कोरोना महामारी के दौरान मलयालम सिनेमा प्रेमियों की संख्या बढ़ी है. हिंदी सहित विभिन्न भाषाओं में सब-टाइटल के साथ ओटीटी प्लेटफॉर्म इन फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मुफीद साबित हुआ है. ‘जोजी’, ‘आरकारियम’, ‘द ग्रेट इंडियन किचन’, ‘मालिक’ आदि फिल्मों को दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया. युवा निर्देशकों-अभिनेताओं के साथ-साथ मलयालम के चर्चित अभिनेता ममूटी की एक फिल्म ‘वन’ भी इन दिनों ओटीटी पर दिखाई जा रही है, जिसमें वे मुख्यमंत्री के किरदार में नजर आते हैं.
पिछले दिनों ममूटी ने जीवन के सत्तर और फिल्मी यात्रा के पचास वर्ष पूरे किए हैं. एक बार फिर से उनकी फिल्मों की चर्चा हो रही है. इन पचास वर्षों में मलयालम सिनेमा ने कई उतार-चढ़ाव देखे पर ममूटी की मकबूलियत बरकरार रही. उन्होंने करीब चार सौ फिल्मों में अभिनय किया है, जिसमें मलयालम के अतिरिक्त तेलगू, कन्नड़ आदि भाषाओं में बनी फिल्में भी शामिल हैं.
वे हिंदी फिल्म ‘धरती पुत्र’ (1993) में नजर आए थे, लेकिन हिंदी सिनेमा उद्योग का यह दुर्भाग्य है कि मुहम्मद कुट्टी उर्फ ममूटी की प्रतिभा का वह समुचित इस्तेमाल नहीं कर सका. राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित जब्बार पटेल निर्देशित बायोपिक ‘डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर’ (1998) का निर्माण हालांकि अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषा में हुआ, जिसमें अंबेडकर की भूमिका में ममूटी आज भी लोगों के जेहन में हैं. अंबेडकर की जीवन यात्रा, सिद्धांत और संघर्ष को समझने के लिए इससे बेहतर फिल्म मौजूद नहीं है. अंबेडकर के किरदार को उन्होंने जीवंत बना दिया है. इस फिल्म में सहज अभिनय के लिए ममूटी को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. वे राजनीतिक रूप से एक सचेत अभिनेता हैं.
ममूटी के अभिनय की विशेषता यह है कि फिल्मी दुनिया के दो पाटों-देसी और मार्गी, दोनों को उन्होंने एक साथ साधा है. एक तरफ व्यावसायिक सिनेमा में स्टार की हैसियत से उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल रही, वहीं दूसरी तरफ सधे, भाव-पूर्ण अभिनय से उन्होंने कला फिल्मों में अपनी काबिलियत को साबित किया. ‘ओरु वडक्कन वीरगाथा’, ‘महायानम’ और ‘किंग’ जैसी फिल्मों के साथ ‘मेला’, ‘यवनिका’, ‘अनंतरम’, ‘विधेयन’ और ‘मतिलुकल’ जैसी कलात्मक फिल्में भी उनके खाते में है. यहां नोट करना उचित होगा कि प्रयोग करने, नए निर्देशकों के साथ काम करने में उन्हें गुरेज नहीं है.
विभिन्न किरदारों को जिस तरह से वे आत्मसात करते हैं उसे देख कर उनके अभिनय के फैलाव, क्राफ्ट पर उनकी पकड़ का पता चलता है जबकि उन्होंने अभिनय का कोई विधिवत प्रशिक्षण नहीं लिया है. अडूर गोपालकृष्णन की फिल्म ‘विधेयन’ में निरंकुश जमींदार भाष्कर पाटेलर और ‘मथिलकुल’ में लेखक बशीर के किरदार को उनसे बेहतर शायद ही कोई निभा पाता. दोनों ही फिल्मों में अभिनय के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
बीस वर्ष पहले बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में ममूटी ने स्वीकार किया था कि अस्सी के दशक में एक ऐसा भी दौर आया जब वे खुद की प्रतिभा पर संदेह करने लगे थे और फिल्मी करियर से हट कर कुछ और करने की सोचने लगे थे. एक जुझारू अभिनेता की तरह उन्होंने खुद को पुनर्नवा किया. अडूर गोपालकृष्णन ठीक ही उन्हें एक ऐसा साहसी अभिनेता कहते हैं ‘जिसमें स्टार के ताम-झाम से आगे जाने की इच्छा रही है.’
(प्रभात खबर 19.09.21)
No comments:
Post a Comment