पिछले हफ्ते
मिथिला पेंटिंग (मधुबनी पेंटिंग) के क्षेत्र में योगदान के लिए दुलारी देवी को जब
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्मश्री से सम्मानित किया तब मैं उनके गाँव रांटी
में था. रांटी मधुबनी जिले से बिल्कुल सटा हुआ है. इस गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त
को इससे पहले मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में
पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज
के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. विशेषकर, दुसाधों ने निजी जीवन की धटनाओं और
वीर-योद्धा राजा सलहेस की कहानियों को चित्रों में उतार कर इसे एक नई भंगिमा दी
है. ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली से इतर दलितों ने गोदना शैली को
अपनाया है. हाल ही में रांटी के युवा कलाकार अविनाश
कर्ण ने मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को इस कला से जोड़ा है, जिसे
रेखांकित किए जाने की जरूरत है.
दुलारी देवी
अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से आती हैं. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी शादी
बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कुछ समय के बाद उन्होंने अपने पति को छोड़ दिया.
खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय बीतता रहा.
इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कलाकार
कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति बढ़ी. कुछ
वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी को चित्र बनाती
हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी
के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.” फिर
धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी
कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्ति चित्र बनाया है.
मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नई, कोलकाता, बैंगलोर आदि जगहों पर भी गई.
दुलारी देवी
के चित्रांकन की शैली कचनी से मिलती है. इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर
रहता है. उनके चित्रों में पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँ, आत्म संघर्ष अंकित है. जहां
दुलारी देवी पारंपरिक विषयों, रीति-रिवाजों, अनुष्ठान आदि को अपनी
पेंटिंग का विषय बनाती हैं, वहीं रांटी
के युवा कलाकार अविनाश कर्ण, शांतनु दास समकालीन विषयों को चित्रित करते हैं. उस दिन रांटी में स्थित अविनाश कर्ण के स्टूडियो- आर्ट बोले, में बिखरी
पेंटिंग को देख कर मिथिला पेंटिंग में आ रहे बदलावों की झलक मिली जिससे इस कला के
भविष्य के प्रति एक उम्मीद बंधती हैं. मिथिला में महिलाओं को कोहबर, राम-सीता, मछली, नाग आदि विषय
परंपरा के रूप में मिली हैं. अविनाश ने जहाँ बचपन से अपने गाँव में मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को देखा है, वहीं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से ‘फाइन आर्टस’ में विधिवत
प्रशिक्षण भी लिया है. इसी
तरह शांतनु दास की शिक्षा-दीक्षा का असर उनकी कला पर दिखता है. इससे पहले रांटी के
ही चर्चित वरिष्ठ कलाकार, संतोष कुमार दास बड़ौदा के महाराजा
सयाजीराव विश्वविद्यालय से ‘फाइन आर्टस’ में प्रशिक्षण ले चुके थे.
अविनाश इन
दिनों एक गैर सरकारी संस्थान ‘आर्टरीच इंडिया’ और कलाकार
सीमा कोहली के सहयोग से एक सामुदायिक परियोजना, अक्स, पर काम कर रहे हैं. आस-पास के गाँव की मुस्लिम लड़कियों को इस प्रोजेक्ट
से जोड़ कर उन्होंने मिथिला पेंटिंग को एक नया आयाम दिया है. धर्म और जाति से बंटे समाज में इस तरह की पहल स्वागतयोग्य है. वे कहते हैं कि ‘मुस्लिम लड़कियों के अंदर
मिथिला कला को सीखने की ख्वाहिश वर्षों
से थी पर उन्हें कोई एवेन्यू नहीं मिल रहा था.’ मधुबनी के नजदीक शेख टोली,
गौशाला चौक की मुस्लिम लड़कियाँ मिथिला पेंटिंग में नए-नए विषय लेकर
आ रही हैं जिसमें सांप्रदायिक सौहार्द, मुस्लिम समाज में
दहेज, स्त्रियों पर होने वाली हिंसा और अन्य सामाजिक मुद्दे
प्रमुख हैं.
यहाँ यह नोट
करना उचित होगा कि मिथिला पेंटिंग में पारंपरिक विषयों से इतर समकालीन मुद्दों को
लाने का श्रेय प्रसिद्ध कलाकार, पद्मश्री से सम्मानित, गंगा देवी (1928-1991) को जाता है जिन्होंने पिछली सदी के अस्सी के दशक में अमेरिका की अपनी यात्रा को
मधुबनी शैली में चित्रित किया. सीता देवी, गंगा देवी की पीढ़ी के बाद के दशक में, बाजार के
फैलने से मिथिला पेंटिंग में क्राफ्ट पर जोर बढ़ा और कलाकार की विशिष्ट छाप गायब
होने लगी. इक्कीसवीं सदी में मिथिला पेंटिंग के कला रूप में उत्तरोत्तर विकास दिखा
है. मिथिला चित्र शैली में भ्रूण
हत्या, दहेज, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जैसे समसामयिक विषय पारंपरिक विषयों के साथ साथ चित्रित किए जाने
लगे. वर्ष 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद संतोष
कुमार दास ने सांप्रदायिकता को लेकर गुजरात सीरीज बनाई थी जो काफी चर्चित रही. लोक
कला में इस तरह के राजनीतिक-सामाजिक विषय पहले नजर नहीं आते थे. इन दिनों पेंटिंग
की अच्छी कीमत भी कलाकारों को मिलने लगी है. पहले औने-पौने दामों पर बिचौलिये मधुबनी के कलाकारों की पेंटिंग बेचते थे.
कुछ साल पहले
रांटी के ही शांतनु दास ने हिंदी और मैथिली के कवि नागार्जुन की प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद’ को अपनी
कूची का आधार बनाया. साहित्य को मिथिला पेंटिंग का विषय बनाना एक नया प्रयोग था
जिसे काफी सराहना मिली. अविनाश कहते हैं कि ‘यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर
अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले
जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार
आर्थिक रूप से मजबूत बने.’ ‘आर्ट बोले’ स्टूडियो में सरवरी बेगम, सलेहा शेख, सजिया बुशरा, रहमती खातून, शमीमा परवीन की जो पेंटिंग दिखी वह कलात्मक रूप से अभी भले ही परिपक्व न हो, लेकिन विषय-वस्तु का फैलाव, मुस्लिम समुदाय का
जुड़ाव इस पेंटिंग के विकसनशील होने का प्रमाण है. किसी भी कला की तरह मिथिला
पेंटिंग में नवतुरिया स्वर और नए प्रयोग की जरूरत है, जो सदियों पुराने इस कला को एक नई
पहचान दे सकें.
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