कुमार शहानी मीता वशिष्ठ के साथ |
सन 2010 की गर्मी के मौसम में हम पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान
(एफटीआइआइ) में फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स करने गए थे. उस दौरान समांतर सिनेमा के
अग्रणी निर्देशक मणि कौल हमारे बीच सिनेमा को लेकर विचार-विमर्श करने आए थे. वे
जितना फिल्मकार थे, उससे ज्यादा एक कुशल शिक्षक थे. अन्य बातों
के अलावे उन्होंने एक बात और कही थी कि ‘कभी आँख बंद कर भी
आप लोग फिल्म देखने की कोशिश कीजिएगा’! असल में, वे हमें फिल्म में ध्वनि की बारीकियों को पकड़ने की सीख दे रहे थे.
मणि कौल एक प्रयोगधर्मी
फिल्मकार थे. पचास वर्ष पहले 1969 में उन्होंने मोहन राकेश की
कहानी ‘उसकी रोटी’ पर फिल्म बनाई. साथ
ही इसी साल मृणाल सेन की ‘भुवन सोम’ और
बासु चटर्जी की ‘सारा आकाश’ फिल्म भी
आई. कम बजट की इन फिल्मों में सितारों या ‘स्टार’ पर जोर नहीं था. फिल्मकारों ने साहित्यिक कृतियों को कथा के लिए चुना.
बिंब और ध्वनि के सुरूचिपूर्ण इस्तेमाल ने इन फिल्मों को व्यावसायिक सिनेमा से अलग
एक खास पंक्ति में ले जाकर खड़ा किया. यहीं से हिंदी में 'न्यू
वेव सिनेमा' या समांतर सिनेमा की शुरुआत मानी गई.
इस धारा की फिल्म के
निर्माण-निर्देशन में एफटीआइआइ के युवा छात्र अगुआ थे. सन 1960 में ही एफटीआइआइ की स्थापना हुई थी. फिल्म के अध्येता मणि कौल और कुमार
शहानी जैसे निर्देशक और के के महाजन जैसे कैमरामैन की भूमिका को रेखांकित करते रहे
हैं. उल्लेखनीय है कि इस संस्थान के शुरुआत में ही ऋत्विक घटक जैसे निर्देशक
शिक्षक के रूप में जुड़ गए थे, जिन्होंने युवा फिल्मकारों
में एक नई दृष्टि और सिनेमा की समझ विकसित की.
फिर 1972 में निर्मल वर्मा की कहानी ‘माया दर्पण’ पर इसी नाम से फिल्म बना कर हिंदी सिनेमा में ‘फॉर्म’
के प्रति एकनिष्ठता को लेकर एक विमर्श खड़ा करने वाले कुमार शहानी,
मणि कौल के सहपाठी थे. वे बातचीत में ऋत्विक घटक की फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ फिल्म को शिद्दत से याद करते हैं.
साथ ही समांतर सिनेमा के परिप्रेक्ष्य में जिस 'एपिक फॉर्म'
की चर्चा होती है उसे वे घटक से प्रेरित मानते हैं. मणि कौल और
कुमार शहानी फ्रेंच न्यू वेव और खास कर चर्चित फ्रेंच फिल्म निर्देशक रॉबर्ट
ब्रेसां से भी काफी प्रभावित थे.
मुख्यधारा का सिनेमा हमेशा
से ही बड़ी पूंजी की मांग करता है और वितरक प्रयोगशील सिनेमा पर हाथ डालने से
कतराते रहते हैं. सन 1969 में ही ‘फिल्म
फाइनेंस कारपोरेशन’ ने प्रतिभावान और संभावनाशील फिल्मकारों
की ‘ऑफ बीट’ फिल्मों को कर्ज देकर
सहायता पहुँचाने का निर्देश जारी किया था. इसका लाभ मणि कौल जैसे निर्देशक उठाने
में सफल रहे. इसी दौर में हिंदी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं मसलन, मलयालम, बांगला, कन्नड़ आदि
में भी कई बेहतरीन फिल्में बनी जो दर्शकों के सामने एक अलग भाषा और सौंदर्यबोध
लेकर आई. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन फिल्मों की आज भी चर्चा होती है.
समांतर सिनेमा से जुड़े
फिल्मकारों के लिए 70 और 80 का
दशक मुफीद रहा. हालांकि इन फिल्मों की आलोचना एक बड़े दर्शक तक नहीं पहुँच पाने की
वजह से होती रही है. उसी दौर में सत्यजीत रे ने फिल्म को मास मीडिया मानते हुए एक
अलहदा दर्शक वर्ग के लिए फिल्म बनाने के विचार की आलोचना की थी. उन्होंने 'भुवन सोम' के बारे में कटाक्ष करते हुए सात शब्दों
में फिल्म का सार इस तरह लिखा था- ‘बिग बैड ब्यूरोक्रेट
रिफार्मड बाय रस्टिक बेल’. वे ‘माया दर्पण’
से भी बहुत प्रभावित नहीं थे. पर मृणाल सेन, मणि
कौल, कुमार शहानी जैसे फिल्मकार, सत्यजीत
रे से अलग रास्ता अपनाए हुए थे और अपनी फिल्मों में प्रयोग करने से कभी नहीं
हिचके. वे चाहते थे कि उनकी फिल्में देखकर दर्शक उद्वेलित हों. पॉपुलर सिनेमा की
तरह उनकी फिल्में हमारा मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि संवेदनाओं
को संवृद्ध करती हैं.
फिल्मों के बदलते स्वरूप
और उसके दर्शक वर्ग के मसले पर अब विचार होने लगा है. कुमार शहानी ने बताया कि मॉल
में बने मल्टीप्लेक्स सिनेमा हॉल उनकी फिल्मों के प्रदर्शन के उपयुक्त नहीं है
जहां लोग खाने-पीने और खरीदारी के लिए ज्यादा जाते हैं. पिछले कुछ वर्षों में
नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार और अमेजन प्राइम जैसे वेबसाइटों ने
फिल्म निर्माण और वितरण को काफी प्रभावित किया है. लेकिन चूंकि इन वेबसाइटों पर
समांतर फिल्मों की उपलब्धता आसान हो गई है, इसलिए इनके आने
के बाद युवा वर्ग में एक बार फिर से समांतर फिल्मों के प्रति रूचि जगी है. साथ ही
भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीक ने कई युवा फिल्मकारों को प्रयोग करने का मौका दिया
है.
आज कई समकालीन फिल्म
निर्देशकों मसलन अमित दत्ता, गुरविंदर सिंह, अनूप सिंह आदि की फिल्मों में समांतर सिनेमा के पुरोधाओं की छाप स्पष्ट
दिखाई देती है. सिनेमा को एक कला माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित करने में इन
प्रयोगशील फिल्मकारों की भूमिका ऐतिहासिक है.
(जनसत्ता, 5 जुलाई 2019)
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