आर्टिकल 14 वेबसाइट के एक डेटाबेस के मुताबिक वर्ष 2010 से 2020 तक करीब 10938 लोगों पर राजद्रोह के आरोप लगे उनमें जो 65 प्रतिशत मामले वर्ष 2014 के बाद प्रकाश में आए हैं. जिन 405 लोगों पर वर्ष 2014 के बाद केस दर्ज हुए उन पर ‘सरकार और राजनेताओं की आलोचना’ की वजह से राजद्रोह का आरोप था.
ऐसे में वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ पर राजद्रोह का मामला सुप्रीम कोर्ट ने रद्द
करते हुए जो टिप्पणी की है वह महत्वपूर्ण है. अपने यूट्यूब चैनल में पिछले साल
कोरोना महामारी के दौरान मोदी सरकार पर किए गए कुछ टिप्पणियों के लिए शिमला, हिमाचल प्रदेश
में उनके खिलाफ राजद्रोह का केस दर्ज किया गया था. उन्होंने इसके खिलाफ सुप्रीम
कोर्ट में अपील की थी. मीडियाकर्मियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बोलने की
आजादी पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने कहा कि ‘हर पत्रकार को केदारनाथ सिंह फैसले के तहत सरंक्षण
मिला है.’ भारतीय दंड विधान
(आईपीसी) में शामिल देशद्रोह की धारा के तहत केस दर्ज करने के बढ़ते मामलों के बीच
सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते सोमवार को कहा था कि ‘राजद्रोह
की सीमा को परिभाषित करने का समय आ गया है’. उच्चतम न्यायालय
ने आंध्र प्रदेश के दो तेलुगु चैनलों के खिलाफ राजद्रोह को लेकर
दंडात्मक कार्रवाई करने पर रोक लगा दी थी. इन चैनलों पर वाईएसआर कांग्रेस पार्टी के बागी
सांसद के रघु राम कृष्ण राजू के आपत्तिजनक भाषण का प्रसारण करने का आरोप था.
चर्चित केदारनाथ सिंह फैसले (1962) के तहत सुप्रीम कोर्ट ने नोट किया था कि
लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलने के लिए सरकार की आलोचना बेहद जरूरी है. अदालत ने
कहा था कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर टिप्पणी करने से
राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता. साथ ही जब तक हिंसा फैलाने की मंशा या हिंसा बढ़ाने
का तत्व मौजूद नहीं हो वक्तव्य को राजद्रोह नहीं माना जा सकता. हालांकि इस फैसले
के बाद भी विभिन्न सरकारों के द्वारा पत्रकारों, एक्टिविस्टों
पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज होते रहे हैं. असल में आजादी के बाद ब्रिटिश राज के
दौर में बने इस कानून की प्राथमिकता खत्म हो जानी चाहिए थी. महात्मा गाँधी ने
नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले कानूनों में आईपीसी के 124 ए को ‘राजकुमार’ (प्रिंस)
कहा था. भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए के मुताबिक जब कोई व्यक्ति बोले गए या
लिखित शब्दों, संकेतों या दृश्य प्रस्तुति द्वारा या
भारत में कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति किसी तरह से घृणा या अवमानना या
उत्तेजित करने का प्रयास करता है, असंतोष (Disaffection) उत्पन्न करता है या करने का प्रयत्न करेगा वह राजद्रोह का आरोपी है.
उल्लेखनीय है कि वर्ष 2016 में नेटवर्क 18 को दिए
एक इंटरव्यू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘मीडिया अपना काम
करता है वह करता रहे और मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों की, सरकार के काम-काज
का कठोर से कठोर एनालिसिस होना चाहिए, क्रिटिसिज्म होना चाहिए, वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.’
लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका वॉचडॉग (पहरुए) की है. पर हाल के वर्षों में
सरकार की आलोचना को बर्दाश्त न करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. और यह सोशल
मीडिया पर भी खूब दिखाई देता है. सरकार के समर्थक और ट्रोल उस पत्रकार या संस्थान
के पीछे पड़ जाते हैं जो सरकार की आलोचना करते हैं. कई बार यह धमकी या प्रताड़ना
की शक्ल में सामने आता है. ऐसा नहीं है कि यह प्रवृत्ति महज भारत की है. हाल ही
में पाकिस्तान में भी प्रेस की स्वतंत्रता पर हमले बढ़े हैं. पर वहाँ यह दबाव सेना
और आईएसआई जैसी संस्थाओं के कारण ज्यादा है. जाहिर है सरकार की मिली-भगत भी इसमें
है.
किसी भी लोकतंत्र में सरकार और मीडिया के आपसी रिश्ते प्रतिद्वंदी की नहीं
होनी चाहिए. मीडिया सरकार के काम-काम, नीतियों और संदेश को नागरिकों
तक लेकर जाती है. भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बाद मीडिया के मार्फत सार्वजनिक
बहस-मुबाहिसा, वाद-विवाद-संवाद की संभावना बढ़ी है. हालांकि इस बात
से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पिछले दशक में फेक न्यूज, मनगढंत खबरों से बहस-मुबाहिसा का जो दायरा फैला है उसे संकुचित करने की
कोशिश भी हुई है.
जहाँ विकसित देशों में प्रिंट मीडिया में वृद्धि ढलान पर है वहीं भारत के
भाषाई प्रेस में वृद्दि देखी गई है. सैकड़ों टेलीविजन चैनल और ऑनलाइन वेबसाइट उभरे
हैं. इसने देशज राजनीति (वर्नाकुलर पॉलिटिक्स) को सुदृढ़ किया है मीडिया के इस
पक्ष की चर्चा कम की जाती है. साथ ही मीडिया ने राजनीतिक संचार, चुनावों के दौरान राजनीतिक लामबंदी और राजनेताओं के छवि निर्माण में
पिछले दो दशकों में टेलीविजन और ऑनलाइन ने एक बड़ी भूमिका अदा की है.
(नेटवर्क न्यूज18 हिंदी में प्रकाशित, 6 जून 2021)
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