Monday, April 19, 2021

द ग्रेट इंडियन किचन: जियो बेबी से बातचीत


मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ (अमेजन प्राइम) की इन दिनों काफी चर्चा हो रही है. इस फिल्म के केंद्र में एक शादी-शुदा जोड़ा है. धर्मसत्ता, पितृसत्ता और खास कर इसके माध्यम से स्त्रियों के साथ मध्यवर्गीय परिवार में जो लैंगिक भेदभाव है उसे रसोईघर के माध्यम से प्रभावी ढंग से इस फिल्म में निरूपित किया गया है. प्रस्तुत है फिल्म के निर्देशक जियो बेबी के साथ हुई लेखक-पत्रकार अरविंद दास की बातचीत के कुछ अंश:

‘द ग्रेट इंडियन किचन’ बनाने का विचार आपके मन में कैसे आया?
असल में शादी के बाद मेरे मन में अपनी पत्नी के साथ किचेन में काम करने ख्याल आया. तब मैंने अपनी माँ, बहन और बीवी के बारे में सोचा. मेरे लिए किचेन एक जेल की तरह रहा. फिर मुझे अपनी स्वतंत्रता का अहसास हुआ. साथ ही मेरे मन में सवाल उठे कि हम तो पुरुष हैं, लेकिन स्त्रियों की आजादी का क्या? मैंने निश्चय किया कि किचेन जो स्त्रियों के लिए एक बेड़ी है उसे लेकर मुझे फिल्म बनानी है.
किस तरह की प्रतिक्रिया आपको इस फिल्म को लेकर मिल रही है?

सच तो यह है कि ज्यादातर आलोचना पॉजिटिव ही हैं. लोगों ने इसे सराहा है. कुछ लोगों ने खारिज भी किया है. पर वे ऐसे लोग हैं जिनके अपने एजेंडे हैं. ये वे लोग हैं जो हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं. उन्हें यह फिल्म पसंद नहीं आ रही. ज्यादातर स्त्रियाँ खुद को इस फिल्म से जोड़ पा रही है. जब आप खाना पकाने, बर्तन धोने, साफ-सफाई करने में जो परेशानी होती है उसे महसूस करते हैं तब आपको लगता है कि हर किचेन एक ‘कुंभी पाक नरक’ है.
सत्तर-अस्सी के दशक में अडूर गोपालकृष्णन, शाजी करुण की फिल्मों के बाद मलयालम सिनेमा में एक ठहराव आ गया था. एक बार फिर से जल्लीकट्टू या अंगमाली डायरीज जैसी फिल्मों के माध्यम से एक नयापन दिख रहा है. आप किस रूप में इसे देखते हैं?
‘द ग्रेट इंडियन किचेन’ में आपको अडूर गोपालकृष्णन और के जी जार्ज की फिल्मों की झलक दिखेगी. मुझ पर उनका प्रभाव हैं. अडूर की एलिप्पथाएम मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक है. एलिप्पथाएम का सीधा असर इस फिल्म पर नहीं है, पर मेरे मन में यह फिल्म हमेशा रही. साथ ही के जी जार्ज की ‘अदामिंते वारियेल्लू’ भी रही. ‘अदामिंते वारियेल्लू’ एक उत्कृष्ट फिल्म है जिसके केंद्र में स्त्री हैं. मैं इन दोनों निर्देशकों का आभारी है, मेरे लिए ये प्रेरणास्रोत हैं.
निमिषा सजयन ने जिस किरदार को निभाया है वह बहुत ही मजबूत और विद्रोही चेतना से लैस हैं. आपने किस रूप में इसे रचा?
निमिषा के किरदार में मैं खुद मौजूद हूँ इस फिल्म में. मैंने किचेन में जो महसूस किया उसे निमिषा के किरदार के रूप में रचा है. किचेन में काम करने का बाद मैं पढ़ नहीं पाता था, कोई सिनेमा नहीं देख पाता था. जब मैं कुछ लिख रहा होता था तब मैं अपने हाथों में मौजूद गंध को सूंघा करता था.
यह फिल्म महज पितृसत्ता को ही सवाल के घेरे में नहीं लाती, बल्कि धर्मसत्ता को भी कटघरे में खड़ा करती है. आप क्या कहेंगे इस बारे में?
हां, फिल्म में फेमिनिज्म है, स्त्री स्वतंत्रता का सवाल है. पर हम पहले मनुष्य है, स्त्री या पुरुष बाद में हैं. स्त्रियों के बाद इस तरह का व्यवहार समाज में क्यों किया जाता है, मेरा सवाल यह है? और स्त्रियों के साथ भेद-भाव न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में मौजूद है. ऐसा क्यों है? पुरुष रसोईघर में भागीदारी क्यों नहीं करते हैं?
फिल्म देखते हुए मुझे लगा कि आखिर में जो ‘डांस स्वीकेंस’ है वह एक तरह से मुक्ति का उत्सव बन कर आता है. फिल्म की शुरुआत और अंत डांस के साथ होता है.
हां, यह सही है. पर डांस स्वीकेंस फिल्म का भाग नहीं है. जब निमिषा घर छोड़ कर चली जाती है. फिल्म वहीं खत्म हो जाती है.
क्या इस फिल्म को रिलीज करने में आपको परेशानी हुई?
हां, पहले इसे अमेजन और नेटफ्लिक्स ने अस्वीकार कर दिया था. इसका क्या कारण रहा, मुझे नहीं पता. जनवरी में मैंने इसे ‘नीस्ट्रीम’ पर रिलीज किया था. जब फिल्म के बारे में चर्चा होने लगी, अच्छे रिव्यू आने लगे तब अमेजन ने मुझसे संपर्क साधा और फिर हमने फिल्म को अमेजन प्राइम पर रिलीज किया.
इस फिल्म को बनाने में कितना वक्त आपको लगा और आगे क्या योजना है.
फिल्म के बारे में मैंने वर्ष 2017 में सोचना शुरु कर दिया था. पर शूटिंग, प्रोडक्शन का काम जुलाई 2020 में शुरु किया और करीब एक महीने में पूरा कर लिया था. अगली फिल्म के बारे में अभी कुछ भी निश्चित नहीं है, हम सोच रहे हैं. प्लान कर रहे हैं.

(प्रभात खबर, 18 अप्रैल 2021)

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