इस महीने के आसिफ निर्देशित ‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म ने अपने प्रदर्शन के साठ साल पूरे किए. ऐतिहासिकता के आवरण में ‘मुगल-ए-आजम’ सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता और अकबर की छवि में नेहरू युगीन धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को सामने लेकर आया. इस फिल्म में अनारकली अकबर के दरबार में जन्माष्टमी के अवसर पर कथक प्रस्तुत करती है-‘मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे’. हाल ही में जी5 ऑनलाइन वेबसाइट पर रिलीज हुई फिल्म ‘मी रक्सम’ देखते हुए इस फिल्म के दृश्य और नृत्य की छवियाँ मेरे मन में उमड़ती-घुमड़ती रही.
‘मुगल-ए-आजम’ फिल्म को सिनेमा के अध्येताओं ने मुस्लिम संस्कृति के निरूपण के लिए भी अलग से रेखांकित किया है. मुस्लिम समाज और संस्कृति को प्रदर्शित करने वाली फिल्मों को सुविधा के लिए ‘मुस्लिम सोशल’ संज्ञा से नवाजा गया. जहाँ साठ-सत्तर के दशक में आई ‘मुगल-ए-आजम’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘मेरे महबूब’, ‘पाकीजा’ आदि फिल्मों में मुस्लिम प्रभुवर्गों की संस्कृति, राजा-नवाबों की जीवन शैली को परदे पर दिखाया गया, वहीं दूसरे छोर पर ‘गर्म हवा’, ‘बाजार’, ‘सलीम लंगड़े पर मत रो’, ‘नसीम’ आदि फिल्में हैं जिसमें मुस्लिम मध्यवर्ग की अस्मिता, समस्या, सांप्रदायिकता आदि का चित्रण है. उदारीकरण के बाद देश की बदलती सामाजिक परिस्थितियों और हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार ने ‘मुस्लिम सोशल’ को बॉलीवुड में हाशिए पर धकेल दिया. मुस्लिम किरदार तो हिंदी फिल्मों में नज़र आते हैं, पर इन्हें ‘मुस्लिम सोशल’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.
‘मी रक्सम’ एक ऐसी फिल्म है जिसमें निम्नवर्गीय मुस्लिम परिवार के जीवन और संघर्ष का चित्रण है. इसे बाबा आजमी से निर्देशित किया है और शबाना आजमी ने प्रस्तुत किया है. बतौर निर्देशक यह उनकी पहली फिल्म है. इस फिल्म की कहानी स्कूल जाने वाली एक लड़की मरियम के अपने पिता के साथ रिश्ते और भरतनाट्यम नृत्य सीखने की जद्दोजहद के इर्द-गिर्द घूमती है. एक मुस्लिम लड़की के भरतनाट्यम सीखने को घर-परिवार और समाज के लोग ‘बुतपरस्ती’ और मजहब के खांचे में बांट कर देखते हैं. पर जैसा कि फिल्म में एक संवाद है- ‘सवाल डांस का नहीं है. सवाल जिंदगी अपनी शर्तों पर जीने का है.’
इस फिल्म में भी ‘सलीम’ का किरदार है, पर वह एक दर्जी है. अपनी बेटी के ख्वाबों को पूरा करने के लिए वह कोई कसर नहीं छोड़ता और मजहब के नाम पर द्वेष फैलाने वालों के मंसूबे को सफल नहीं होने देता है. सलीम का किरदार गंगा-जमुनी तहजीब को मुखर रूप से व्यक्त करता है.
फिल्म आजमगढ़ जिले के मिजवां गाँव के आस-पास अवस्थित है. मिजवां के दृश्य मोहक हैं. यह कैफी आजमी की जन्मस्थली भी है. बकौल बाबा आजमी एक बार कैफी आजमी ने उनसे पूछा था कि ‘क्या तुम कोई फिल्म मिजवां में शूट कर सकते हो?’ एक तरह से यह फिल्म शबाना आजमी और बाबा आजमी का अपने पिता और मशहूर शायर के जीवन दर्शन के प्रति श्रद्धांजलि है.
धर्मनिरपेक्षता, इसके स्वरूप और राष्ट्र-राज्य के साथ संबंधो को लेकर इन दिनों विद्वानों के बीच काफी बहस हो रही है. इन बहसों के बीच यह फिल्म एक सार्थक सांस्कृतिक हस्तक्षेप है. दानिश हुसैन और अदिति सुबेदी का अभिनय अत्यंत स्वाभाविक है. छोटी सी भूमिका में भी नसीरूद्दीन शाह प्रभावशाली हैं. खास कर पिता-पुत्री के आपसी संबंधों के दृश्य और संवाद मर्म को छूती है. हालांकि फिल्म कहीं-कहीं उसी स्टिरियोटाइप में उलझती हुई दिखती है, जिसकी फिल्म में आलोचना की गई है.
(प्रभात खबर, 30 अगस्त 2020)
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