरअसल, ग्लोबलाइजेशन ने हमारे उस कस्बे को भी बदला है जिसे हम पीछे
छोड़ आए हैं। हमें शायद इस बात का अहसास नहीं है कि आधुनिक बाजार ने वहां पहुंचकर
न सिर्फ एक नया अर्थतंत्र तैयार किया है बल्कि सामाजिक बदलाव की भूमिका भी बना दी
है। वहां संबंध बदल गए हैं। लोगों के जीने का तरीका बदल गया है। रहन-सहन और
मानसिकता बदल गई है। महानगर के मल्टीप्लेक्स में बैठा कोई दर्शक वहां के बदले हुए
लड़के-लड़कियों को स्क्रीन पर देखता है तो सुखद आश्चर्य और एक हद तक नॉस्टैल्जिया
से भर जाता है। उसे अपने घर का यह बदला हुआ यथार्थ आनंदित करता है। शायद इसीलिए
कस्बों की कहानी बेहद हिट हो रही है। विदेशी दृश्य देख-देखकर ऊबे हुए लोगों को
कस्बों के लोकेशंस नया आस्वाद देते हैं।
दूसरी बात यह है कि भूमंडलीकरण
ने समाज में कुछ हद तक जनतांत्रिकता पैदा की है, इसलिए छोटी जगहों पर समाज का कमजोर वर्ग अपने हक के लिए खड़ा होता
दिख रहा है। वह अब बराबरी की लड़ाई लड़ रहा है। इन तबकों में स्त्री भी शामिल है।
उसका संघर्ष स्क्रीन पर एक नए विषय के रूप में सामने आया है। जाहिर है, इन फिल्मों ने हिन्दी सिनेमा के दायरे का विस्तार किया है।
नए तरह के नायक सामने आ रहे हैं। ऐसे चरित्र देखने को मिल रहे हैं जो यथार्थ के
बेहद करीब हैं और रोजमर्रा के जीवन में अक्सर दिख जाते हैं। सबसे बड़ी बात है कि
खुद बॉलिवुड के भीतर एक तरह का परिवर्तन आया है। वहां छोटे-छोटे शहरों से
लेखक-निर्देशक और अभिनेता पहुंचे हैं जिनका नजरिया पहले के लोगों से बहुत अलग है।
उनमें विश्व सिनेमा की समझ है लेकिन उनकी स्मृतियों में उनका शहर गहराई से बसा हुआ
है। वे हिन्दी सिनेमा में एक नई ताजगी ला रहे हैं। उम्मीद करें कि बॉलिवुड में
स्थानीयता का यह रंग उसे और समृद्ध करेगा।
(नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर 18 नवंबर 2017 को प्रकाशित)