Sunday, September 27, 2020

निगरानी पूंजीवाद के दौर में सोशल मीडिया

मास मीडिया के लिए इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में संभावनाओं और चुनौतियों से भरा रहा है. इसी दशक में सोशल मीडिया, मसलन- फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि, का अप्रत्याशित रूप से विस्तार हुआ है. पर, हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिकी नागरिक समाज और अकादमिक दुनिया में, काफी चिंता जताई जा रही है कि डिजिटल मीडिया कंपनियों से लोकतंत्र को खतरा है. इन्हीं दुश्चिंताओं के मद्देनजर डिजिटल मीडिया पर नियंत्रण को लेकर भारत सरकार भी तत्पर दिख रही है. हालांकि नियंत्रण को लेकर विमर्शकारों के बीच दुविधा है.

यह दुविधा न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में दिखती है, बल्कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों में भी मौजूद है. हाल ही में ‘नेटफ्लिक्स’ वेबसाइट पर रिलीज हुई डाक्यूमेंट्री ‘द सोशल डिलेमा’ इन्हीं सवालों से रू-ब-रू है. इसमें सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों की चर्चा है. जेफ ओरलोवस्की निर्देशित इस डॉक्यूमेंट्री में एक अमेरिकी परिवार के माध्यम से ड्रामा के तत्वों का कुशलता से समावेश किया गया है.
इसमें गूगल, यूट्यूब और सोशल मीडिया से जुड़े रहे आला अधिकारियों के छोटे-छोटे इंटरव्यू शामिल हैं. साथ ही, चर्चित किताब ‘द एज ऑफ सर्विलांस कैपिटलिज्म’ की लेखिका शोशाना जुबॉफ जैसे विशेषज्ञों से बातचीत भी है. जुबॉफ ने अपनी किताब में नोट किया है कि किस तरह मुनाफे के लिए तकनीकी कंपनियाँ हमारे जीवन को अपने नियंत्रण में ले रही है. चाहे-अनचाहे हम इन कंपनियों से उन जानकारियों को साझा कर रहे हैं जो बेहद निजी हैं. ये सूचनाएँ कंपनियों के लिए ‘डेटा’ हैं, जिसकी ताक में विज्ञापनदाता लगे रहते हैं. डॉक्यूमेंट्री में एक जगह कहा गया है ‘यदि हम किसी उत्पाद के लिए मोल नहीं चुकाते हैं तो फिर हम खुद एक उत्पाद हैं.’ पूंजीवाद के इस नए रूप में निजता/गोपनीयता (प्राइवेसी) का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
यह डॉक्यूमेंट्री ‘निगरानी पूंजीवाद’ के हवाले से दिखाती है कि किस तरह सोशल मीडिया हमारे आचार-व्यवहार को प्रभावित कर रहा है. किस तरह घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते, युवाओं के मनोभाव और प्रेम संबंध प्रभावित होने लगे हैं. किसी नशे की लत की तरह हम खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. हालांकि डॉक्यूमेंट्री में सोशल मीडिया के पूर्व अधिकारी बताते हैं कि इसका ‘डिजाइन ही ऐसा है कि आप चाह कर भी इससे अलग नहीं रह पाते’. मिर्जा गालिब के शब्दों में कहें, तो ‘उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पर दम निकले.’
निस्संदेह, पारंपरिक मीडिया के बरक्स सोशल मीडिया ने सार्वजनिक दुनिया में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और नेटवर्किंग के माध्यम से एक नए लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है. लेकिन सच यह भी है कि सोशल मीडिया के रास्ते ‘फेक न्यूज’ का तंत्र विस्तार पाता है. इन्हीं वर्षों में ‘फेक न्यूज’ और दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ पारंपरिक मीडिया भी आ गया. ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था कि ‘फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है.’ फिर सवाल है कि रास्ता किधर है? यह डॉक्यूमेंट्री सोशल मीडिया के खतरों से आगाह करने के साथ ही सधे अंदाज में उन रास्तों के बारे में हमें बताती है, जिस पर चल कर हम सुरक्षित घेरे का विकास कर सकते हैं.

(प्रभात खबर, 27.09.2020)

Wednesday, September 16, 2020

हाशिए पर सरोकार: टीवी वायरस

करीब अठारह साल पहले जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, तब कहा जा रहा था कि टेलीविजन मीडिया अभी शैशव अवस्था में है. यह संक्रमण काल है और कुछ वर्षों में ठीक हो जाएगा. लेकिन पिछले कई सालों की प्रवृत्ति पर गौर करें तो यही लगता है कि यह संक्रमण फैलता ही गया. पहले मुख्य रूप से हिंदी के समाचार चैनल इससे ग्रसित थे, अब अंग्रेजी के चैनलों में भी वायरस का प्रकोप बढ़ गया दिखता है. अंग्रेजी और हिंदी के चैनल एक खंडित लोकका निर्माण करते रहे हैं. उनके दर्शक वर्ग भी अलग रहे हैं. पर अब यह विभाजक रेखा तेजी से मिटती हुई दिख रही है.

लेकिन अखबारों की दुनिया में अब भी कई बार ऐसा कुछ दिख जाता है, जिससे सीमित  पैमाने पर ही सही कुछ बचे होने की उम्मीद हो जाती है.

पिछले दिनों एक अखबार ने अपने मुख्य पृष्ठ पर एक तस्वीर प्रकाशित किया और शीर्षक दिया- टीवायरस. यह तस्वीर टेलीविजन समाचार चैनलों के हाल के उस रवैये पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जिस पर काफी सवाल उठे है. इसके अलावा भी सरोकार के बचे होने के उदाहरण देखे गए और पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से टीवी मीडिया के इस चेहरे,लोगों की निजता में जबरन घुसने की कोशिश पर चिंता जाहिर की गई. 

दरअसल, यह ‘वायरसजब से न्यूज चैनलों ने चौबीस घंटे का प्रसारण शुरु किया तब से मौजूद है और अभी तक इसका कोई इलाजउपलब्ध नहीं है. हालांकि दर्शकों में अब तक इसका सामना करने की सलाहियत विकसित हो जानी चाहिए थी (हर्ड इम्यूनिटी’)! गौरतलब है कि भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप पिछले दो दशक में निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ है, पर संवाद एकतरफा ही रहे. कह सकते हैं कि सोशल मीडिया या अखबार से इतर यह इस माध्यम की विशेषता है.  

असल में टेलीविजन मीडिया उद्योग में दर्शकों की उपस्थिति, उनकी केंद्रीय भूमिका को लेकर हमारे यहाँ कोई खास शोध नहीं है. कुछ छिटपुट शोध पत्र मौजूद हैं जो दर्शकों को केंद्र में रख टेलीविजन को परखने की कोशिश करता है. पर ये चौबीस घंटे समाचार चैनलों को अपनी जद में नहीं लेता, दूरदर्शन, सीरियलों के इर्द-गिर्द ही है. मीडिया शोध में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि दर्शक किसी भी संदेश को अपने तयी देखता-परखता है, वह महज एक उपभोक्ता नहीं है. उनके पास संदेश और संवाद को नकारने की भी सहूलियत रहती है.  

मीडिया आलोचक रेमंड विलियम्स ने टेलीविजन माध्यम को तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है.  चूँकि यह एक दृश्य माध्यम है इस लिहाज से टीवी पर प्रसारित होने वाली खबरों से दर्शकों के बीच सहभागिता, घटनास्थल पर होने का बोध होता है.  इन खबरों के साथ विज्ञापन भी लिपटा हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन कार्यक्रमों के लागत और चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है. 

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं.

भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों तक हुई, एक नेटवर्क विकसित हुआ. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. 21वीं सदी का पहला दशक भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के विस्तार का दशक भले रहा है. पर इसके साथ ही इसी दशक में चैनलों की वैधता और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे थे. जैसा कि आज तक न्यूज चैनल के न्यूज डायरेक्टर क़मर वहीद नक़वी ने वर्ष 2007 में लिखा था लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज़ चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं.' सवाल दर्शकों का भी है, जिस पर हम आम तौर पर चर्चा नहीं करते.

हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. 

ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरीकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’  यह शायद हमारे समाचार चैनलों के लिए भी सच है.  पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षा, गहन विवेचन या विरेचन का.

(जनसत्ता, 16.09.2020)

Sunday, September 13, 2020

एक एक्टिविस्ट एक्टर के सत्तर साल: शबाना आजमी


शबाना आजमी के 'अपरूप रूप' हैं. इस हफ्ते वे जीवन के 70 वर्ष पूरे कर रही हैं. पिछले चार दशकों में सिनेमा के परदे पर, रंगमंच पर, सड़कों पर या संसद में कहाँ उनका रूप सबसे ज्यादा उज्जवल रहा है, कहना बेहद मुश्किल है. एक किस्सा है कि वर्ष 1986 में मृणाल सेन की फिल्म 'जेनेसिस' को प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह में दिखाया जा रहा था. इस समारोह में शबाना को भाग लेना था, पर वे कान नहीं जाकर बंबई में झुग्गी-झोपड़ी तोड़े जाने के विरोध में बीच सड़क पर भूख हड़ताल के लिए बैठ गईं. पाँच दिन बाद जमीन झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों को वापस दे दिया गया. 

असल में, शबाना आजमी फिल्मों को सामाजिक बदलाव का औजार मानती है. यह सीख उन्हें विरासत में मिली. जहाँ पिता कैफी आजमी एक प्रगतिशील शायर थे, वहीं माता शौकत आजमी खुद थिएटर की मशहूर अदाकार रही थीं. दोनों ही 'इप्टा' से जुड़े थे.

वर्ष 1974 में श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ से जो फिल्मी यात्रा शबाना की शुरु हुई, वह आज भी जारी है. यूं तो सत्यजीत रे (शतरंज के खिलाड़ी), मृणाल सेन (खंडहर, एक दिन अचानक), गौतम घोष (पार) जैसे निर्देशकों के साथ शबाना ने फिल्में की पर सबसे ज्यादा मकबूलियत उन्हें फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल के साथ काम करके मिली. 70 के दशक में हिंदी फिल्मों में समांतर सिनेमा की जो धारा विकसित हुई उसमें बेनेगल और शबाना की जोड़ी अगल से रेखांकित करने योग्य है. सामाजिक-राजनीतिक सवालों को उठाती उनकी फिल्में- अंकुर, निशांत, जुनून, मंडी आदि, हिंदी सिनेमा की थाती हैं. ये फिल्में मध्यमार्गी थी जिसे मनोरंजन से परहेज नहीं था. उन्हें आम दर्शकों की सराहाना भी मिली और बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी भी. 

पहली ही फिल्म 'अंकुर' में शबाना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया. बाद में 'अर्थ', 'खंडहर', 'पार' और 'गॉडमदर' फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के चार और पुरस्कार उनके हिस्से आए. मुख्यधारा और समांतर दोनों तरह की फिल्मों के विभिन्न किरदारों को उन्होंने अपने सहज अभिनय से जीवंत बना दिया है. 

समलैंगिक संबंधों को उघेरती दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' (1996) को कुछ राजनीतिक विरोध झेलना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी. बाद में इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय मंच पर कई पुरस्कारों से नवाजा गया. श्याम बेनेगल कहते हैं कि ‘शबाना किरदार को अंगीकार कर अपना बना लेती है. आत्मसात कर लेती है. यह उनकी विशिष्टता है.’ वे शबाना के ‘ट्रेंड एक्टर’ होने पर जोर देते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वे सांप्रदायिकता के खिलाफ और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में मुखर रही है.

बहरहाल, शबाना आजमी का जो रूप मेरे मन में वर्षों से बैठा है वह उनका रंगमंचीय अवतार है. फिरोज अब्बास खान निर्देशित 'तुम्हारी अमृता' नाटक के माध्यम से बीस वर्षों से भी अधिक समय तक दर्शकों से वे रू-ब-रू रही हैं. इस नाटक में अमृता और जुल्फी के बीच प्रेम प्रसंग को खतों के माध्यम से संवेदनशील और मार्मिक ढंग से व्यक्त किया गया है. 

कम लोग जानते हैं कि पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान में अभिनय का कोर्स करने से पहले उन्होंने फारुख शेख के साथ सेंट जेवियर कॉलेज, मुंबई में हिंदी नाट्य मंच की स्थापना की थी. शबाना आजमी 'एक्टिविस्ट एक्टर' हैं. उनकी बहुमुखी प्रतिभा का मूल्यांकन अभी होना बाकी है.

(प्रभात खबर, 13.09.2020)