आधुनिक स्मार्ट फोन, लैपटॉप, टीवी और इंटरनेट के दौर में बीतता आज का बचपन हमारे बचपन से अलहदा है. हमारे बचपन में किताबें भले ही नहीं थी, लेकिन दादी-नानी की कहानियां थीं. तकनीक आज के बचपन पर हावी है. हालांकि तकनीक की मार्फत बच्चे कार्टून, वीडियो की शक्ल में किस्से-कहानियों से ही ज्यादा जुड़ते हैं, माध्यम का फर्क भले हो.
पर माध्यम के बदलने से हमारे वात्सल्य का स्वरूप, बच्चों के साथ रिश्ता भी बदल जाता है. सच तो यह है कि जब हम बच्चों को किस्से-कहानियाँ सुनाते हैं तब हम अपने बचपन में भी लौटते हैं. एक तरह से हमारे लिए यह विरेचन की अवस्था होती है. जैसे कि बच्चे बार-बार हमें याद दिलाते रहते हैं कि ‘वे अब बड़े हो गए है...!’ यह उनका ‘बड़प्पन’ है और साथ ही हमारे लिए ताकीद भी कि हम उनके बचपन के घरौंदे में घुसें तो इस बात खयाल रखें!
रोमानिया मूल की जर्मनी में रहने वाली मेरी एक दोस्त, अमेलिया बोनेआ, इन दिनों काफी उत्साहित हैं. साथ ही थोड़ी सी घबराई हुई भी हैं. उन्हें चिंता है कि वह बच्चों के बीच कैसे एक कहानी का पाठ कर पाएंगी. वे कहती हैं कि अपनी बेटी को पढ़ाना और बात है, पर बच्चों के बीच पाठ का उन्हें कोई अनुभव नहीं है. वे इतिहासकार हैं. हाल ही में उन्होंने बच्चों के लिए ‘टेलीग्राफ और जादुई आम’ के इर्द-गिर्द एक किताब लिखी हैं. वह अपने गृह प्रदेश सतु मारे में स्थित बच्चों के एक सार्वजनिक पुस्तकालय में इस किताब का पाठ करेंगी.
मुझे याद आया कि तीन साल पहले मैं अपनी नन्हीं-सी बेटी, कैथी, के लिए एक किताब, चूज डे, ख़रीद कर लाया था. कहानी में ‘चू पांडा’ अपने माँ-पिता के साथ पुस्तकालय, रेस्तरां और फिर सर्कस देखने जाता है और हर जगह उसे छींक आ जाती है. बेटी ने पूछा था कि पुस्तकालय क्या होता है! मैंने घर में रखी किताबों की रैक की ओर इशारा करके बताया कि पुस्तकालय में किताबें होती है पर सोचा कि उसे कोई पुस्तकालय घूमा लाऊं. मैंने आस-पास नज़र दौड़ाई पर मुझे बच्चों का कोई भी पुस्तकालय नजर नहीं आया. फिर मैं उसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पुस्तकालय में ले गया था.
दिल्ली में स्थित ‘चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट’ जैसी जगह देश में बेहद कम है, जहाँ के पुस्तकालय में केवल बच्चों के लिए किताबें मौजूद हों. इसे प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने 1957 में स्थापित किया था. कुछ व्यक्तिगत प्रयासों को छोड़ दें तो पूरे देश में बच्चों के लिए सार्वजनिक पुस्तकालय का सर्वथा अभाव दिखता है. यहाँ तक कि बड़ों के लिए जो पुस्तकालय हैं, वहाँ भी बच्चों के लिए किताबों का कोई कोना ढूंढ़ने पर ही मिल पाता है.
हाल के वर्षो में एकलव्य, कथा, प्रथम जैसी प्रकाशन संस्थाएँ बच्चों के लिए काफी अच्छी और रचनात्मक किताबें छाप रही है. दिल्ली में होने वाले विश्व पुस्तक मेले में इन प्रकाशनों के स्टॉल पर माँ-पिता के संग बच्चों की भीड़ दिखाई देती है. बच्चों और स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों के लिए यहाँ प्रवेश मुफ्त में होता है.
नेशनल बुक ट्र्स्ट (एनबीटी) भी बच्चों के लिए दशकों से कम कीमत में सचित्र किताबें छापता रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में गैर सरकारी संस्थानों से भी किताबें छप कर आ रही हैं. कुछ महीने पहले नेहरू बाल पुस्तकालय के तहत एनबीटी से छपी बच्चों की एक पारंपरिक कहानी- 'कछुआ और खरगोश', पर मेरी नजर पड़ी जिसे जाकिर हुसैन ने मूल उर्दू में लिखा था और अनुवाद खुशवंत सिंह ने किया था. इस किताब में चित्राकंन मकबूल फिदा हुसैन ने किए थे. तीन दिग्गजों का नाम एक साथ किताब के मुख्य पृष्ठ पर देखना मेरे लिए सुखद था. यह कहा जा सकता है कि बच्चों के लिए लिखी गई किताबें बड़ों को ध्यान में रख कर ही लिखी जाती हैं, क्योंकि पहला पाठक बच्चों के अभिभावक ही होते हैं. बहरहाल, एनबीटी के पास संसाधनों की कमी नहीं है. उसे बच्चों के मानस को प्रभावित करने वाली दृष्टि के साथ नए प्रयोग कर किताबें निकालनी चाहिए.
बच्चों के बीच काम करने वाली गैर स्वंयसेवी संगठन, प्रथम ने दो साल पहले बच्चों के लिए एक ऑनलाइन लाइब्रेरी- ‘स्टोरीवीवर’ शुरु की है. यहाँ कोई भी मुफ्त में विभिन्न भारतीय भाषाओं में बच्चों के लिए किताबें डाउनलोड कर सकता है, पढ़ सकता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में अठारह साल से कम उम्र के करीब 47 करोड़ बच्चे हैं. सफदर हाशमी ने बच्चों की एक कविता में लिखा है-‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं/ तुम्हारे पास रहना चाहती हैं.’ लेकिन सवाल है कि हमने क्या आसपड़ोस में इन बच्चों के लिए कोई ऐसी जगह बनाई है, जहाँ पर उनके लिए किताबें हो, उनका अपना एक कोना हो, जहाँ पर उनकी कल्पना उड़ान भर सके.
(दुनिया मेरे आगे कॉलम, जनसत्ता में 21 जुलाई 2018 को प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment