पिछले हफ्ते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मिथिला पेंटिंग में योगदान के लिए रांटी गांव (मधुबनी) की दुलारी देवी को पद्मश्री से सम्मानित किया. यह गाँव मधुबनी पेंटिंग का गढ़ रहा है. इससे पहले इस गाँव की महासुदंरी देवी और गोदावरी दत्त को भी मिथिला पेंटिंग के लिए पद्मश्री मिल चुका है. मिथिला कला में पारंपरिक रूप से कायस्थ और ब्राह्मण परिवार की महिलाओं का वर्चस्व रहा है, हालांकि पिछली सदी के सत्तर-अस्सी के दशक से समाज के हाशिए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी खुद अति पिछड़े समुदाय (मल्लाह) से ताल्लुक रखती हैं. बीएचयू से फाइन आर्टस में प्रशिक्षित, रांटी के ही युवा चित्रकार अविनाश कर्ण इन दिनों ‘आर्टरीच इंडिया’ के सहयोग से एक कम्यूनिटी प्रोजेक्ट के तहत मुस्लिम लड़कियों को मिथिला पेंटिंग सीखा रहे हैं. इससे पहले मुस्लिम समुदाय मधुबनी पेंटिंग से नहीं जुड़ा. इस प्रोजेक्ट और मिथिला कला में आ रहे बदलाव को लेकर अरविंद दास ने उनसे रांटी स्थित स्टूडियो में बातचीत की, एक अंश:
अपने स्टूडियो और कम्यूनिटी आर्ट परियोजना के बारे में आप हमें बताइए?
आर्ट बोले स्टूडियो शुरु करने की योजना मेरे मन में बहुत पहले से थी. हमारे समुदाय में जो लोग पेंटिंग नहीं सीख पाते हैं, वजह चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, मेरी यह इच्छा है कि वे इसे सीखे. मिथिला पेंटिंग में समकालीन कला विषयों को लेकर मैं पेंटिंग करता रहा हूँ. मुझे कुछ ऐसे लोग चाहिए थे जो इन विषयों को लेकर काम करें. मैंने बीएचयू से फाइन आर्ट्स में ट्रेंनिंग ली है, मेरी इच्छा है कि मिथिला कला में अपनी ट्रेनिंग का इस्तेमाल करुँ. यहाँ कलाकारों के बीच में समन्वय नहीं है. आर्ट बोले के माध्यम से मैं इसे बढ़ावा देना चाहता हूँ.
कुछ मुस्लिम लड़कियों की पेंटिंग मुझे स्टूडियो में दिखी है. पहले मुस्लिम समुदाय इससे कभी नहीं जुड़ा, ऐसा क्यों?
इनके अंदर ख्वाहिशें थी, पर इन्हें मौका नहीं मिल रहा था. मधुबनी के नजदीक के गाँव-शेख टोली, गोशाला चौक की लड़कियां इससे जुड़ी है. इन्हें अपने परिवार से भी प्रोत्साहन मिल रहा है. ये नए विषय लेकर आ रही हैं. जैसे मुस्लिम समुदाय में जो दहेज की समस्या है, सामाजिक सौहार्द, स्त्री सशक्तिकरण, सामाजिक मुद्दें इनकी पेंटिंग में दिखता है. हम आपस में बातचीत करके विषय तय करते हैं. कोहबर, राम-सीता से अलग ये नया प्रयोग कर रही हैं.
हाल के दिनों में युवा कलाकारों का जोर समकालीन विषयों की ओर बढ़ा है. पहले पारंपरिक विषयों के चित्रण पर जोर था. आप इसके बारे में क्या कहेंगे?
समकालीन विषयों, सामाजिक मुद्दों को पहले भी मिथिला पेंटिंग में चित्रित किया जाता रहा है. गंगा देवी (1928-1991) ने इसकी शुरुआत की थी. उनकी शैली बहुत ही खूबसूरत थी और भी कुछ कलाकारों ने मिथकों, पारंपरिक विषयों से अलग विषय को उठाया था. बाद में बाजार में मिथिला पेंटिंग की विशिष्टता खोने लगी थी. कला तो यह पहले से ही थी, अब फिर से क्राफ्ट से इसे कला की ओर मोड़ा जा रहा है.
आप बनारस शहर से रांटी गाँव आए. क्या अनुभव रहा है आपका?
कोरोना लॉकडाउन के दौरान मैं गाँव लौट आया. यहाँ संसाधनों की कमी भले हो पर अब मैं रांटी रह कर ही आर्ट बोले के माध्यम से सामुदायिक स्तर पर इस कला को आगे ले जाना चाहता हूँ. मैं चाहता हूँ कि यहाँ के कलाकार आर्थिक रूप से मजबूत बने. यहाँ कई लोग सवाल उठाते हैं कि मधुबनी कला में फाइन आर्टस के तत्वों की क्या जरूरत है? लेकिन मेरा कहना है कि मधुबनी कला को समकालीन कला से जोड़ने, इसमें बदलाव की जरूरत है.
दुलारी देवी की पेंटिंग की शैली के बारे में आप क्या कहेंगें?
दुलारी देवी पारंपरिक शैली में पेंटिंग करती रही हैं. सीता स्वयंवर में जो शैली उनकी रही है, वह कायम है. आपने देखा होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उन्होंने जो पेंटिंग भेंट की और जिसे उन्होंने ट्विट किया वह पारंपरिक शैली में समकालीन विषय के चित्रण का बढ़िया उदाहरण है. मछली और हवाई जहाज का इसमें चित्रण है. उनकी शैली कचनी-भरनी ही है.
मधुबनी पेंटिंग का क्या भविष्य आप देखते हैं?
समकालीन कला के बाजार पर जो संकट है उसका फायदा लोक कला को मिल रहा है. न सिर्फ मधुबनी बल्कि अन्य पारंपरिक, लोक कला के लिए भी यह सच है. लेकिन लोक कला का भविष्य बहुत बढ़िया तब तक हम नहीं देख रहे जब तक इसमें समकालीन विषय-वस्तु नहीं जुड़े. मधुबनी पेंटिंग को मुख्यधारा में लाने के लिए नए विषय वस्तु तलाशने होंगे.
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