ध्रुपद के वरिष्ठ गायक अभय नारायण मल्लिक को वर्ष 2019 के लिए राष्ट्रीय कालिदास सम्मान देने की घोषणा पिछले दिनों मध्य प्रदेश सरकार ने की. यह सम्मान शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें मिला है. संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, पच्चासी वर्षीय मल्लिक बिहार के प्रसिद्ध दरभंगा-अमता घराने से ताल्लुक रखते हैं. ध्रुपद के सिरमौर रामचतुर मल्लिक के शिष्य रहे अभय नारायण मल्लिक इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय, छत्तीसगढ़ से लंबे समय तक शिक्षक के रूप में जुड़े रहे और अनेक शिष्यों को प्रशिक्षित किया है. उनके पुत्र संजय मल्लिक भी ध्रुपद के चर्चित गायक थे जिनका इसी वर्ष कोरोना महामारी के दौरान निधन हो गया.
मिथिला में ध्रुपद की करीब तीन सौ साल पुरानी परंपरा है. तेरह पीढ़ियों से यह परंपरा आज भी चली आ रही है. तेरहवीं पीढ़ी के युवा गायक, विदुर मल्लिक के पोते, समित मल्लिक खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं. वे कहते हैं कि 'निराशा के बीच यह सम्मान हमारे लिए खुशी लेकर आया है.' दरभंगा घराने से जुड़े पंडित रामचतुर मल्लिक (पद्म श्री) के ओज पूर्ण गौहर-खंडार वाणी और पंडित विदुर मल्लिक के ठुमरी गायन की चर्चा आज भी होती है. इंटरनेट के प्रसार ने शास्त्रीय संगीत की पहुँच को आसान कर दिया है. कोई भी रसिक चाहे तो रामचतुर मल्लिक, विदुर मल्लिक या उनके पुत्र राम कुमार मल्लिक के गाए ध्रुपद या ठुमरी शैली में विद्यापति के पदों को सुन सकता है.
दरभंगा शैली ध्रुपद के एक अन्य प्रसिद्ध घराने डागर शैली से भिन्न है. हालांकि पाकिस्तान स्थित तलवंडी घराने से दरभंगा घराने की निकटता है. दरभंगा शैली के ध्रुपद गायन में आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहर, डागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. खुद मल्लिक ध्रुपद के साथ-साथ ठुमरी और विद्यापति के भक्ति पदों को देश-विदेश में गाते रहे हैं और उनके नाम कई कैसेट/सीडी हैं. वे आकाशवाणी से भी लंबे समय तक जुड़े रहे.
मुगल शासन के दौर में ध्रुपद का काफी विस्तार और विकास हुआ. इसी दौर में अखिल भारतीय स्तर पर लोकभाषा में भक्ति साहित्य का भी प्रसार हुआ. मैथिली के कवि विद्यापति लोक भाषा के रचनाकारों में अग्रगण्य हुए. दरभंगा घराने में ध्रुपद गायकी इसी लोकभाषा और भक्ति-भाव के सहारे विकसित हुई. हालांकि समय के साथ ध्रुपद गायन के विषय और शैली पर भी प्रभाव पड़ा, लेकिन जोर राग की शुद्धता पर बना रहा. जैसे-जैसे खयाल गायकी का चलन बढ़ा, वैसे-वैसे लोगों का आकर्षण ध्रुपद से कम होने लगा. सुखद रूप से देश-विदेश में पिछले दशकों में एक बार फिर से संगीत के सुधीजन और रसिक ध्रुपद की ओर आकृष्ट हुए हैं. समित मल्लिक कहते हैं कि युवा वर्ग काफी संख्या में ध्रुपद सीख रहे हैं. कुछ साल पहले हुई मुलाकात में पंडित अभय नारायण मल्लिक ने मुझे बताया था कि ‘खयाल का अति हो गया था!’
(रवि रंग, प्रभात खबर, 12.12.21)
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