गोदावरी दत्त से बातचीत, नवभारत टाइम्स |
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित 89 वर्ष
की शिल्पगुरु, मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी
दत्त को कला के क्षेत्र में पद्मश्री देने की घोषणा हुई है। मधुबनी के नजदीक,
रांटी
गांव में रहने वाली दत्त की पेंटिंग की प्रदर्शनियां देश-विदेश के कई शहरों में
लगाई जा चुकी हैं। उनकी जिंदगी काफी संघर्षपूर्ण रही है। उनके जीवन पर ‘कलाकार
नमस्कार’ नाम से एक फिल्म भी बनी है। प्रस्तुत हैं गोदावरी दत्त से हाल ही में
हुई अरविंद दास की लंबी बातचीत के मुख्य अंश:
• क्या आपको पद्म पुरस्कार मिलने में
देरी हुई?
मुझे पुरस्कार की घोषणा सुन कर बहुत
खुशी हुई। खूब उत्साह है। पर मेरे प्रिय-परिजनों को लगता है कि मुझे पहले ही यह
पुरस्कार मिल जाना चाहिए था।
• अंग्रेज अधिकारी डब्लू. जी. आर्चर ने ‘मार्ग’
पत्रिका
में वर्ष 1949 में ‘मैथिल पेंटिंग’ लेख लिख कर
दीवार पर उकेरी जाने वाली इस पारंपरिक कला से दुनिया का परिचय कराया, लेकिन
वास्तव में यह पेंटिंग कितनी पुरानी है?
यह पेंटिंग आज की नहीं है, ये
हमारी संस्कृति है। बिना पेंटिंग के मिथिला में शादी-विवाह का कोई काम पूरा नहीं
हो सकता। कोहबर लिखने की कला सदियों पुरानी है। शादी के समय कोहबर, पुरहर,
पातिल,
दशावतार,
कमलदह
आदि लिखने की परंपरा रही है। पहले इसे बसहा पेपर पर लिखा जाता है। मैंने अपनी मां
सुभद्रा देवी से पेंटिंग सीखी। पहले इसे लिखिया कहा जाता था। मेरी माँ, सुभद्रा
देवी मेरी कलागुरु भी थीं। जब मैं पांच-छह साल की थी तभी से पेंटिंग बनाने लगी थी।
60 के दशक के आखिरी वर्षों में लोगों ने यह पेंटिंग कागज पर बनाना शुरू किया। बाहर
की दुनिया के लिए कागज पर मैंने पहली पेंटिंग 1971 में बनाई थी।
• अपनी कौन सी पेंटिंग बनाने में आपका मन
सबसे ज्यादा रमा?
मेरे लिए यह कहना मुश्किल है कि कौन सी
पेंटिंग बना कर मुझे ज्यादा खुशी मिली। मैंने बहुत ज्यादा पेंटिंग नहीं बनाई है,
लेकिन
जो भी बनाई वह मन से बनाई है, बहुत स्नेह से बनाई है और मेरी सारी
पेंटिंग मुझे पसंद हैं।
• जापान के मिथिला म्यूजियम में जो विशाल
त्रिशूल आपने बनाया उसके बारे में कुछ बताइए।
(हंसते हुए) मैंने सात बार जापान की
यात्रा की है। मैंने वहां पर अर्धनारीश्वर की पेंटिंग बनाई जिसमें भगवान शंकर के
हाथ में त्रिशूल है, डमरू है। मिथिला म्यूजियम के टोकियो हासेगेवा
को वह पेंटिंग बहुत पसंद आई, मुझे भी अच्छा लगा। हासेगेवा ने कहा कि
एक त्रिशूल अलग से बना दीजिए, डमरू अलग से बना दीजिए। मन में एक संशय
था कि यह कितना लंबा बनेगा। पर बाबा की कृपा थी कि 18 फुट लंबा वह त्रिशूल जब
बनाना शुरू किया तो अनायास उसमें नागफनी, सूर्य-चंद्रमा, ओम डिजाइन में आ
गया। बनाने के बाद मेरा मन हल्का हो गया था और उसके बाद मैंने कहा कि ब्रह्मा,
विष्णु
और महेश सबकी शक्ति इस त्रिशूल में निहित है। वह बहुत ही सुंदर बन गया।
• आपकी पेंटिंग में ऐसी कौन सी विशिष्टता
है जो आपको दूसरों से अलग करती है?
इस बात का जवाब मैं नहीं दे पाऊंगी। आप
इसे खुद देख कर समझ सकते हैं। किसी भी कलाकार में क्या विशिष्टता है यह देखने
वालों पर निर्भर करता है।
• आपकी कोई नई पेंटिंग जिसके बारे में आप
बताना चाहें?
एक पेंटिंग के बारे में बताना चाहूंगी।
मैंने अपनी स्मृति से जापान के लोक पर्व का चित्रण किया है। जैसे अपने यहां
पर्व-त्योहार होता है वैसा ही इसमें है। अमेरिकी एंथ्रापलॉजिस्ट डेविड सैनटन के
कहने पर मैंने यह पेंटिंग बनाई है। काफी महंगी है यह।
• पहली पेंटिंग आपकी कितने में बिकी थी?
मेरी पहली पेंटिंग 25 रुपये में बिकी
थी। उस समय घर से बाहर निकलना अच्छा नहीं माना जाता था, यह वर्जित था।
रांटी से मैं नजदीक के शहर मधुबनी भी नहीं जा पाती थी। पुरुषों को हम लोगों से
मिलने की मनाही थी। मधुबनी में जब 1971 में ललित नारायण मिश्र के सहयोग से
हैंडिक्राफ्ट का कार्यालय खुला, तब उसके पहले उप निदेशक एच. पी. मिश्रा
बने। वे बहुत ही भले और नेक दिल इंसान थे। वे गांव-गांव घूम कर कलाकारों को ढूंढ
कर काम दिया करते थे। मैंने कागज पर बनी अपनी कुछ पेंटिंग उन्हें दी थी।
• और सबसे महंगी पेटिंग कितने में बिकी?
कोलकाता स्थित बिड़ला के एक संस्थान ने
लगभग पंद्रह वर्ष पहले सवा लाख में मेरी एक पेंटिंग खरीदी थी।
• इन पचास वर्षों में मिथिला पेंटिंग की
शैली में आपने क्या बदलाव देखा है?
बदलाव तो खूब आया है। जैसे मेरी मां या
पद्म श्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग ‘फोक
टच’ लिए होती थी। आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों में
बदलाव आया है।
• नए कलाकारों के लिए क्या संदेश आप देना
चाहेंगी?
मैं तो यही कहती हूं कि साहस और धैर्य
से काम कीजिए, हिम्मत मत हारिए। इस बार कोई पुरस्कार नहीं
मिला, इसलिए मैं काम नहीं करूंगा, ऐसी सोच मन में नहीं आनी चाहिए।
(नवभारत टाइम्स, 2 फरवरी 2019 को प्रकाशित)
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