भारत में फीचर फिल्मों का इस कदर बोलबाला है कि डॉक्यूमेंट्री फिल्में महज फिल्म समारोहों तक ही सिमट कर रह जाती हैं. न तो इन फिल्मों का ठीक से प्रदर्शन होता है और न ही समीक्षक चर्चा के लायक समझते हैं. आनंद पटवर्धन या अमर कंवर जैसे फिल्म निर्देशक अपवाद हैं, जिनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की चर्चा गाहे-बगाहे हो जाती है.
पिछले दिनों एक फिल्म समारोह में फिल्म निर्देशक कमल स्वरूप की डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘पुष्कर पुराण’ देखने का मौका मिला. यह फिल्म भगवान ब्रह्मा की नगरी और उससे जुड़े मिथक, किंवदंतियों के बहाने वर्तमान पुष्कर की आबोहवा में रची-बसी है. उल्लेखनीय है कि पूरी दुनिया में ब्रह्मा का एक मात्र मंदिर राजस्थान के पुष्कर में ही स्थित है.
कमल स्वरूप कहते हैं- ‘मैं फीचर फिल्म डॉक्यूमेंट्री की शैली में और डॉक्यूमेंट्री फीचर फिल्म की शैली में बनाता हूं.’ कमल अजमेर में पले-बढ़े हैं और आसपास के समाज, हिंदू धर्म और कर्मकांडों से बखूबी परिचित हैं. बाद में उन्होंने फिल्म और टेलीविजन संस्थान, पुणे से फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखा-समझा.
इस फिल्म का विचार पक्ष रॉबर्तो कलासो की बहुचर्चित किताब- ‘का : स्टोरीज ऑफ द माइंड एंड गॉड्स ऑफ इंडिया’ से प्रेरित है. हालांकि कमल कहते हैं कि उनके लिए विषय वस्तु (कंटेंट) ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि शैली (क्राफ्ट) है. यह बात इस डॉक्यूमेंट्री को देखने पर स्पष्ट भी हो जाती है. इसमें दृश्य, बिंब और ध्वनि का जिस तरह से संयोजन किया गया है, वह इसे लीक से हटकर एक सफल वृत्तचित्र (डॉक्यूमेंट्री) बनाता है. विभिन्न तरह की ध्वनियों का संयोजन इसे समकालीन वृत्तचित्रों से अलग श्रेणी में ले जाता है.
साल 1988 में बनी कमल स्वरूप की क्लासिक फीचर फिल्म ‘ओम दर-ब-दर’ की पृष्ठभूमि भी पुष्कर ही है, पर यह वृत्तचित्र उस फिल्म से अलग है. ‘पुष्कर पुराण’ में वेद, पुराण और वैदिक समाज की चर्चा के साथ ही पुष्कर के आसपास के समकालीन समाज का निरूपण है. इस तरह यह फिल्म एक साथ लोक और शास्त्र दोनों की आवाजाही करती है. कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पुष्कर में लगनेवाले विशाल पशु मेले के दृश्यांकन में यह बेहद खूबसूरती से दर्शकों के सामने आता है.
इस फिल्म में संवाद बेहद कम हैं. फिल्मकार अपनी तरफ से लोक में मौजूद विश्वास, अंधविश्वास पर टीका-टिप्पणी नहीं करता है. इसमें आये अश्वमेघ प्रसंग और घोड़े की बलि की बात आधुनिक मन को भले ही विचलित करे, पर दर्शकों को भारतीय मिथक और उसके विश्लेषण को भी बाध्य करता है. धर्म के बाजार और पिछले कुछ वर्षों में पर्यटकों की आवाजाही से स्थानीय स्तर पर जो संबंधों में तनाव आया है, उसे भी यह वृत्तचित्र संग्रहित करते चलता है. आश्चर्य नहीं कि एक घंटा चालीस मिनट लंबी इस वृत्तचित्र में ‘कालबेलिया का नृत्य’ और ‘बैले’ को निर्देशक ने एक साथ समाहित किया है.
समाजशास्त्रियों व धर्म-मिथक अध्येताओं के लिए जहां यह एक प्रमुख अध्ययन की तरह है, तो वहीं दर्शकों व फिल्म निर्माण से जुड़े छात्रों के लिए एक ‘मास्टर क्लास’ की तरह है.
(प्रभात खबर, रवि रंग, 12 अगस्त 2018)
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