Sunday, September 27, 2020
निगरानी पूंजीवाद के दौर में सोशल मीडिया
Wednesday, September 16, 2020
हाशिए पर सरोकार: टीवी वायरस
लेकिन अखबारों की दुनिया में अब भी कई बार ऐसा कुछ
दिख जाता है, जिससे सीमित पैमाने पर ही सही कुछ बचे होने की
उम्मीद हो जाती है.
पिछले दिनों एक अखबार ने अपने मुख्य पृष्ठ पर एक
तस्वीर प्रकाशित किया और शीर्षक दिया- टीवायरस. यह तस्वीर टेलीविजन समाचार चैनलों
के हाल के उस रवैये पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जिस पर काफी सवाल उठे है. इसके अलावा
भी सरोकार के बचे होने के उदाहरण देखे गए और पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से टीवी
मीडिया के इस चेहरे,लोगों की निजता में जबरन घुसने की कोशिश
पर चिंता जाहिर की गई.
दरअसल, यह ‘वायरस’
जब से न्यूज चैनलों ने चौबीस घंटे का प्रसारण शुरु किया तब से मौजूद
है और अभी तक इसका कोई ‘इलाज’ उपलब्ध
नहीं है. हालांकि दर्शकों में अब तक इसका सामना करने की सलाहियत विकसित हो जानी
चाहिए थी (‘हर्ड इम्यूनिटी’)! गौरतलब
है कि भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप पिछले
दो दशक में निजी टेलीविजन
समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ है, पर संवाद एकतरफा ही रहे. कह सकते हैं
कि सोशल मीडिया या अखबार से इतर यह इस माध्यम की विशेषता है.
असल में टेलीविजन मीडिया उद्योग में दर्शकों की
उपस्थिति, उनकी केंद्रीय भूमिका को लेकर
हमारे यहाँ कोई खास शोध नहीं है. कुछ छिटपुट शोध पत्र मौजूद हैं जो दर्शकों को
केंद्र में रख टेलीविजन को परखने की कोशिश करता है. पर ये चौबीस घंटे समाचार
चैनलों को अपनी जद में नहीं लेता, दूरदर्शन, सीरियलों के इर्द-गिर्द ही है.
मीडिया शोध में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि दर्शक किसी भी संदेश को अपने
तयी देखता-परखता है, वह महज एक उपभोक्ता नहीं है.
उनके पास संदेश और संवाद को नकारने की भी सहूलियत रहती है.
मीडिया आलोचक रेमंड विलियम्स ने टेलीविजन माध्यम को
तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है. चूँकि यह एक दृश्य माध्यम है इस
लिहाज से टीवी पर प्रसारित होने वाली खबरों से दर्शकों के बीच सहभागिता, घटनास्थल पर होने का बोध होता
है. इन खबरों के साथ विज्ञापन भी लिपटा हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन कार्यक्रमों के लागत और
चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है.
उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं.
भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के
प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों तक हुई, एक नेटवर्क विकसित हुआ. इसने
भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने
विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. 21वीं सदी का
पहला दशक भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के विस्तार का दशक भले रहा है. पर इसके
साथ ही इसी दशक में चैनलों की वैधता और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे थे. जैसा
कि आज तक न्यूज चैनल के न्यूज डायरेक्टर क़मर वहीद नक़वी ने वर्ष 2007 में लिखा था ‘लोग आलोचना बहुत करते हैं कि
न्यूज़ चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह
है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं.' सवाल दर्शकों
का भी है, जिस पर हम आम तौर पर चर्चा नहीं
करते.
हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो
में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट
पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि
स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में
इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके
चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है.
ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की
तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन
ने अमेरीकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- ‘सीरियस
टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन
सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’ यह शायद हमारे समाचार चैनलों के
लिए भी सच है. पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों
में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि
शिक्षा, गहन विवेचन या विरेचन का.
(जनसत्ता, 16.09.2020)
Sunday, September 13, 2020
एक एक्टिविस्ट एक्टर के सत्तर साल: शबाना आजमी
असल में, शबाना आजमी फिल्मों को सामाजिक बदलाव का औजार मानती है. यह सीख उन्हें विरासत में मिली. जहाँ पिता कैफी आजमी एक प्रगतिशील शायर थे, वहीं माता शौकत आजमी खुद थिएटर की मशहूर अदाकार रही थीं. दोनों ही 'इप्टा' से जुड़े थे.