पिछले दशकों में सूचना की नयी तकनीकी से लैस भाषाई मीडिया, खास कर हिंदी अखबार, टेलीविजन, ऑनलाइन वेबसाइट ने शहरी केंद्रों से परे दूर-दराज के इलाकों तक नेटवर्क का अप्रत्याशित विस्तार किया है। निस्संदेह, सार्वजनिक दुनिया में मास मीडिया ने बहस-मुबाहिसा को गति दी है और लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है। लेकिन सच यह भी इन्हीं वर्षों में ‘फेक न्यूज’ और दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है, जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ अखबार और टेलीविजन भी आ गए, जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन कर उपस्थित हैं।
समकालीन मीडिया परिदृश्य पर सोशल मीडिया और टेलीविजन
हावी हैं, हालांकि कोरोना महामारी के बीच समाचार पत्र जैसे पारंपरिक माध्यम की
अहमियत फिर से बढ़ी है। पर सवाल है कि इक्कीसवीं सदी में हिंदी के अखबारों की
प्रमुख प्रवृत्तियाँ क्या हैं? क्या ऑनलाइन वेबसाइट अखबारों के
पूरक बन कर उभरी हैं या ये टीवी समाचार चैनलों के करीब हैं? समाचार चैनल सच दिखाने और सत्ता से
सच बोलने की हमेशा बात करते हैं। उग्र राष्ट्रवाद के इस दौर में
क्या तथ्य से सत्य की प्राप्ति पर इनका जोर है? क्या इनकी जवाबदेही नागरिक समाज के प्रति है? सवाल यह
भी है कि आज का पाठक/दर्शक खुद को मीडिया के पूरे परिदृश्य में कहाँ खड़ा पाता है?
शोध और न्यूज रूम के अपने अनुभवों के आधार पर लेखक ने इस किताब में समकालीन हिंदी मीडिया के सरोकारों और संस्कृतियों का भाषा और कथ्य के मार्फत आलोचनात्मक विवेचन और विश्लेषण किया है।
समकालीन समाज और मीडिया में
दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह एक जरूरी किताब है।
प्रकाशक: अनुज्ञा बुक्स, ISBN: 978-81-951105-1-3 (PB)
कीमत: 250 रुपए
अमेजन लिंक: https://www.amazon.in/dp/B0919XNV1F?ref=myi_title_dp
(किताब 25 मार्च, 2021 के करीब प्रकाशित होगी)
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