फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. बांग्ला के अतिरिक्त उन्होंने दो फिल्में हिंदी में भी बनाई थीं. दोनों ही प्रेमचंद की चर्चित कहानियाँ हैं. जहाँ ‘शतरंज के खिलाड़ी’ ब्रिटिश राज और नवाबी संस्कृति के विघटन को लेकर है वहीं ‘सदगति’ भारतीय समाज के जीवंत यथार्थ से मुठभेड़ करती है. इसके केंद्र में जाति का सवाल है. इस फिल्म के दो प्रमुख किरदारों में से एक, थिएटर और सिनेमा से चर्चित अभिनेता मोहन आगाशे से अरविंद दास ने लंबी बातचीत की. प्रस्तुत हैं मुख्य अंश:
सत्यजीत रे को आप किस रूप में याद करते हैं?
मैं सत्यजीत रे ऊपर कुछ भी बात करने का अधिकारी नहीं हूँ. वे मेरे लिए कद्दावर
निर्देशक, कलाकार हैं, जैसा कि वे सबके लिए हैं. लेकिन मैं एक-दो
बातें आपसे शेयर करुँगा. उन्होंने मुझे एक पत्र लिख कर सद्गति फिल्म का हिस्सा
बनने का निमंत्रण दिया था, जिसे मैंने बिना
बिलंब किए स्वीकार किया. यह महज 52 मिनट की एक टेलीफिल्म है, फिर भी इस फिल्म ने मुझे यह समझने का मौका दिया
कि रे आखिरकार रे क्यों हैं? क्यों वह सबसे
मीलों आगे रहे. उनकी महानता उनकी रूचि में है. प्रेमचंद खुद एक बड़ी हस्ती रहे. रे
इस कहानी को एक मीडियम से दूसरे मीडियम में लेकर आए. कहानी को उसी रूप में चित्र
और ध्वनि के मार्फत उन्होंने रूपांतरित किया है, जिस रूप में यह शब्दों में लिखी गई है. शब्दों के मार्फत जो
प्रेमचंद ने कहा उसे रे ने सिनेमा के माध्यम से कहा है. प्रेमचंद ने जिस समय यह
कहानी लिखी थी उस वक्त शिक्षा पर प्रसार बहुत कम था. माणिक दा (सत्यजीत रे) ने इस
बात का ख्याल सिनेमा बनाते हुए रखा है कि बहुसंख्यक लोग इसे ग्रहण कर सकें. भारत
में सिनेमा व्यवसायियों के हाथों में चला गया. मनोरंजन का बोलबाला रहा पर हमने ‘देखना’ सीखा ही नहीं. रे की फिल्में हमें देखना सिखाती है. रे, ऋत्विक घटक जैसे लोगों ने कलाकार के रूप में अपनी पहचान के
लिए संघर्ष किया. फिल्म सोसाइटी के माध्यम से उन्होंने ये लड़ाई लड़ी. रे ने फिल्म
को कला के रूप में स्थापित किया.
कुछ अपवाद को छोड़ दें तो हिंदी सिनेमा जाति
के सवाल पर मुखर नहीं रही है. सामाजिक न्याय का सवाल ओझल ही रहा है. ऐसे
में आप ‘सद्गति’ को किस रूप में देखते हैं?
मैं इसी सवाल पर आ रहा था. माणिक दा
के बारे में यह एक दूसरा पहलू है जिसका मैं जिक्र करना चाहता हूँ. बहुत से लोगों
ने जाति के सवाल को लेकर फिल्म बनाई है. पर कोई भी फिल्म इस फिल्म की तरह से ‘ऑथेंटिक’ नही है. इसका कारण यह कि जाति की संस्कृति इतने गहरे धंसी
हुई है कि प्रेमचंद की कहानी और न ही माणिक दा की फिल्म में कोई हीरो या विलेन
नहीं है. जिस समय कहानी लिखी गई उस समय समाज में छुआछूत था. एक सामाजिक व्यवस्था के
तहत ऐसा था. इस फिल्म में ‘दुखी’ समझता है कि ब्राह्मण हमारे लिए मुहूर्त
निकालने वाला है, इसलिए मुझे इसके
लिए कुछ करना है.
रावण सामाजिक बुराई का प्रतीक है जिसे फिल्म में खत्म होना था, लेकिन यह होता
नहीं है. माणिक दा ने आखिर पलों में अंत
को बदलने का फैसला कर लिया. असल में बारिश आ गई थी. माणिक दा इस बात को लेकर बेहद
सतर्क रहते थे कि क्या शूट करना है. वह आर्थिक पक्ष का भी ध्यान रखते थे. इस फिल्म
का अंत चिलचिलाती धूप में होना था, लेकिन मौसम बदल गया. माणिक दा ने फिल्म के अंत
को प्रकृति के साथ जोड़ दिया. जब आप फिल्म का अंत देखेंगे तो महसूस करेंगे कि किस
तरह दलदल में, रोते हुए स्त्री
आती है जैसे की प्रकृति कुपित है. माणिक दा ने अंत को मजबूती देने के लिए बदलाव को
अपनाया था. संभव है रावण की प्रतिमा जलाने से यह नहीं होता.
फिल्म में दुखी (ओम पुरी) की आँखों में जो आक्रोश है वह इस फिल्म को अलग तेवर
देता है जो कि रे की फिल्मों में नहीं दिखता.
बिलकुल. आक्रोश नाम से गोविंद निहलानी की एक फिल्म भी है, जो इसी मुद्दे पर है, पर सद्गति फिल्म मौन आक्रोश से भरी हुई है.
जहाँ ‘शतरंज के खिलाड़ी’
की चर्चा होती है, वहीं ‘सद्गति’ फिल्म पीछे छूट जाती है. इसकी क्या वजह आप देखते हैं?
इस सवाल का जवाब मैं अधिकारपूर्वक नहीं दे सकता. मुझे लगता है कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में ‘स्टार’ थे. संजीव कुमार, सईद जाफरी, फारुख शेख,
शबाना आजमी... यह फीचर फिल्म थी, जिसे सुरेश जिंदल ने प्रोडयूस किया था, जबिक ‘सदगति’ को 35 एमएम पर शूट किया गया और दूरदर्शन ने इसे प्रोडूयस किया था. यह भारत की
पहली टेलीफिल्म थी. उस वक्त टेलीविजन का मौहाल नहीं था. मीडियम का फर्क था. माणिक
दा का करार फ्रांस के साथ भी था. लेकिन आज माणिक दा की ‘पाथेर पांचाली’, ‘अपराजिता’ और ‘अपूर संसार’ के साथ ‘सद्गति’ का नाम लिया जाता है. उनकr जन्मशती पर इस
फिल्म की खूब चर्चा हो रही है. मुझे इस बात की खुशी है.
फिल्म की शूटिंग कहां हुई थी? ओम पुरी, स्मिता पाटिल आपके सहकर्मी थे...
रायपुर से थोड़ी दूर पर स्थित एक गाँव में हमने शूट किया था. ओम पुरी और मैं
एक ही कमरे में रहते थे. माणिक दा स्मिता को काफी पसंद करते थे. मुझे दुख है कि ओम
पुरी,स्मिता पाटिल और गीता
सिद्धार्थ में से कोई भी हमारे बीच नहीं है.
(नवभारत टाइम्स, 18.09.21)
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