पिछले दिनों
मैथिली फिल्मों की चर्चा चली, तब प्रोफेसर वीर
भारत तलवार ने कहा कि ‘बहुत पहले 1972-73 में मैंने पटना में एक मैथिली फिल्म देखी थी-
कन्यादान. हरिमोहन झा की कहानी थी और संवाद रेणुजी के.’ फणीश्वरनाथ रेणु इस फिल्म से जुड़े थे, यह मुझे नहीं पता था. मुझे बस इसकी जानकारी थी
कि ‘कन्यादान’ को पहली मैथिली फिल्म होने का श्रेय है.
बहरहाल, मैंने बड़े भाई
से पूछा तो उन्होंने भी कहा कि जब वे पांच साल के थे, तब यह फिल्म देखी थी, जिसकी धुंधली सी यादें हैं. मां ने कहा कि झंझारपुर (गांव
का कस्बा) के ‘बांस टॉकिज’
में गांव में आयी एक नव वधू के साथ उसने भी यह
फिल्म देखी थी.
वर्ष 1965 में फणी मजूमदार
ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. ऐसा लगता है कि इस फिल्म के बेहद कम प्रिंट बने
थे. मैंने इस फिल्म को खोजने की कोशिश की और इस सिलसिले में जब पुणे स्थित ‘नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया’ से संपर्क साधा, तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं
है.
उल्लेखनीय है कि
कन्यादान उपन्यास का रचनाकाल सन 1933 का है. इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से
चित्रित किया गया है.
इस फिल्म के
गीत-संगीत में प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था. जाहिर है
इस फिल्म की अनुपलब्धता के कारण सिनेमा, जो एक समाज को कलात्मक रूप से रचने और उसकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने का एक
जरिया है, उससे हमारी पीढ़ी वंचित
रह गयी है. इस फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व है.
समकालीन समय में जब भी क्षेत्रीय फिल्मों की बात होती है,
तो भोजपुरी का जिक्र किया जाता है. मैथिली
फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली
फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था.
भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं
का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब
फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और
मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन.
एल्फिंस्टन
बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एल्फिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एल्फिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से
मशहूर हुआ, में पिछली सदी के
दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप
में मौजूद है.
बिहार में सिनेमा
देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. आजादी के बाद मैथिली-मगही-भोजपुरी में
सिनेमा निर्माण भी हुआ, पर बाद में जहां
तक सिनेमा के सरंक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज उदासीन ही रहा है.
(प्रभात खबर, 17 जनवरी 2019 को प्रकाशित)