बेरि-बेरि अरे सिब हमे तोहि कहलहुँ किरिषि करिए मन लाए/रहिए निसंक भीख मँगइते सब गुन गौरव दुर जाए (विद्यापति)
एक साक्षात्कार में नागार्जुन से यह पूछने पर कि कभी आत्मकथा लिखने की
इच्छा नहीं हुई? उनका
जवाब था- ‘सारी कविताएँ मिला
दो, आत्मकथा हो जाएगी.’[i] यह बात अंशत: ही सच
है. नागार्जुन मूलत: कवि
हैं, लेकिन उनका उपन्यासकार रूप उतना ही ठोस है जितना कवि रूप. नागार्जुन का
कृतित्व और व्यक्तित्व तब मुकम्मल तौर पर हमारे सामने आता है जब ‘दुखरन
मास्टर’ ‘बलचनमा’ से मिले. ‘सिंदूर तिलकित भाल’ ‘रतिनाथ
की चाची’ के बिना अधूरी लगती
है. ‘हरिजन गाथा’ ‘वरुण के बेटे’ के बिना अपूर्ण है. ‘अकाल और उसके बाद’ की महत्ता ‘बाबा बटेसरनाथ’ के बिना हम नहीं समझ सकते.
नागार्जुन के सारे उपन्यास बहुजन समाज की प्रगति के निमित्त लिखे गए
हैं. हमारा बहुजन समाज आजादी के 73 साल बाद भी शोषित, पीड़ित और उपेक्षित है.
नागार्जुन इस समाज में ऐसी चेतना चाहते हैं जिससे आर्थिक-सामाजिक शोषण के विरुद्ध
आवाज बुलंद हो. समाज को नई गति मिले. इसलिए वे ‘बलचनमा’ जैसे
प्रतिबद्ध चरित्र की रचना करते हैं. ‘बाबा
बटेसरनाथ’ जैसे जड़ में चेतना
का संचार करते हैं.
नागार्जुन प्रतिबद्ध लेखक हैं. प्रतिहिंसा उनका स्थायी भाव है. पर
प्रतिबद्धता किसके लिए? प्रतिहिंसा
किसके प्रति? नागार्जुन के शब्दों
में- ‘बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त’ उनकी प्रतिबद्धता है. प्रतिहिंसा है उनके प्रति- ‘लहू दूसरों का जो पिए जा रहे हैं.’ नागार्जुन के साहित्य के ऊपर मधुरेश की यह टिप्पणी सटीक है, “उनका संपूर्ण साहित्य उन अत्यंत साधारण लोगों का
साहित्य है, जो अपनी सारी मेहनत, निष्ठा और ईमानदारी के बावजूद एक घृणित और नारकीय जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं. लेकिन
इस बात का उन्हें अहसास है कि उनका वास्तविक शत्रु कौन है, लड़ाई किस मोर्च पर
लड़नी है...’[ii] जैकिसुन, जीवनाथ, दुखमोचन, बलचनमा और मधुरी को यह पता चल चुका है कि
हमें अपनी लड़ाई खुड़ लड़नी होगी. बलचनमा कहता है, “सच जानो भैया, उस बखत मेरे मन में यह बात बैठ गई
कि जैसे अंग्रेज बहादुर से सोराज लेने के लिए बाबू-भैया लोग एक हो रहे हैं, उसी
तरह जन-बनिहार, कुली मजदूर और बहिया-खबास लोगों को अपने हक के लिए बाबू भैया से
लड़ना पड़ेगा. ”[iii] नागार्जुन अपने इस ‘सबॉल्टर्न स्वर’ की वजह से अलग दिखते हैं, अपने पूर्ववर्तियों
से, समकालीनों और परवर्ती उपन्यासकारों से. किसानों के मौजूदा संघर्ष और आंदोलनों
की बीच उनके उपन्यासों में व्यक्त लोक और लोक-चेतना का महत्व बढ़ गया है. इस निबंध
में हम नागार्जुन के उपन्यास ‘बाबा बटेसरनाथ’ (1954) के माध्यम से उनके उपन्यासों में व्यक्त
लोक-चेतना की पड़ताल करेंगे. पर यहाँ हम लोक की अर्थच्छवियों को पहले परखते हैं.
लोक का स्वरूप
हिंदी साहित्य जन्म से ही लोकधर्मी रहा है. लोक की गंध, लोक-चेतना का
स्वर इस साहित्य में सदैव बसता-बजता रहा है. इस साहित्य के इतिहास की बनावट और
बुनावट दोनों पर लोक की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है. यह परंपरा
सरहपाद-विद्यापति-कबीर-तुलसी से होते हुए प्रेमचंद-फणीश्वर नाथ रेणु-नागार्जुन से
आगे समकालीन रचनाकारों तक जाती है. पर ऐसा नहीं है कि लोक का स्वर हमेशा एक सा रहा
है. समाज के अनुरूप और समय के दबाव के फलस्वरूप लोक के स्वरूप में अंतर स्पष्ट है.
हिंदी साहित्य कोश के अनुसार, “ लोक के दो अर्थ विशेष प्रचलित हैं. एक तो वह
जिससे इहलोक, परलोक अथवा त्रिलोक का ज्ञान होता है. वर्तमान प्रसंग मे यह अर्थ अभिप्रेत
नहीं है. दूसरा अर्थ लोक का होता है जनसामान्य- इसी का हिंदी रूप लोग है. इसी अर्थ
का वाचक ‘लोक’ शब्द साहित्य का विशेषण है.”[iv] पर लोक की शाब्दिक
व्याख्या से इतर समाजशास्त्र और मानवशास्त्र में लोक की अवधारणा को लेकर असहमति और
विवाद की स्थिति है. इस संबंध में समाजशास्त्री पूरनचंद्र जोशी कहते हैं, “लोक अध्ययन अवधारणाओं के
संबंध में एक तरफ ऐसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त रहे हैं जिसने लोक-समुदायों को
आधुनित सभ्यता के दायरे के बाहर मानकर वास्तव में ‘सभ्यता’ के ही बाहर माना है.’[v] असल में लोक की अवधारणा अंग्रेजी के फोक (folk) की अवधारणा से काफी दूर तक प्रभावित है. एडवर्ड
सईद ने ‘ओरियंटलिज्म’ के प्रसंग में नोट किया है, “’पूरबी’ अवधारणा पश्चिम की निर्मिति है. ऐसी निर्मिति जो
पूरब के शोषण, दमन और शासन के लिए बनाई गई है.”[vi] यही बात अन्य
सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं के प्रसंग में भी कही जा सकती है. औपनिवेशिक शासन
प्रणाली और शिक्षा प्रणाली ने अपने अनुकूल सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं को
जाँचा-परखा और परिभाषित किया. प्राच्य विद्वानों ने जिस तरह विभिन्न अवधारणाओं को
परिभाषित किया उसने जाने-अनजाने भारतीय मनीषियों के सोचने-समझने के क्रम को
निर्धारित किया. जार्ज ए ग्रियर्सन ने लोक गीत/लोकोक्ति/लोक गाथा इत्यादि के
संदर्भ में काम किया तो उन्होंने लोक की जगह फोक शब्द का प्रयोग किया. भारतीय
विद्वानों ने जब इन्हीं विषयों पर काम शुरु किया तो उन्होंने भी फोक शब्द का
प्रयोग किया. एक तरह से लोक के प्रसंग में फोक शब्द रुढ़ हो गया. प्राय: यह मान लिया गया कि फोक की अवधारणा और लोक की
अवधारणा में कोई अंतर नहीं.
यहाँ पर फोक की चर्चा प्रासंगिक होगी. इनसाक्लोपीडिया ब्रिटानिका के
अनुसार: “आम तौर पर फोक समाज सविधि शिक्षा से वंचित या
आदिम समाज का प्रारूप माना जाता है जिसका मानवशास्त्रियों ने परंपरागत अध्ययन
किया.” स्पष्टत: फोक आदिम जनसमूह को लक्षित है. आदिम समाज इसका
प्रस्थान बिंदु है. फोक शब्द का प्रयोग समाज विज्ञानों में 19वीं सदी में शुरु हो
गया था. एम लेजरस, एच स्टाईनथल, वुंट, सम्नर आदि समाजशास्त्रियों ने इसे अपने ढंग से परिभाषित
किया. आम तौर पर इन समाज वैज्ञानिकों ने फोक शब्द को व्यापक परिप्रेक्ष्य में
अपनाया. वे प्राय: इस शब्द
का प्रयोग किसी देश या समाज में रहने वाले पूरे जनसमूह के लिए करते हैं. अमेरिका
के प्रसिद्ध समाजशास्त्री राबर्ट रेडफिल्ड ने फोक के संबंध में एक आदर्श प्रारूप (Ideal
Type), एक अमूर्त मॉडल प्रस्तुत किया. इस मॉडल में एक आदर्श फोक समाज के लक्षणों
को प्रस्तुत किया. उनके अनुसार आदर्श फोक समाज के निम्नलिखित लक्षण हैं-छोटा आकार,
पृथक, विलगित, दूसरे समाज से कोई संपर्क नहीं; अपने समाज के भीतर बहुत आत्मीय संपर्क; सिर्फ मौखिक संप्रेषण पर आधारित, लिखाई-पढ़ाई की
कोई स्थिति नहीं; जन-समूह
में कोई आर्थिक, समाजिक विभिन्नता नहीं; एकत्व की प्रचुर भावना; सारे व्यवहार परंपरा पर आश्रित, पूरा समाज एक
धार्मिक समाज; जादू-टोना
का प्रचुर मात्रा में प्रभाव; सारे लोग पारिवारिक, आनुवांशिक या धार्मिक बंधनों
से जुड़े हुए, इत्यादि.”[vii] इस तरह रेडफिल्ड के लिए
एक खास तरह के समाज ही फोक समाज हैं जिनका विकास नहीं हुआ है, जहाँ सभ्यता विकसित
नहीं हुई है. यानि आदिवासी या कबीले! फोक समाज के परिप्रेक्ष्य में रेडफिल्ड की
अवधारणा समाजशास्त्रियों के बीच काफी लोकप्रिय रही. पर वर्तमान में यह सर्वमान्य
नहीं है.
फोक की इस परिभाषा के बरक्स लोक की समाजशास्त्रीय व्याख्या हम देखते
हैं. भारतीय समाज के केंद्र में लोक की अवस्थिति रही है. लोक से विछिन्न भारतीय
समाज का अध्ययन और विवेचन संभव नहीं है. इस बात की पुष्टि समाजशास्त्री हेतुकर झा
लोक को लोकायत परंपरा से जोड़ कर करते हैं. भारत में लोकायत की पंरपरा
दर्शनशास्त्री डॉ राधाकृष्णन के अनुसार प्राचीन काल से रही है. संभवत: यह 600 ईसा पूर्व से सन 200 के बीच विकसित हुआ.
वेदों पर आधारित दर्शनशास्त्रों के समांतर लोकायत परंपरा चलती रही. अन्य विद्वान
हरप्रसाद शास्त्री के मुताबिक विभिन्न तांत्रिक मार्ग, जैसे कापालिक, सहजिया
इत्यादि लोकायत ही हैं. डॉ हेतुकर झा लिखते हैं- “इस तरह प्रतीत होता है कि तंत्र के विभिन्न मार्ग, दक्षिणाचार
को छोड़कर, लोकायत की परंपरा से जुड़े हैं और इस परंपरा का ताल्लुक वैदिक
कर्मकांडों के भागीदार वर्गों के अतिरिक्त सारे जन-समूह से रहा, जिसे ‘लोक’ की संज्ञा दी गई.”[viii] मिथिला के समाज का जीवन
दर्शन लोकायात या तंत्र शास्त्र से प्रभावित रहा है, जिसका चित्रण नागार्जुन के
उपन्यासों में मिलता है.
भारतीय साहित्य में ‘लोक’ ‘वेद’ से भिन्न अर्थ का वाचक है. वैदिक कर्मकांडों से
वंचित जनसमूहों, जो उच्च जातियों से संबंद्ध नहीं थे, दूसरे शब्दों में शूद्रों
तथा सभी वर्णों/जातियों
के लोगों का एक वर्ग वैदिक परंपरा से विमुख होकर या वंचित होकर लोकायत या तांत्रिक
मार्गों से जुड़ते गए. हिंदी साहित्य का नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य इसी का बोध
करता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि लोक वेद से बिलकुल ही अलहदा रहा है. इनके बीच
आवाजाही का संबंध बना रहा है. समाजाशास्त्री श्यामाचरण दुबे ने एक अध्ययन में
रेडफिल्ड और मिल्टन सेंगर के महान और लघु परंपराओं (great/little
tradition) और उनके अंतरावलंबन की बात को स्वीकार है. साथ ही उन्होंने इसे शास्त्रीय
और लौकिक परंपराएँ कहने की बात की है. उनका मानना है कि, “शास्त्रीय और लौकिक परंपराओं में समझौते हुए और
आदान-प्रदान भी होता रहा.”[ix] इस संबंध में लोक के
अध्येता बद्री नारायण की यह टिप्पणी भी गौरतलब है: “भारतीय परंपरा में लोक को श्रुति और स्मृति से
युक्त एक ऐसा सांस्कृतिक प्रवाह माना गया है जिससे वेद जनित हुआ है. कुछ विचारकों
का तो मानना है कि लोक का गेय पक्ष ही वेद बन गया. इस प्रकार लोक एवँ शास्त्र,
देशी एवँ मार्गी अवधारणाओं में विरुद्ध नहीं बल्कि अंत:संवादी और आवाजाही का संबंध रहा है. बाद में शास्त्र
ने अपना मानकीकरण कर अपने को लोक से अलग कर लिया. तब भी लोक एवँ शास्त्र के बीच
आपस में आवाजाही एवँ लेन-देन का संबंध बना रहा.”[x]
आधुनिक समय में लोक
की अवधारणा पर गौर करें तो हम पाते हैं लोक मूल शाब्दिक अर्थ की ओर लौट रहा है.
जैसा कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोक शब्द जनता का वाचक है, जो भारत में
स्वीकार्य हो चला है. अंग्रेजी का शब्द people का अनुवाद लोग है, जो लोक से दूर नहीं. भारतीय
संविधान में व्यवहृत हम भारत के लोग- we, the people of India, इस ओर इंगित करता है. पीपुल शब्द में सबॉल्टर्न
या निम्नवर्गीय स्वर भी शामिल है. जैसा कि इतिहासकार रणजीत गुहा इतिहास लेखन के
प्रसंग मं निम्नवर्ग की भूमिका को रेखांकित करते हुए पीपुल की चर्चा करते हैं,
जिसमें निम्नवर्ग-जिसका फैलाव श्रमिक जनसंख्या और समाज के मध्यवर्ती तबके (जो शहर
और गाँव दोनों जगहों पर रहता है) तक है.[xi]
बाबा बटेसरनाथ में
लोक चेतना
नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिला का सामंती समाज अपनी संपूर्णता में
अभिव्यक्त हुआ है. उनके उपन्यासों में मिथिला के लोक जीवन, लोक मन का चित्रण है.
यहाँ आशा है, निराशा है, सुख है, दुख है और संघर्ष है. लेकिन उपन्यासों की
कथा-भूमि मिथिलांचल होते हुए भी इसमें व्यापकता है जो पूरे भारतीय समाज को निरूपित
करता है.
बाबा बटेसरनाथ की कथावस्तु और शिल्प विशिष्ट है. बाबा बटेसरनाथ का
नायक एक बूढ़ा बरगद का पेड़ है जो रूपउली गाँव के सौ वर्षों के इतिहास को खुद में
समेटे हुए है. वह गाँव में हाशिए पर जी रहे लोगों के शोषण और उनके संघर्ष का
साक्षी है. नागार्जुन शोषण की इस पृष्ठभूमि में गाँव के लोगों की विकसित हो रही
चेतना (लोक चेतना) को रेखांकित करते हैं. असल में, बाबा बटेसरनाथ इस चेतना का
प्रतीक है.
नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार कहा जाता है. गोदान
(1936) के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास की धारा ग्राम-जीवन से विमुख होकर शहर और
अंतर्मन के गुह्य गह्वर में चक्कर काटने लगी थी. नागार्जुन अपने पहले उपन्यास ‘रतिनाथ की चाची (1948)’ के
माध्यम से भारतीय ग्रामीण समाज के सच को फिर से पकड़ते हैं. बलचनमा, नई पौध, बाबा
बटेसरनाथ आदि उपन्यासों के माध्यम से प्रेमचंद की परंपरा और पुष्ट होती है. इस
अर्थ में नागार्जुन स्वातंत्र्योत्तर भारतीय समाज में किसान जीवन की वास्तविकताओं
और आकांक्षाओं के कथाकार हैं. असल में, समाज और राजनीति को किसानों के जीवन और
उनकी आकांक्षाओं से जोड़ कर देखने की दृष्टि उनकी विशेषता है. काल में अंतर के
कारण प्रेमचंद और नागार्जुन की चेतना में फर्क नजर आता है, जो कि स्वाभाविक है.
हालांकि चिंता एक ही है- स्वाधीनता की. प्रेमचंद के उपन्यासों में स्वाधीनता की
चिंता अपनी संपूर्णता में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी है. नागार्जुन स्वाधीनता की
चिंता ‘आजादी के बाद और
उसके बावजूद’ की है. हालांकि वे
सामंती-औपनिवेशिक पराधीनता को भी नहीं भूलते. हिंदी उपन्यासों में स्वाधीनता के
लिए संघर्ष की चेतना प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा नागार्जुन के यहाँ मिलती है.
प्रेमचंद ने उत्तर प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा कह कर इस चेतना
को अभिव्यक्त किया है, वहीं नागार्जुन ने मिथिलांचल के किसानों, खेतिहर मजदूरों की
कथा कह कर. नागार्जुन के उपन्यासों में प्रेमचंद की तुलना में अधिक स्थानीयता है.
इसलिए वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के नजदीक दिखाई पड़ते हैं. इस वजह से उनके
उपन्यासों को आंचलिकता के संदर्भ में परखने की कोशिश होती है. लेकिन नागार्जुन के
उपन्यास आंचलिक होकर भी आंचलिकता का अतिक्रमण करते हैं. आंचलिकता के प्रसंग में मधुरेश
लिखते हैं, “आंचलिकता की अपेक्षा
‘लोक चेतना’ पद अपनी व्यंजना और अर्थ विस्तार में निश्चय ही
अधिक सार्थक है...लोक चेतना का सीधा-सादा अर्थ है लोक जीवन में गहरी और आत्मीय संपृक्ति
अर्थात उपन्यास में अंकित जनजीवन की समस्याओं, संघर्षों, जीवन पद्धति और आंकाक्षाओं
की सहज एवँ कलात्मक अभिव्यक्ति.”[xii]
हिंदी उपन्यासों में लोक चेतना किसी न किसी रूप में 20वीं सदी के
आरंभिक दशकों से ही दिखाई देने लगती है. कहीं क्षेत्रीयता के आवरण में तो कहीं
स्थानीयता का खोल पहन कर. गोपालराम गहमरी, अयोध्या सिंह उपाध्य ‘हरिऔध’, प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, निराला से होकर नागार्जुन, शिव प्रसाद मिश्र ‘रुद्र’, रेणु
सहित वर्तमान में संजीव, भगवानदास मोरवाल जैसे उपन्यासकारों के यहाँ इसे देखा जा सकता है. यह सच है कि स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक दशकों में
लोक चेतना की जो तीव्रता थी, जो पैनापन था उसकी धारा कुंद हुई है, पर एक प्रवृत्ति
के रूप में लोक चेतना की धारा अब भी प्रवहमान है.
बाबा बटेसरनाथ लोक चेतना का प्रतिनिधि उपन्यास है. इतने विस्तृत फलक
पर नागार्जुन ने किसी अन्य उपन्यास की रचना नहीं की. एक सदी के लंबे कालखंड
(1850-1953-4) को खुद में समेटे यह उपन्यास सामंती-औपनिवेशिक और लोकतांत्रिक भारत
की यात्रा करता है. नागार्जुन के
उपन्यासों का लोक मुख्यत: मिथिलांचल
का गाँव-देहात है. पर नागार्जुन के उपन्यासों की लोक चेतना का संबंध महज
गाँव-देहात की संरचना से ही नहीं है. लोक चेतना एक ओर मेहनतकश गरीब, किसान-मजदूर,
दलित-उत्पीड़ित जनता से जुड़ती है तो दूसरी ओर नागार्जुन की इतिहास चेतना, वर्ग
चेतना और राष्ट्रीय नव जागरण की चेतना भी अभिव्यक्ति पाती है. त्योहारों और
उत्सवों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका है. दूसरे शब्दों में यह लोक संस्कृति और
लोकधर्म से विलग नहीं है. अंतोनिया ग्राम्शी ने लिखा है कि लोक संस्कृति में
रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के साथ-साथ प्रगतिशील प्रवृत्तियाँ भी
होती है. बाबा बटेसरनाथ इसका साक्ष्य है.
बाबा बटेसरनाथ का कथा-शिल्प हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में एक अभिनव
प्रयोग है. जैसा कि हमने कहा इस उपन्यास का नायक कोई मानव नहीं बल्कि एक बूढ़ा
बरगद का पेड़ है. इस पेड़ के प्रति लोगों की आत्मीयता वैसी ही है जैसी घर के किसी
बड़े-बूढ़े के प्रति होती है. इसलिए यह पेड़ ‘बाबा बटेसरनाथ’ है. यह रूपउली गाँव के इतिहास, सुख-दुख, संघर्ष
और विकास का साक्षी रहा है.
भूमंडलीकरण के इस दौर में भी देश की कामकाजी जनसंख्या का 70 प्रतिशत
कृषि कर्म में लगा हुआ है. किसानों का शोषण पहले सामंतवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था
के तहत होता था, अब किसान उदारीकरण और बाजारवाद की व्यवस्था से शोषित हो रहा है. पिछले
दशकों में आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पंजाब, केरल के किसानों की
आत्महत्याएँ इसका सबूत है. औपनिवेशिक भारत में किसानों के लिए कृषि कर्म पाँव की
बेड़ी बन चुकी थी. इस व्यवस्था के रहते इस शोषण से निस्तार असंभव था. प्रेमचंद ने जिसे
‘गोदान’ में
बखूबी दिखाया है. ‘पूस की
रात’ में हल्कू
नील गाय के द्वारा खेत चर जाने के बाद भी प्रसन्न है!
भारतीय समाज में किसानों का शोषण और गरीबी एक ही सिक्के के दो पहलू
हैं. सदियों से सामंती रूढ़ियों में जकड़ी, जर्जर सामाजिक व्यवस्था शोषण-उत्पीड़न
के लिए दाना-पानी जुटाती रही है. कट्टर जातिवाद, स्त्रियों की दारूण दशा सामंती
व्यवस्था से उपजी मानसिकता से परिचालित होती रही है. मिथिला का समाज अपनी
संकीर्णता और रूढ़ियों के लिए कुख्यात है. इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी ने लिखा है, “ जब से हरसिंह देव ने ‘कुलीनवाद’[xiii]
लागू की तब से इन
600 सौ वर्षों में मिथिला की पुरानी सामाजिक संरचना में बमुश्किल कोई बदलाव आया
है.” कुलीनवाद ने पहले से चली आ रही वर्णाश्रम
व्यवस्था को और भी कठोर बना दिया था. विद्यापति ने अपनी ‘नचारी’ और ‘महेशवाणी’ में जिस सामाजिक असमानता, निपट गरीबी, स्त्रियों
की पराधीनता और दुख का बार बार वर्णन किया है वह आज के समय और मिथिला के समाज के
लिए उतना ही सच है जितना विद्यापति के समय था. विद्यापति की ये पंक्तियां: दुखहि जनम भेल दुखहि गमाओल/ सुख सपेनहुं नहिं भेल हे भोलानाथ’ जैसे अभाव के भाव का टेक है जिसकी आवृत्ति बार
बार होती रहती है. सुख आज भी स्वप्न है. सामंतवाद की जगह भले ही लोकतंत्र आ गया,
तंत्र के बदलने से लोक की स्थिति नहीं बदली.
‘बाबा बटेसरनाथ’ में किसानों के शोषण, उससे उपजी गरीबी का यर्थाथ
वर्णन है. मिथिला में अतिवृष्टि और अनावृष्टि की घटना सामान्य है. बाबा बटेसरनाथ
में अकाल और बाढ़ का नागार्जुन ने हृदयविदारक चित्रण किया है- “दूसरे के खेतों में मजदूरी करके जीविका
चलानेवालों का तो और भी बुरा हाल था. यह बाढ़ उनके लिए तो भुखमरी का बिगुल बजाती
आई थी. रास्ते बंद थे, भागना भी आसान नहीं था.”[xiv]
ये प्रसंग बाढ़ और अकाल के हैं, लेकिन आम दिनों में भी खेतिहर
किसानों, मजदूरों की स्थिति इससे अच्छी नहीं थी. दरंभगा जिले के निम्नवर्गीय रैयत
और खेत-मजदूरों की स्थिति पर 1888 इस्वी की एक रिपोर्ट में लिखा है-“इसमें कोई शक नहीं कि बिहार के इस भाग में उच्च
और मध्यवर्ग के लोग समृद्धशाली हैं; साधारण
मजदूर और छोटे खेतिहर किसानों की स्थिति उनके ही जैसे बंगाल के खेतिहर किसानों,
मजदूरों से बहुत बुरी है. इनकी जनसंख्या कुल का चालीस प्रतिशत है...दैनिक मजदूरी
कहीं भी दो आना से ज्यादा नहीं देखी गई और कई मामलों में यह प्रतिदिन पाँच-छह
पैसों से ज्यादा नहीं थी.”[xv]
जाति व्यवस्था ग्रामीण समाज में व्याप्त गरीबी, शोषण के कोढ़ में खाज
का काम करती है. दलित लेखकों की आत्मकथाएँ पहली बार हिंदी साहित्य में इस सच को
पुरअसर ढंग से व्यक्त करती है. नागार्जुन जाति व्यवस्था का यर्थाथपरक चित्र
प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं, “छोटी
जातवालों की पाठकों के उस खानदानी ‘बरहम’ में उतनी दिलचस्पी नहीं थी जितनी कि उनके देवताओं- भुइयाँ महाराज, सलहेस राजा और दीना भद्री वगैरह
में.”[xvi] देवताओं के भी जाति-क्रम हैं. यही नहीं, गाँवों
में भूतों का भी जाति-क्रम है. नागार्जुन गाँवों में जाति-भेद को आसानी से पहचान
लेते हैं. ब्राह्मणों के मरने पर ‘बरहम
बाबा’
और निम्न या दलित
जाति के लोगों के मरने पर ‘मलेच्छ’ की अवधारणा! शोषण महज आर्थिक पहलूओं तक ही सीमित नहीं होता,
सामाजिक शोषण धार्मिक और सांस्कृतिक रूप में ज्यादा प्रभावकारी होता है. आर्थिक
प्रक्रियाएं धीरे-धीरे बदलती हैं पर धार्मिक-सांस्कृतिक प्रक्रियाएँ परंपरा के नाम
पर जटिल और कठोर बनी रहती है. अवसर पाते ही वह पुऩ: क्रियाशील हो उठती है. ‘रतिनाथ की चाची’ में बाल-विधवा सुशीला काशी में जयनाथ से कहती है,
“तुम जिस जाति में, जिस समाज में पैदा हुए हो, वह
जिंदा नहीं, मुर्दाघर है...[xvii] ” इस मुर्दाघर में बमुश्किल ही कहीं कोई रोशनदान दिखता है. बाबा बटेसरनाथ
में नागार्जुन ने मिथिला की लोक संस्कृति और लोक धर्म को बिना किसी लाग लपेट के
उत्कृष्ट रूप में इन पंक्तियों में चित्रित किया है: “ लेकिन पाठक बाबा की ध्वजा जब से यहाँ खड़ी हुई,
तब से मेरे प्रति सभी की भावना बदल गई. श्रद्धा, भक्ति, भय और आतंक...मनोरथ पूरा
होने पर लोग आकर धूमधाम से मनौतियाँ चढ़ाते..बारह महीनों में बीस-पच्चीस बकरे भी
बलि चढ़ते थे- मचलते मुण्डों और तड़पते धड़ों की खूनी पिचकारियों से मेरा सीना
सुर्ख हो उठता था, रगों में बिजली दौड़ जाती थी...दिन के समय कुत्ते और रात के
वक्त गीदड़ मेरे बदन पर जमी बलिदानी लहू की मलाई चाटा करते... ”[xviii] इस उद्धरण पर कृष्णा सोबती ने सटीक टिप्पणी की है, “इसे पढ़ते-पढ़ते नथुनों में खून की बू चढ़ने लगती
है और समूची जाति कि निरामिष अहिंसा, मूढ़ता, धर्मोन्माद और अंधविश्वास की गाँठों
में बँटी रस्सी और उसमें कराहती वह जीवन परंपरा भी, जिसकी पुण्यमयी गौरवशाली बपौती
को सराहते हम अघाते नहीं.”[xix] लेकिन नागार्जुन की लोक चेतना अंधविश्वासों,
परंपराओं के नाम पर रूढ़ियों का समर्थन नहीं करती है- “राजाओं, पुरोहितों, सामंतों, सेठों और तीर्थंकरों
की बातों को बढ़ा-चढ़ा कर बखान करनेवाले बहुत सारे विद्वान सुदूर अतीत की उन क्रूर
घटनाओं पर अब भी पर्दा डाले हुए हैं; वह उन
लोगों के लिए सत्ययुग है, स्वर्णयुग है! साधारण
जनता का स्वर्णयुग तो अभी आगे आनेवाला है बेटा!”[xx]
स्वर्णयुग की अवतारणा तब ही संभव है जब गरीबी, शोषण, जाति व्यवस्था का
दंश मिटे. गाँवों में सामाजिक आर्थिक बदलाव आए. एक वैज्ञानिक चेतना आकार ले. बाबा
बटेसरनाथ में नागार्जुन ने स्वतंत्रता संघर्ष में किसानों-मजदूरों की भागीदारी के
माध्यम से अपनी इतिहास चेतना और वर्ग चेतना को व्यक्त किया है. स्वतंत्रता संघर्ष
की अनुगूंज किस तरह मिथिलांचल के गाँव-देहातों तक थी इसे बाबा बटेसरनाथ में नमक
कानून तोड़ने की घटना के रूप में नागार्जुन ने इस रूप में चित्रित किया है: “गड्ढा खोदकर तीन चूल्हे बना लिए गए थे. उनमें आँच
जलाई गई. तीन नई हँडियों में नोनी मिट्टी और पानी घोलकर उन्हें चूल्हों पर चढ़ा
दिया दयानाथ ने. ..नमक
कानून तोड़ने का यज्ञ जिले में कहीं न कहीं आए दिन होता ही रहता था.”[xxi] लेकिन वर्ष 1947 में जब देश को आजादी मिली, गाँव
के जमींदार लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए सामूहिक जमीन पर कब्जा करने की राजनीति
करने लगे. बाबा बटेसरनाथ के माध्यम से रूपउली गाँव में एक नवचेतना विकसित होती है
कि कोई व्यवस्था निष्क्रियता से नहीं सक्रियता से ही परिवर्तित हो सकती है. शोषण
का अंत कोई दैवी शक्ति नहीं केगी. कोई कानून या सरकार भी नहीं! जीवनाथ और जैकिसुन समझ चुके हैं, “जनबल को अच्छी तरह संगठित कर लेना चाहिए. अपनी
रूपउली के इस जनआंदोलन को जनसंघर्ष की जिला और प्रदेशव्यापी धारा से मिला देना
होगा.”[xxii] बाबा बटेसरनाथ किसानों, मजदूरों की जागृति,
संगठन और संघर्ष की चेतना का साक्षी है. नागार्जुन की वर्ग चेतन दृष्टि शोषितों
में शक्ति देखती है. शोषण, गरीबी, जहालत की जिंदगी से मुक्ति संगठन के द्वारा ही
संभव है. बेदखली के विरुद्ध जीवनाथ के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग का संयुक्त
मोर्चा बनता है. नागार्जुन ने अदभुत कला कौशल से बटेसरनाथ की कथा को सामूहिक ‘प्रचेष्टा ’ से एकमेक कर दिया है. नागार्जुन की लोक चेतना प्रतिरोध
की चेतना से संपृक्त है. बाबा बटेसरनाथ सामूहिक संघर्ष की चेतना का प्रतीक है.
नागार्जुन के उपन्यास प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि की सृष्टि है. नागार्जुन
कहते हैं, “हम सर्वहारा के साथ
हैं अपनी राजनीति में, अपने साहित्य में...”.[xxiii] सर्वहारा वर्ग के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के
चलते नागार्जुन के पात्र वर्ग चेतन दृष्टि से संपन्न है. उनके पात्र अपार जिजीविषा
के मूर्त रूप हैं. लोक की प्रतिरोधी शक्ति उनके पात्रों में अंतिम समय तक लड़ने का
हौसला बनाए रखती है. लोक संस्कृति अपने मूल रूप में सामासिक होती है. सामूहिकता
इसका विशिष्ट गुण है. बाबा बटेसरनाथ में ‘सामूहिक प्रचेष्टा’ स्वार्थ की व्यक्तिगत भावना से चेतना को धुंधला
नहीं बनने देती है. बाबा बटेसरनाथ इस उपन्यास में कहता है, “तुम लोगों ने तो बस्ती की हवा ही बदल दी. अब
तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते पाठक और जैनारायन. पाठक और जैनारायन ही क्यों,
कोई हिम्मत नहीं करेगा तुम लोगों से टकराने की...सुखमय जीवन के लिए तुम्हारी यह
सामूहिक प्रचेष्टा कभी मंद न हो, स्वार्थ की व्यक्तिगत भावना कभी तुम्हारी चेतना
को धुंधला न बनाए. ”[xxiv] इस उपन्यास में नागार्जुन ने सामूहिकता की जो
मांग उठाई है, वह लोक चेतना का ही रूप है. लोक चेतना अपने रूप में स्थिर नहीं
बल्कि परिवर्तनशील होती है. इस उपन्यास के वर्ग चेतन पात्र आजादी के बाद जमींदारों
और कांग्रेसी नेताओं की सांठ गांठ द्वारा गाँव की सामूहिक जमीन को हथियाने की
रणनीति को विफल कर देते हैं. उपन्यास के अंत में पुराने बरगद की जगह बरगद का नया
पौधा एक नई चेतना का द्योतक है. यह नई चेतना स्वातंत्र्योत्तर भारत में आस्था और
विश्वास की चेतना है. नागार्जुन की इतिहास दृष्टि वर्तमान की चिंता से संपृक्त
भविष्योन्मुखी दृष्टि है जो, ‘अरुण
कमल’
के प्रति आस्थावान
है. बाबा बटेसरनाथ कहता है, “घबराने
की जरूरत नहीं. अंत में जीत तुम्हारी ही होगी. आज न सहीं, कल. कल न सहीं परसों.”[xxv] चंद्रशेखर कर्ण ने ठीक ही नोट किया है, “प्रेमचंद के पात्र क्रांति के आकांक्षित स्वप्न
को पालते हुए भी टूटे हुए हैं. वे अपने इच्छित फल की प्राप्ति के लिए सर्वहारा
हैं. पर नागार्जुन का बलचनमा निरीह होकर भी जीना सीख लेता है. और अंत में अपनी
परंपरागत चेष्टाओं के बीच दीपशिखा-सा भभककर जल उठता है.”[xxvi]
बाबा बटेसरनाथ में नागार्जुन ने जड़ को कथा नायक बना कर एक अनूठा
प्रयोग किया है. बरगद के पेड़ के साथ लोक मानस में अनेक किंवदंतियाँ, मान्यताएँ और
विश्वास जुड़ी होती है.
नागार्जुन ने बाबा बटेसरनाथ के माध्यम से किसानों के शोषण और प्रतिरोध
को बखूबी पेश किया है. नामवर सिंह ने लिखा है, “नागार्जुन की वर्ग चेतना का आधार कोई अमूर्त
विचार प्रणाली या राजनीति का फौरी कार्यक्रम नहीं, बल्कि ठेठ जन-जीवन है-जीवंत
लोकधर्म. ”[xxvii] बाबा बटेसरनाथ एक ऐसा ‘शांति निकेतन’ है जहाँ सामूहिकता आकार लेती है. यह निजी जगह
नहीं है. नागार्जुन इस सार्वजनिक स्थल का इस्तेमाल एक राजनीतिक स्थल के रूप में
करते हैं जहाँ संघर्ष की भूमि पर चेतना जन्म लेती है-‘बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुम्पाय’. दक्षिणी अमेरिकी अपन्यासों के प्रसंग में जिस ‘जादुई यथार्थवाद’ की बात की जाती है और जिसका उत्कृष्ट रूप ‘कारपेंटियर’ और ‘गैब्रियल
गार्सिया मार्खेज’ जैसे
उपन्यासकारों के यहाँ मिलती है, उसकी झलक हम बाबा बटेसरनाथ में पाते हैं. इस
उपन्यास में इतिहास के तथ्य और फैंटेसी का कलात्मक संयोजन है. नागार्जुन ने लोक में
व्याप्त विश्वास, लोक जीवन से जुड़े मिथक, लोक मानस में बैठी किंवदंतियों का
इस्तेमाल कर मिथिला के सौ सालों का इतिहास प्रस्तुत किया है. पर यह महज इतिहास
नहीं है. मार्खेज ने ‘एकांत
के सौ वर्ष’ के बारे में एक
इंटरव्यू में कहा था-“एकांत
के सौ वर्ष लातिन अमेरिका का इतिहास नहीं है. वह लातिन अमेरिका का एक रूपक है.”[xxviii] कहा जा सकता है कि बाबा बटेसरनाथ मिथिलांचल का
एक रूपक है, प्रतीक है- लोक चेतना का. कृषि कानूनों के खिलाफ मौजूदा किसान आंदोलन
में यह उपन्यास एक नई अर्थवत्ता के साथ हमारे प्रस्तुत होता है.
[i] नागार्जुन के साथ बातचीत, सुभाष चंद्र यादव,
समकालीन भारतीय साहित्य, अक्टूबर-दिसंबर, नई दिल्ली, 1995, पेज 21
[ii] नागार्जुन: रचना प्रसंग और दृष्टि, राम निहाल गुंजन (संपादक), नीलाभ प्रकाशन,
इलाहाबाद, 2002, पेज 71
[iii] बलचनमा, नागार्जुन, किताब महल, नई दिल्ली, 2002, पेज 71
[iv] हिंदी साहित्य कोश, भाग-1, धीरेंद्र वर्मा (संपादक), पेज 591
[v] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002, पेज 367
[vi] ओरियंटलिज्म, पेंग्विन बुक्स, 2001, पेज 3
[vii] इंटरनेशनल इनसाइक्लोपीडिया ऑफ द सोशल साइंसेज,
वाल्यूम 3, 4 पेज 177
[viii] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002, पेज-378
[ix] समय और संस्कृति, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, पेज
38-39
[x] लोक, पीयूष दईया (संपादक), भारतीय लोक मण्डल, उदयपुर, 2002 पेज-346
[xi] सबॉल्टर्न स्टडीज 1, राइटिंग आन साउथ एशियन
हिस्ट्री एंड सोसाइटी, रंजीत गुहा, (संपादक) ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1982, पेज 4
[xii] हिंदी उपन्यास सार्थक पहचान, स्वराज प्रकाशन,
दिल्ली, 2002, पेज 142
[xiii] मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति, चौखंभा औरिएंटेलिया, वाराणसी, 1976, पेज
401
[xiv] बाबा
बटेसरनाथ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1985, पेज 59
[xv] पी नोलन, सेक्रेटरी टू गवर्नमेंट ऑफ बंगाल, टू द सेक्रेटरी टू द गवर्नमेंट
ऑफ इंडिया, रेवेन्यू एंड एग्रीकल्चरल डिपार्टमेंट, रेवेन्यू डिपार्टमेंट, एग्रीकल्चर,
नं-87 टी आर दार्जिलिंग, डेटेड द 30 जून 1881, पेज 5-6, हेतुकर झा, उद्धृत,
उपनिवेशकालीन मिथिलाक गाम ओ शासक निम्नवर्ग, मैथिली अकादमी पटना, 1988, पेज 31
[xvi] बाबा बटेसरनाथ, पेज-55
[xvii] नागार्जुन, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 1996, पेज 70
[xviii] बाबा बटेसरनाथ, पेज-50
[xix] आलोचना, जनवरी-मार्च-अप्रैल-जून 81, पेज 80
[xx] बाबा बटेसरनाथ, पेज18
[xxi] वही, पेज 75
[xxii] वही, पेज 95
[xxiii] मेरे साक्षात्कार: नागार्जुन; किताबघर, दिल्ली, 2000, पेज 181
[xxiv] बाबा बटेसरनाथ, पेज 115
[xxv] वही, पेज 81
[xxvi] चंद्रशेखर कर्ण, प्रतिबद्ध जीवन दृष्टि की शक्ति और सीमाएँ, आलोचना
(संपादक नामवर सिंह), अप्रैल-जून, वर्ष 80, पेज -37
[xxvii] आलोचना, जनवरी-मार्च-अप्रैल-जून’ 81, पेज4
[xxviii] मार्खेज से क्लॉडिया ड्राइफुस की बातचीत; प्लेबॉय, अमेरिका,
अनुवाद: मंगलेश डबराल; कथादेश (संपादक हरिनारायण), सितंबर, 2002, पेज-6
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