पिछले महीने गोवा में आयोजित 52वें भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के भारतीय पैनोरमा की उद्घाटन फिल्म के रूप में ‘सेमखोर’ को चुना गया था. डिमासा भाषा में बनी इस फिल्म को असमिया अभिनेत्री एमी बरुआ ने निर्देशित किया है. बकौल बरुआ ‘यह फिल्म सेमखोर लोगों की प्रथाओं, रीति-रिवाजों और लोक धारणाओं का प्रतिनिधित्व करती है जो बाहरी दुनिया से 'अछूते' रहना चाहते हैं.’ डिमासा असम और नागालैंड के कुछ हिस्सों के जातीय-भाषाई समुदाय की एक बोली है. सेमखोर डिमासा में बनी पहली फिल्म है.
जब रीमा दास की असमिया फिल्म ‘बुलबुल कैन सिंग’
और ‘विलेज रॉकस्टार’ को राष्ट्रीय
पुरस्कार से नवाजा गया तब सबकी नजर समकालीन असमिया फिल्मों की ओर गई. गौरतलब है कि
वर्ष 2019 में ‘विलेज रॉकस्टार’ को भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए भेजा गया था. इसी तरह भाष्कर हजारिका की असमिया फिल्म ‘आमिस’ की भी खूब चर्चा हुई थी. मांस के रूपक के माध्यम से यह फिल्म समकालीन भारतीय
राजनीति और सामाजिक परिस्थितियों को अभिव्यक्ति करने में सफल है. फिल्म का
ताना-बाना मानवीय प्रेम को केंद्र में रख कर बुना गया है.
जहां रीमा दास की फिल्म ‘बुलबुल कैन सिंग’
असम के ग्रामीण इलाके में अवस्थित है और किशोर
और युवा की वय संधि पर खड़े बोनी, सुमन और बुलबुल
की कहानी कहती है, वहीं ‘आमिस’ में शहरी इलाके में रहने वाले युवा सुमन, जो एक शोधार्थी है, और पेशे से डॉक्टर निर्मली के मध्य पनपे परकीया प्रेम को रचा गया है. इस
विवादास्पद फिल्म ने असमिया सिनेमा के 85 वर्ष के इतिहास में एक तीखे बहस को जन्म दिया. आमिस गुवाहाटी में अवस्थित है
जिसे खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है.
असमिया भाषा में बनने वाली फिल्मों में पर्याप्त विविधता रही है जो इस सिनेमा
के इतिहास के अनुकूल है. वर्ष 1935 में ज्योति
प्रसाद आगरवाला ने पहली असमिया फिल्म जयमती का निर्माण और निर्देशन किया था.
उन्होंने फिल्म के तकनीकी पक्ष को सीखने के लिए जर्मनी की यात्रा की थी और हिमांशु
राय के साथ रह कर फिल्म निर्माण को सीखा. फिर उन्होंने असम की ओर रुख किया था.
आगरवाला के बाद बाद के दशक में प्रवीण फूकन, निप बरुआ और भूपने हजारिका जैसे हस्तियों ने असमिया सिनेमा
जगत को संवारा था.
सही मायनों में असमिया सिनेमा को देश-विदेश में प्रसिद्धि जानू बरुआ ने दिलवाई
जो पिछले चालीस वर्षों से असमिया भाषा में सिनेमा बना रहे हैं. अब तक उनकी फिल्मों
को बारह राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. फिल्म संस्थान,
पुणे से प्रशिक्षण के बाद बरुआ ने पहली फिल्म ‘अपरूप (1982)’ निर्देशित किया था. अपनी कथानक की वजह से यह फिल्म आमिस की
तरह ही चर्चित रही. इसमें में भी परकीया प्रेम को दर्शाया गया है. एक विवाहिता
स्वेच्छा से दूसरे पुरुष के साथ रहने चली जाती है. उनकी फिल्म ‘सागरलै बहु दूर (1995)’ और ‘हालोदिया चराय
बाओ धान खाय (1987)’ को देश-विदेश के
फिल्म समारोहों में काफी सराहना मिली. ‘हालोदिया चराय बाओ धान खाय’ असमिया में बनने
वाली पहली फिल्म थी जिसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए स्वर्ण कमल
से नवाजा गया था. बरुआ सामाजिक चेतना से संपन्न फिल्मकार हैं. उनकी फिल्मों में
हाशिए का समाज और स्त्री स्वाधीनता का स्वर प्रमुखता से अभिव्यक्त होता रहा है.
हिंदी समाज और दर्शकों के बीच बरुआ की फिल्में हालांकि उस रूप में चर्चा का विषय
कभी नहीं बनी जैसा कि सत्यजीत रे या मृणाल सेन की फिल्में रही. इसकी एक वजह
उत्तर-पूर्व की संस्कृति से अलगाव है जो बॉलीवुड में बनने वाली फिल्मों में भी
दिखाई देती है.
पिछले वर्ष रिलीज हुए निकोलस खारकोंगोर की ‘अखोनी’ जैसी फिल्म को
छोड़ दिया जाए तो बॉलीवुड की चिंता के केंद्र में उत्तर-पूर्व का समाज और संस्कृति
कभी नहीं रहा है. प्रसंगवश, वर्ष 1992 में जब बरुआ की ‘फिरंगति’ को दूसरी
सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया गया और सत्यजीत रे की फिल्म ‘आगंतुक’ को पहली तो यह
कहा गया कि रे की वजह से ‘फिरंगति’ सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार पाने से वंचित
रही. हालांकि बरुआ सत्यजीत रे से हुई अपनी मुलाकात को शिद्दत से याद करते हैं.
उनके प्रशंसा के शब्द को वे आज भी भूल नहीं पाए हैं और कहते हैं कि ‘मेरे लिए यह सपने के सच होने जैसा था.’ पर बॉलीवुड की बेरुखी को बरुआ भी बातचीत में
रेखांकित करते हैं. वे उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा की समकालीन संस्कृति के
बारे में कहते हैं: “आपको समझना होगा
कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में सिनेमा का बाजार बहुत छोटा है. लोकल स्तर पर जो फिल्म
उद्योग है उस पर सरकार का ध्यान नहीं है. जो फिल्मकार हैं वह व्यावसायिक फिल्मों
की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, उन पर हिंदी
फिल्मों का असर है. लेकिन कुछ युवा फिल्मकार काफी अच्छा काम कर रहे हैं. उन्हें
यदि सहायता मिले तो निस्संदेह अच्छी फिल्में लेकर आएँगे.”
सिनेमा बड़ी पूंजी की मांग करता है और निर्माण-वितरण का कारोबार बाजार पर
निर्भर है. लेकिन बाजार नहीं होने के बावजूद बरुआ जैसे फिल्मकार असमिया समाज और
संस्कृति को सिनेमा के माध्यम से राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर लाने में सफल रहे
हैं. सच्चाई यह है कि आज भी ‘सेमखोर’ जैसी फिल्में बन रही है. यह कहने में कोई संकोच
नहीं कि क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में भारत की विविध संस्कृति का
प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि हिंदी में
बनने वाली बॉलीवुड की फिल्में. और इस बात से जानू बरुआ भी सहमत हैं.
(न्यूज 18 हिंदी के लिए)
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