हिंदी फिल्मों के सौ वर्षों के इतिहास में
समांतर सिनेमा आंदोलन का खासा महत्व है. आजादी से पहले वर्ष 1936 में फ्रांज ऑस्टेन ने ‘अछूत कन्या’ बनायी थी. इस फिल्म में ब्राह्मण लड़के
और एक अछूत लड़की के बीच प्रेम को दिखाया गया है. यह फिल्म महात्मा गांधी के
अछूतोद्धार आंदोलन से प्रेरित था.
वर्ष 1959 में विमल राय ने भी ‘सुजाता’ में एक अछूत लड़की और ब्राह्मण लड़के
के बीच प्रेम का चित्रण किया. लेकिन, इन
फिल्मों में जो सवाल उठाये गये, वे
ज्यादातर वैयक्तिक थे, इनमें एक वृहद् दलित समाज के संघर्ष, उनकी पहचान का सवाल गौण था.
नब्बे के दशक में हिंदी साहित्य में
दलित विमर्श मुख्य रूप से उभरा. इन्हीं वर्षों में हिंदी क्षेत्र में भी
दलितों-पिछड़ों का आंदोलन देखने को मिला. पर हिंदी फिल्मों में दलितों के संघर्ष
और उनके हक के सवाल हाशिये पर ही रहे. ‘बैंडिट
क्वीन’, ‘आरक्षण’, ‘मसान’ जैसी सफल फिल्मों में दलित किरदार तो
हैं, पर वे हिंदी सिनेमा में नया विमर्श
खड़ा करने में असफल रहे.
समांतर सिनेमा के दौर में सामंती समाज
के शोषण के इर्द-गिर्द बनी पुरस्कृत फिल्मों मसलन, ‘अंकुर’, ‘दामूल’, ‘पार’ आदि में दलितों के सवाल फिल्म के
केंद्र में नहीं हैं. ऐसा लगता है कि हिंदी फिल्में सायास रूप से दलितों, वंचितों के संघर्ष और उनके सवालों से
टकराने से बचती रही हैं. पहली बार अनुभव सिन्हा निर्देशित ‘आर्टिकिल 15’ में समाज और सत्ता से किये गये दलितों
के चुभते सवाल और उनके संघर्ष को हम फिल्म के केंद्र में पाते हैं. बिना किसी लाग-लपेट
के फिल्म का मुख्य पात्र पूछता है- ‘ये
लोग कौन हैं?’ ये वे लोग हैं जो हमारे बीच हैं, पर ओझल हैं. या कहें कि हमने जिनके
सवालों से मुंह मोड़ रखा है.
सवाल हिंदी सिनेमा के कर्ता-धर्ता से
भी पूछा जाना चाहिए कि हिंदी समाज में जब राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर पिछले दशकों
में उथल-पुथल चलता रहा वे दलितों के हक के सवालों से क्यों मुंह चुराते रहे? क्या बॉलीवुड के सारे विषय बाजार के
साथ उनके रिश्ते से तय होते रहेंगे?
‘आर्टिकल 15’ की मुख्य आलोचना इस बात को लेकर हो रही
है कि फिल्म का केंद्रीय पात्र ब्राह्मण है और ऐसा लगता है कि वह मसीहा बनकर आया
है. सवाल सही है, पर मेरी समझ से सिनेमा में वह सूत्रधार
की भूमिका में है. नायक से ज्यादा प्रभावशाली ढंग से फिल्म में अन्य पात्र जातिगत
राजनीतिक सवाल उठाते हैं.
यह बिंबों, सिनेमैटोग्राफी और संवाद से भी स्पष्ट
है. सीवर सफाई कर्मचारी का कीचड़ में सना चेहरा दर्शकों की स्मृति में वर्षों तक
रहेगा. प्रसंगवश, साहित्यकार ओम प्रकाश वाल्मीकि की
चर्चित कहानी ‘सलाम’ को यहां याद किया जा सकता है, जिसमें
दलित और ब्राह्मण पात्र के आपसी रिश्ते को संवेदनशील ढंग से उकेरा गया है.
यह सुखद है कि पिछले वर्षों में
बॉलीवुड का कैमरा पेरिस, लंदन और न्यूयॉर्क से दूर बनारस, बरेली, वासेपुर की गलियों में घूमने लगा है. महानगरों में एक नया दर्शक वर्ग
भी उभरा है, जो समकालीन मुद्दों और विमर्शों को
पर्दे पर देखना चाहता है. ऐसे में सिनेमा में उच्च और मध्यम वर्ग से इतर
दलितों-पिछड़ों की अस्मिता और संघर्ष पर भी निर्माता-निर्देशकों का फोकस बढ़ेगा.
हिंदी सिनेमा की रचनात्मकता इससे संवृद्ध होगी.
(प्रभात खबर, 28 जुलाई 2019)
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