पिछले दिनों राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद
ने मिथिला कला की वयोवृद्ध एवं सिद्धहस्त कलाकार गोदावरी दत्त को पद्मश्री से
सम्मानित किया. राष्ट्रपति के ट्विटर हैंडल से राष्ट्रपति भवन ने गोदावरी दत्त की
तस्वीर शेयर करने के साथ ही लिखा कि ‘पारंपरिक कला को बढ़ावा देने, उभरते
कलाकारों को प्रशिक्षित करने और मार्गदर्शन के लिए’ उन्हें यह
सम्मान दिया गया.
मधुबनी जिले के रांटी गांव में
रहनेवाली, शिल्प गुरु, गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं
की स्पष्टता में है. उनके यहां रंगों का प्रयोग कम-से-कम होता है. साथ ही उनके
बनाये चित्रों के विषय पारंपरिक आख्यानों से जुड़े हैं.
रामायण, महाभारत के अनेक
प्रसंगों को उन्होंने अपनी कला का आधार बनाया है. भले ही उनके विषय पारंपरिक हों,
पर
उनके चित्र आधुनिक भाव-बोध के करीब हैं. वे खुद कहती हैं कि ‘मेरी
मां या पद्मश्री से सम्मानित जितवारपुर की जगदंबा देवी की पेंटिंग ‘फोक
टच’ को लिए होता था. आधुनिक शिक्षा के आने से विषय-वस्तु और शैली दोनों
में बदलाव आया है.’
कोहबर, सीता-राम,
अर्धनारीश्वर
जैसे पारंपरिक विषयों के अलावे मिथिला कला में भ्रूण हत्या, आतंकवाद,
खेती
जैसे विषय भी पिछले दो दशकों में चित्रित किये गये हैं. यह सैकड़ों साल पुरानी इस
कला के विकसनशील होने का प्रमाण है.
पिछली सदी में जब प्रसिद्ध मिथिला
कलाकार गंगा देवी ने अमेरिकी प्रवास को अपनी पेंटिंग मे चित्रित किया, आत्मकथात्मक
रेखांकन किया, तब कला के पारखियों की नजर इस कला में निहित
आधुनिक भाव बोध और संवेदनाओं की ओर गयी.
इसी तरह संतोष कुमार दास ने ‘गुजरात
सीरीज’ बनाकर गुजरात दंगों के दौरान धर्म-हिंसा के गठजोड़ को चित्रित कर इस
कला को समकालीन समय और समाज से जोड़ा. आम तौर पर पारंपरिक कला में इस तरह के विषय
नहीं देखे जाते.
हाल ही में शांतनु दास ने नागार्जुन की
चर्चित कविता ‘अकाल और उसके बाद’ को एक बड़े
कैनवस पर मिथिला कला की शैली में चित्रित किया है. नये युवा कलाकारों की
शिक्षा-दीक्षा और ‘माइग्रेशन’ ने उनकी सोच और
संवेदना का विस्तार किया है, जो इस कला में आज प्रमुखता से दिखायी
देता है.
असल में, 20वीं सदी के
शुरुआती दशकों में ही आधुनिक विषय-वस्तु का इस पारंपरिक कला में प्रवेश दिखता है.
अंग्रेज अधिकारी डब्ल्यूजी आर्चर ने ‘मार्ग’ पत्रिका में
वर्ष 1949 में जब ‘मैथिल पेंटिंग’ लेख लिखा,
तब
उन्होंने इस कला के लिए फोक (लोक) शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था.
साथ ही मिथिला क्षेत्र में वर्ष 1934
में आये भूकंप के बाद आर्चर ने जो चित्र उतारी थी, उनमें दीवारों
पर मिथिला शैली में ‘रेलगाड़ी’ का चित्रण मिलता
है. जाहिर है, उस समय भी लोग पारंपरिक विषय-वस्तुओं से अलग
आधुनिक विषयों को अपनी कलम और कूची का आधार बनाते रहे थे. प्रसंगवश, आज
भी पुराने लोग मिथिला कला को ‘लिखिया’ कहते हैं,
पेंटिंग
नहीं.
(प्रभात खबर, 19 मार्च 2019 को प्रकाशित)
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