पिछले दिनों देश के
प्रतिष्ठित ‘दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स’ में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रहे रबिंद्र रे (1948-2019) के गुजरने की खबर आयी. विश्व पुस्तक मेले में मैं मैथिली की सुपरिचित
कथाकार लिली रे के उपन्यास ‘पटाक्षेप’ का
मैथिली संस्करण ढूंढ़ रहा था.
मेरी जानकारी में
नक्सलबाड़ी आंदोलन को केंद्र में रखकर मैथिली में शायद ही कोई और उपन्यास लिखा गया
है. बांग्ला की चर्चित रचनाकार महाश्वेता देवी ने भी ‘हजार चौरासी की मां’ उपन्यास लिखा, बाद में इसको आधार बनाकर इसी नाम से गोविंद निहलानी ने फिल्म भी बनायी.
उपन्यास ‘पटाक्षेप’ में बिहार के पूर्णिया इलाके में दिलीप,
अनिल, सुजीत जैसे पात्रों की मौजूदगी, संघर्ष और सशस्त्र क्रांति के लिए किसानों-मजदूरों को तैयार करने की
कार्रवाई पढ़ने पर यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह रबिंद्र रे और उनके साथियों
की कहानी है.
पात्र सुजीत कहता है- ‘हमारी पार्टी का लक्ष्य है- शोषण का अंत. श्रमिक वर्ग को उसका हक दिलाना.’
उल्लेखनीय है कि साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लिली रे
रबिंद्र रे की मां हैं, पर मानवीय मूल्यों को चित्रित
करनेवाला यह उपन्यास आत्मपरक नहीं है.
नयी पीढ़ी के लिए शायद यह
कल्पना करना मुश्किल हो कि पिछली सदी के 60 के दशक के आखिरी
और 70 के दशक के आरंभिक वर्षों में शहरी, संभ्रांत कॉलेज के युवा-छात्रों ने किसानों-आदिवासियों के हक की लड़ाई
लड़ने, उन्हें संघर्ष के लिए प्रेरित करने के लिए अपनी
पढ़ाई-लिखाई छोड़ दी और गांव-देहातों में रहने लगे. उन्होंने समतामूलक समाज का
सपना देखा.
इनमें से कुछ खेत रहे और
कुछ मुख्यधारा में लौट आये. हालांकि, बाद में रबिंद्र
रे इस विचारधारा से न सिर्फ दूरी बना ली, बल्कि अपनी किताब ‘द नक्सलाइट्स एंड देयर ऑडियोलॉजी’ में लिखा- ‘नक्सलाइट की अस्तित्ववादी विचारधारा मूल रूप से नाइलिस्ट है- जो आश्वस्त
रहता है कि वह सब कुछ है और कुछ भी नहीं है.’
सेंट स्टीफेंस कॉलेज के
दिनों के उनके मित्र और नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौर में भूमिगत रहनेवाले प्रोफेसर
दिलीप सिमियन ने रबिंद्र रे को याद करते हुए लिखा है कि ‘भूमिगत रहने के दौरान में एक बार मैं साल 1971 में
पूर्णिया में उससे मिला था.
सफेद गंजी, नीले रंग की लुंगी और घनी, लटकती मूंछ में पूर्णिया
बस स्टैंड पर लल्लू (रबिंद्र रे का पुकारू नाम) उत्तरी बिहार का किसान लग रहा था.’
युवा हमेशा स्वप्नदर्शी
होता है और विद्रोही भी. लेकिन, रबिंद्र की पीढ़ी के सपने
हमारी पीढ़ी से अलग थे. उस दौर में दुनियाभर में सत्ता-व्यवस्था के खिलाफ
युवा-छात्रों का गुस्सा चरम पर था.
फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में सत्ता के खिलाफ
प्रदर्शन हो रहे थे और भारत में नक्सलबाड़ी आंदोलन में युवा-छात्रों ने भागेदारी
की थी. नागार्जुन ने लिखा है- जो छोटी-सी नैया लेकर/ उतरे करने को उदधि-पार/ मन की
मन में ही रही, स्वयं/ हो गये उसी में निराकार!/ उनको
प्रणाम!
(प्रभात खबर, 19 फरवरी 2019 को प्रकाशित)
No comments:
Post a Comment