प्रभात खबर |
सोशल मीडिया पर युवा निर्देशक इवान अय्यर की पहली फिल्म ‘सोनी’ की इन दिनों खूब चर्चा है. फिल्म समारोहों में सुर्खियां बटोर चुकी यह फिल्म हाल ही में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है.
ऐसा नहीं है कि भारतीय फिल्मों के इतिहास में स्त्रियों को केंद्र में रखकर फिल्में नहीं बनी हैं, या स्त्रियों की स्टीरियोटाइप छवियों से अलग छवि गढ़ने की कोशिश नहीं की गयी हो. हिंदी फिल्मों की बात करें, तो आजादी के बाद फिल्म मदर इंडिया की राधा, बंदिनी की कल्याणी से लेकर फिल्म मिर्च मसाला की सोनबाई की छवियां इसका सफल उदाहरण हैं. मलयालम फिल्मों के चर्चित निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन अपनी फिल्मों में स्त्रियों की सशक्त और बहुविध रूपों के चित्रण के लिए खासतौर पर जाने जाते हैं.
इसी तरह हाल के वर्षों में ‘पीकू’, ‘मैरी कॉम’, ‘कहानी’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘लिपिस्टिक अंडर माय बुर्का’ और ‘अनारकली ऑफ आरा’ जैसी फिल्मों में नायिकाओं पर ‘भारतीय संस्कृति’ के प्रदर्शन का वैसा बोझ नहीं है, जैसा ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ या ‘परदेस’ के स्त्री पात्रों के चित्रण में दिखता है.
उदारीकरण के दौर में आगे बढ़नेवाली और अपने हक के लिए लड़नेवाली इन स्त्रियों के रिश्ते पितृसत्ता के साथ बदले हुए दिखायी पड़ते हैं. सोनी फिल्म भी पितृसत्ता के सवालों से टकराती है, पर अलग ढंग से. यह फिल्म मुख्य किरदार सब इंस्पेक्टर सोनी और पुलिस अफसर कल्पना के इर्द-गिर्द घूमती है.
हाल में बनी पाॅपुलर हिंदी फिल्मों में पुलिस अफसर ‘दबंग’ ही होते हैं, लेकिन इस फिल्म में मुख्य किरदार पुलिस तंत्र का हिस्सा होने के बावजूद घर-परिवार और बाहर सड़कों पर पितृसत्ता की मार झेलती हैं. यह इस फिल्म की विशिष्टता है. हालांकि, यह यथार्थ सिर्फ दिल्ली शहर का ही नहीं है.
सड़क पर स्त्रियों की आजादी और हिंसा के सवाल को मलयालम फिल्म ‘एस दुर्गा’ में निर्देशक सनल ससिधरन ने भी डॉक्यूमेंट्री शैली में बखूबी दिखाया है. पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों के लिए बेखौफ आजादी आज भी एक सपना है, यह फिल्म इस बात को रेखांकित करती है.
फिल्म का देशकाल शहर दिल्ली है. वर्ष 2012 में दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड ने पूरे देश को आंदोलित किया था. बातचीत में फिल्म के निर्देशक इवान कहते हैं कि ‘जब मैंने वर्ष 2014 में कहानी के ऊपर काम करना शुरू किया, तो मेरे जेहन में यह घटना थी, पर यह फिल्म आनन-फानन में तैयार नहीं हुई है. मैं स्त्रियों की आजादी, हिंसा के सवाल को पुलिस में काम करनेवाली महिलाओं के परिप्रेक्ष्य से देखना चाह रहा था.’
पाॅपुलर फिल्में हमें यथार्थ की दुनिया से फंतासी की ओर ले जाती हैं, पर मनोरंजन से इतर यथार्थ की पुनर्रचना एक कला माध्यम के रूप में सिनेमा को विशिष्ट बनाती रही है.
फिल्म ‘सोनी’ संवेदनशीलता के साथ, बिना किसी ताम-झाम और लाग-लपेट के छवियों (लांग सिंगल टेक), ध्वनियों और हल्की रोशनी में फिल्मांकन के माध्यम से एक ऐसा यथार्थ रचती है, जो लैंगिक विभेद, पात्रों के तनाव, आक्रोश, स्त्री मन के अंतर्द्वंदों को हमारे सामने लाने में सफल रही है. पुरुषवादी वर्चस्व स्त्रियों की सत्ता के सवाल को लेकर एक उलझन में हमेशा दिखता है. पुरुष पात्र पुलिस अफसर को ‘सर’ कहे या ‘मैडम’, यह तय नहीं कर पाते.
इवान अय्यर ईरानी फिल्मों, खासतौर पर चर्चित फिल्मकार जफर पनाही के मुरीद हैं. वे कहते हैं कि ‘जफर पनाही की फिल्मों को देखने पर हमें महसूस ही नहीं होता कि जो चीज हम पर्दे पर देख रहे हैं, वह ‘स्टेज्ड’ है, यथार्थ नहीं.’ वे पनाही की मशहूर फिल्म ‘ऑफ साइड’ का उदाहरण देते हैं.
प्रसंगवश, ‘ऑफ साइड’ फिल्म में फुटबाल की शौकीन कुछ लड़कियां स्टेडियम जाकर मैच का लुत्फ लेना चाहती हैं, पर ईरान में इस पर पाबंदी है. अपना भेष बदल कर, चोरी-छिपे लड़कियां किसी तरह स्टेडियम पहुंच तो जाती हैं, पर वे पुलिस की निगाहों से बच नहीं पातीं. फिल्म में स्त्रियों की स्वतंत्रता के सवाल के साथ पुलिस की दुविधा और बेबसी भी बखूबी उभर के आती है.
इस फिल्म में गीतिका विद्या ओहलान (सोनी) और सलोनी बत्रा (कल्पना) ने जिस सहजता से अपने किरदारों को जिया है, वह हमारे अनुभव को समृद्ध करता है. फिल्म एक लय में चलती है, लेकिन कहीं-कहीं धीमी हो जाती है.
एक पुलिस अफसर और सब-इंस्पेक्टर के आपसी संबंधों को दर्शाते हुए ऐसा लगता है कि समाज-प्रशासन में जो वर्गीय-संरचनात्मक विभाजन है, निर्देशक उसे नकारता है. हालांकि, दोनों के रहन-सहन और जीवन-यापन में यह अंतर स्पष्ट है. फिल्म दिल्ली के ‘अंधेरे कोने’ पर रोशनी डालने से नहीं चूकती. यहां सत्ता की धौंस की संस्कृति सर्वव्यापी है, जिस पर निर्देशक ने बहुत सधे ढंग से टिप्पणी की है. सिनेमा का एक काम सत्ता से सवाल करना भी है.
नेटफ्लिक्स को चाहिए कि जल्दी ही इस फिल्म को वह देश के सिनेमाघरों में प्रदर्शित करे, ताकि ऑनलाइन की दुनिया से बाहर भी आम दर्शक समूह तक इसकी पहुंच बढ़े. एक सशक्त मास मीडियम के रूप में ऐसी फिल्मों की सार्थकता भी इसी में सिद्ध होती है.
(प्रभात खबर, 3 फरवरी 2019)
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