लिजो जोस पेल्लीसेरी की मलयालम फिल्म ‘जलीकट्टू’ को जब पिछले साल भारत की तरफ से आधिकारिक रूप से ऑस्कर के लिए भेजा गया तब सबकी निगाह समकालीन मलयालम फिल्मों की ओर गई. इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या ‘जलीकट्टू’ फिल्म में ऑस्कर जीतने का माद्दा था, हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारत में विभिन्न भाषाओं, इसमें हिंदी में बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में भी शामिल हैं, में बनने वाली फिल्मों में मलयालम फिल्मों का आस्वाद सबसे अलग है. प्रसंगवश, वर्ष 2011 में सलीम अहमद निर्देशित मलयालम फिल्म ‘एडामिंते माकन अबू’ (अबू, आदम का बच्चा) को भी ऑस्कर के लिए भेजा गया था.
पिछले दिनों ओटीटी प्लेटफॉर्म पर रिलीज
हुई जियो बेबी की ‘द ग्रेट
इंडियन किचन’ और दिलेश
पोथान की ‘जोजी’ फिल्म ने एक बार फिर से मलयालम फिल्मों की
केंद्रीयता को साबित किया है. सोशल मीडिया पर इन फिल्मों को लेकर काफी चर्चा है. ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ की शुरुआत ‘द ग्रेट इंडियन ड्रामा’ यानी शादी से होती है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा
जोड़ा है. घर-परिवार के सदस्यों के रिश्ते,
धर्मसत्ता, पितृसत्ता और
खास कर स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के
माध्यम से खूबसूरती से निरुपित किया गया है. फिल्म में अपनी इच्छाओं, डांस के प्रति अपने लगाव को दबा कर अदाकार
निमिषा सजयन सुबह-दोपहर-शाम घर के पुरुषों की ‘क्षुधा’
शांत करने की फिक्र में रहती है,
पर उसकी फिक्र किसे है! पुरुष भोजनभट्ट हैं. अखबार पढ़ने में, योग करने में मशगूल हैं, वहीं स्त्री नमक-तेल-हल्दी की चिंता में
आकंठ डूबी हुई है.
इस फिल्म को देखते हुए मुझे हिंदी के कवि
रघुवीर सहाय की कविता ‘पढ़िए गीता’ की याद आती रही: पढ़िए गीता/ बनिए सीता/
फिर इन सब में लगा पलीता/किसी मूर्ख की हो परिणीता/निज घर-बार बसाइए/ होंय
कँटीली/आँखें गीली/लकड़ी सीली,
तबियत ढीली/घर की सबसे बड़ी पतीली/ भरकर भात पसाइए. हालांकि फिल्म में निमिषा
सजयन ने जिस किरदार को निभाया है वह न गीता पढ़ती है, न सीता ही बनती है. एक विद्रोही चेतना से
वह लैस है. यह चेतना फिल्म के आखिर में दिखाई पड़ती है जिसे एक ‘डांस स्वीकेंस’ के माध्यम से निर्देशक ने फिल्माया है. एक
तरह से यह फिल्म भारतीय समाज में व्याप्त सामंती प्रवृत्तियों का नकार है. यह
फिल्म भले ही मलायली समाज में रची-बसी हो पर अपनी व्याप्ति में अखिल भारतीय है और
यही वजह है कि निर्देशक ने पात्रों को कोई नाम नहीं दिया है.
जहाँ ‘द ग्रेट इंडियन किचन’
को सुविधा के लिए हम विचार प्रधान फिल्म कह सकते हैं, वहीं 'जोजी' का कथानक
शेक्सपियर के चर्चित नाटक ‘मैकबेथ’ पर आधारित है. इस फिल्म का परिवेश केरल के
एक संवृद्ध परिवार के इर्द-गिर्द बुना गया है. इस फिल्म में भी सामंती पितृसत्ता
की वजह से घुटन का चित्रण है. घर का मुखिया इस सत्ता का प्रतीक है. इस सत्ता का
दंश पुरुष और स्त्री दोनों भोगते हैं,
लेकिन प्रतिकार के लिए संवाद की गुंजाइश नहीं है और जिसकी परिणति हिंसा में
होती है. फिल्म की पटकथा, चरित्र-चित्रण
और सिनेमाटोग्राफी के माध्यम से निर्देशक ने मैकबेथ की कथा को भारतीय परिवेश में
कुशलता से समाहित किया है. जोजी का किरदार मलयालम फिल्मों के चर्चित अभिनेता फहद
फासिल ने जिस सहजता से निभाया है वह अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. साथ ही अन्य
कलाकारों की भूमिका भी उल्लेखनीय है.
इस फिल्म में निर्देशक ने जिस तरह
चरित्रों को बुना है कि उसे हम सफेद-स्याह से खाने में रख कर नहीं देख सकते. क्या
जोजी परिस्थितियों की वजह से अपराध में संलग्न होता है या यह उसके चरित्र के
अनुकूल है? क्या यही सवाल
स्त्री पात्र ‘बिन्सी’ के बारे में नहीं पूछा जा सकता है? फिल्म में अंतर्मन के भावों और अपराध के
बाद बाह्य जगत की टीका-टिप्पणियों को हास्य के माध्यम से व्यक्त किया गया है.
प्रसंगवश, विशाल
भारद्वाज ने मैकबेथ को आधार बना कर मुंबई के माफिया संसार का चित्रण ‘मकबूल’ (2003) फिल्म में किया था,
पर पोथान कम बजट में बिना किसी तामझाम के एक बेहतरीन सिनेमाई अनुभव हमारे
सामने परोसते हैं. यह क्षेत्रीय सिनेमा,
खास कर मलायलम फिल्मों की,
एक विशेषता है, जो पिछले दशक
में देखने को मिली है. बात ‘कुंबलंगी
नाइट्स’ की हो या ‘अंगमाली डायरीज’ की.
सत्तर-अस्सी के दशक में समांतर सिनेमा की
धारा को मलयालम फिल्मों के निर्देशक अडूर गोपालकृष्णन, शाजी करुण की फिल्मों ने संवृद्ध किया था.
उनकी फिल्मों ने मलयालम फिल्मों को देश-दुनिया में स्थापित किया, पर उसके बाद ऐसा लगा कि कथ्य और शैली में
मलयालम सिनेमा पिछड़ गई. हालांकि अस्सीवें वर्ष में भी दादा साहब फाल्के पुरस्कार
से सम्मानित अडूर गोपालकृष्णन आज भी सक्रिय हैं. पिछले कुछ वर्षों में मलयालम
सिनेमा में कथ्य और तकनीकी के स्तर पर युवा फिल्मकार काफी प्रयोग कर रहे हैं और
उन्हें सफलता भी मिल रही है. ‘जल्लीकट्टू’ भले ही ऑस्कर लाने में सफल नहीं हुई, पर समकालीन मलयालम फिल्मों को देखने से
काफी उम्मीदें बंधती हैं. क्या इस दशक में भारतीय फिल्मों के लिए ऑस्कर का रास्ता
मलयालम फिल्मों से होकर जाएगा?
क्या इसमें उसे सफलता मिलेगी?
यह सवाल भविष्य के गर्भ में है.
(नेटवर्क न्यूज18 हिंदी के लिए)
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