हाल ही में अनुज्ञा बुक्स, दिल्ली से हिंदी के
आलोचक वीर भारत तलवार की किताब प्रकाशित हुई है- झारखंड में मेरे समकालीन. जैसा कि
किताब के नाम से स्पष्ट है तलवार ने इस किताब में झारखंड के उन बुद्धजीवियों, राजनीतिककर्मियों के
बारे में लिखा है जिनके साथ उन्होंने काम किया था, जो उनके संघर्ष में
साथी थे.
अकादमिक दुनिया में आने से पहले तलवार खुद एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे. 70 के दशक के में वे झारखंड आंदोलन में शरीक थे. वर्ष 1978 में उनके
नेतृत्व में हुआ झारखंड क्षेत्रीय बुद्धिजीवी सम्मेलन का ऐतिहासिक महत्व है. साथ
ही उनका लिखा पैंफलेट- ‘झारखंड: क्या, क्यों और कैसे?’ एक तरह के अलग
झारखंड राज्य आंदोलन के लिए घोषणा पत्र साबित हुआ. वर्ष 1981 में तलवार शोध करने
जेएनयू, दिल्ली आ गए पर जैसा
कि उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘झारखंड के
आदिवासियों के बीच: एक एक्टीविस्ट के नोट्स’ (ज्ञानपीठ प्रकाशन, 2008) में लिखा है-‘लेकिन झारखंड को
इतनी दूर छोड़ आने पर भी झारखंड मुझसे छूटा नहीं. हाथ छूटे तो भी रिश्ते नहीं
छोड़े जाते!’ तलवार ने अपनी इस
किताब में उन्हीं रिश्तों को याद किया है.
सहज भाषा, आलोचनात्मक दृष्टि
और संवेदनशीलता इस किताब को पठनीय और संग्रहणीय बनाता है. इस संस्मरण किताब में निर्मल मिंज, दिनेश्वर प्रसाद, नागपुरी भाषा के कवि
और झारखंड आंदोलन के नेता वी.पी. केशरी, लेखक और प्रशासक
कुमार सुरेश सिंह और बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रोफेसर डाक्टर रामदयाल मुंडा का
व्यक्तित्व और कृतित्व शामिल हैं. लेकिन यह किताब
केवल व्यक्ति-विशेष के साथ बिताए पलों का लेखा-जोखा नहीं है बल्कि यादों के झरोखों
से झारखंड के अतीत, वर्तमान और भविष्य की चिंताओं को भी
रेखांकित करता है. जैसा कि निर्मल मिंज के ऊपर लिखे अपने लेख में तलवार ने लिखा
है- ‘झारखंड आंदोलन सिर्फ
अलग राज्य का एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था. यह झारखंड प्रदेश के नव-निर्माण का
आंदोलन भी था. यह झारखंडी जनता के मूल्यों और मान्यताओं के आधार पर एक नयी झारखंडी
संस्कृति की रचना करने का आंदोलन भी था. यह झारखंडी भाषाओं को उनका अधिकार दिलाने
और उनमें साहित्य रचना करने का आंदोलन भी था.’ इस सांस्कृतिक
आंदोलन में डॉक्टर मिंज तलवार के सहयोगी बने. इस लेख में मिंज एक मानवतावादी, उच्च शिक्षा प्राप्त
बुद्धिजीवी के रूप में हमारे समाने आते हैं.
इसी तरह प्रोफेसर दिनेश्वर प्रसाद को तलवार बेहद आत्मीय ढंग से याद करते
हैं. राँची विश्वविद्यालय में उनके निर्देशन में तलवार ने पीएचडी में दाखिला लिया
पर आंदोलनकारी व्यस्तताओं के चलते उसे पूरा नहीं कर पाए. हालांकि तलवार के साथ
उनके अकादमिक संबंध जीवनपर्यंत रहे. उनकी किताब ‘लोक साहित्य और
संस्कृति’ की चर्चा करते हुए तलवार ने नोट किया है- ‘मिथकों और लोक कथाओं
में कल्पना की बहुत अजीबो-गरीब और ऊँची उड़ान होती है. कल्पना की इन अजीबो-गरीब
संरचनाओं को समझना और उसका विश्लेषण करना दिनेश्वर जी का सबसे प्रिय विषय था.’ इस लेख के माध्यम से
तलवार के व्यक्तित्व पर भी रोशनी पड़ती है. उनमें आत्मालोचन का भाव दिखता है.
इस किताब में शामिल कुमार सुरेश सिंह के ऊपर लिखा लेख बेहद महत्वपूर्ण है.
43 खंडो में प्रकाशित ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ प्रोजेक्ट उन्हीं की
देख-रेख में संपन्न हुआ था. डॉक्टर सिंह एक कुशल प्रशासक होने के साथ साथ लेखक भी
थे. बिरसा मुंडा और उनके आंदोलन पर लिखी उनकी चर्चित किताब ‘द डस्ट स्टार्म एंड
द हैंगिग मिस्ट’ को आधार बना कर ही
महाश्वेता देवी ने अरण्येर ओधिकार (जंगल के दावेदार) लिखा था. तलवार ने डॉ. सिंह
के साथ एक बातचीत के हवाले से लिखा है- ‘उसे पढ़ कर लगता है
जैसे किसी ने बाहर-बाहर से देख-सुनकर लिख डाला हो.’
रामदयाल मुंडा को
अमेरिका से वापस राँची विश्वविद्यालय लाने में वही सूत्रधार थे. जब उन्होंने
आदिवासी और क्षेत्रीय भाषाओं का विभाग खुलवाया तो मुंडा को निदेशक के रूप में
नियुक्त किया. सिंह मुंडा को विद्यार्थी जीवन से जानते थे जब वे खूंटी में
अनुमंडलाधिकारी थे और उन्होंने समारोह में उन्हें एक कविता सुनाई थी. यह कविता एक
नहर पर थी, जिसका उद्धाटन खुद
सिंह ने किया था - मेरे राजा/कैसी है तुम्हारी यह नहर/पानी कम/और लंबाई हिसाब से
बाहर/पटता है केवल एक छोर/ और बाकी/रह जाता ऊसर. तलवार ने लिखा है- ‘डॉ. सिंह इस व्यंग्य
पर तिलमिलाने के बजाए उस विद्यार्थी की प्रतिभा और साहस पर मुग्ध थे.’ और इस किताब में सबसे रोचक और प्रभावी लेख रामदयाल मुंडा के ऊपर
क़रीब 100 पेज का संस्मरण है, जिसमें उनके जीवन और
रचनाकर्म का मूल्यांकन भी शामिल है. साथ ही तलवार इस लेख में झारखंडी भाषा, साहित्य और संस्कृति
की समीक्षा भी करते चलते हैं. उन्होंने मुंडा को झारखंडी बुद्धिजीवियों का सिरमौर
कहा है. इस लेख में तलवार चर्चित फिल्मकार मेघनाथ और बीजू
टोप्पो के निर्देशन में मुंडा के ऊपर बनी एक डॉक्यूमेंट्री ‘नाची से बाची’ को खास तौर पर
रेखांकित करते हैं.
तलवार ने मुंडा के साथ अपने संबंधों का काफी विस्तार से किताब में जिक्र
किया है. वे मुंडा की पहली पत्नी, अमेरिकी नागरिक, प्रोफेसर हैजेल
लुट्ज़ के साथ अपनी मुलाकात का भी उल्लेख करते हैं, जिनसे मुंडा का तलाक
हो गया था. किताब से एक अन्य प्रसंग का जिक्र यहां हम करते हैं:
1983 में मैं मानुषी की संपादक मधु किश्वर के साथ झारखंड आया तो दोपहर बाद
मैं और मधु उनसे मिलने मोरहाबादी आए. मधु जनजातीय भाषा विभाग के बाहर सीढ़ियों पर
बैठी रही और मैं पास में ही रामदयाल के घर से उन्हें बुला लाया. रामदयाल, जो शायद दोपहर का
भोजन करके आराम कर रहे होंगे, वैसे ही सिर्फ धोती
पहने नंग-धडंग बदन में जैसे गाँव में आदिवासी रहते हैं-अपने विभाग में आ गए.....उस
दिन किसी बात पर मैं मधु किश्वर से नाराज था और उन दोनों की बातचीत से दूर बैठा
रहा. उसी मुद्रा में मेरी एक फोटो मधु ने खींच दी जिसमें खाली बदन बैठे रामदयाल भी
दिख रहे हैं. वह रामदयाल के साथ एक मात्र फोटो है अन्यथा उन दिनों किसी के साथ
फोटो खिंचाने का कभी ख्याल ही नहीं आता था.’
लेखक: वीर भारत तलवार |
इस लेख में मुंडा का चरित्र उभर से सामने आता है, पर
ऐसा नहीं है कि तलवार मुंडा के व्यक्तित्व से मुग्ध या आक्रांत हैं. जहाँ वैचारिक
रूप से विचलन दिखता है उसे वे नोट करना नहीं भूलते. आदिवासियों की अस्मिता के सवाल
को उठाते हुए तलवार लिखते हैं- ‘यह अजीब बात है कि
मुंडाओं के पूर्वजों को हिंदू ऋषियों-मुनियों से जोड़ने के लिए एक ओर वे सागू
मुंडा की आलोचना कर रहे थे, दूसरी ओर खुद अपने
लेख में यही काम कर रहे थे.’ मुंडा अमेरिका से
उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवी और संस्कृतकर्मी थे, जिनमें राजनीतिक
महत्वाकांक्षा थी. पर जैसा कि तलवार ने लिखा है उनका विकास एक जननेता के रूप में
कभी नहीं हुआ. मुंडा आखिरी दिनों में कांग्रेस के सहयोग से राज्यसभा के सदस्य बने
थे. तलवार क्षोभ के साथ लिखते हैं- ‘राजनीतिक सत्ता
हासिल करने के मोह में रामदयाल ने अपने जीवन की जितनी शक्ति और समय को खर्च किया, अगर वही शक्ति और
समय उन्होंने अपने साहित्य लेखन और सांस्कृतिक क्षेत्र के कामों में लगाया
होता-जिसमें वे बेजोड़ थे और सबसे ज्यादा योग्य थे-तो आज उनकी उपलब्धियाँ कुछ और
ही होती.’ साथ ही इसी प्रसंग
में तलवार समाज में एक बुद्धिजीवी की क्या भूमिका होनी चाहिए इसे भी नोट करते हैं.
एक बुद्धिजीवी हमेशा प्रतिरोध की भूमिका में रहता है और उसकी पक्षधरता
हाशिए पर रहने वाले उत्पीड़ित-शोषित जनता के प्रति रहती है. राजनीतिक सत्ता एक
बुद्धिजीवी को बोझ ही समझती है और इस्तेमाल करने से नहीं चूकती. वे राम दयाल मुंडा
की भाषाई संवेदना और समझ को उनके समकालनी अफ्रीकी साहित्य के चर्चित नाम न्गुगी वा
थ्योंगो के बरक्स रख कर परखते हैं और पाते हैं कि जहाँ न्गुगी अंग्रेजी को छोड़ कर
अपनी आदिवासी भाषा की ओर मुड़ गए थे, वहीं मुंडा मुंडारी
भाषा में लिखना शुरु किया,
‘धीरे धीरे अपनी भाषा छोड़कर हिंदी की ओर मुड़ते गए.’ यह बात वृहद
परिप्रेक्ष्य में अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों पर भी लागू होती है जो प्रसिद्धि
और पहुँच के लिए अंग्रेजी पर अपनी नजरें टिकाए रहते हैं.
तलवार इस किताब में आदिवासी भाषा और लिपि का विमर्श भी रचते हैं. साथ ही
पूरी किताब में आदिवासी साहित्य, समाज पर गहन टिप्पणी
भी करते चलते हैं, जो शोधार्थियों, अध्येताओं के लिए एक
महत्वपूर्ण रेफरेंस बनकर सामने आता है. इस किताब को तलवार की एक अन्य किताब-‘झारखंड आंदोलन के
दस्तावेज (नवारुण प्रकाशन, 2017)’ के साथ रख कर
पढ़नी चाहिए.
(दी लल्लनटॉप वेबसाइट पर प्रकाशित)