सिनेमा के जाने-माने आलोचक, फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता (1921-2011) के जन्मशती वर्ष की शुरुआत पिछले दिनों
कोलकाता में हुई. उनकी पुत्री, जानी-मानी अभिनेत्री अपर्णा सेन ने श्रद्धांजलि देते हुए ‘चिदानंद दास गुप्ता मेमोरियल ट्रस्ट’ के स्थापना की घोषणा की है. संयोग से महान फिल्मकार सत्यजीत रे
(1921-1992) की जन्मशती भी इस वर्ष मनाई जा रही है. सर्वविदित है कि दोनों के बीच
घनिष्ठ संबंध थे.
वर्ष 2008 में प्रकाशित उनकी किताब ‘सीइंग इज विलिविंग’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है- “मैंने पहली फिल्म आलोचना वर्ष 1946 में लिखी थी जिसके
एक साल बाद हमने कलकत्ता फिल्म सोसाइटी की शुरुआत की.” 20वीं सदी में सिनेमा कला का आविर्भाव
और विकास हुआ. तकनीक के माफर्त महज कुछ ही दशकों में विशाल दर्शक वर्ग तक इस कला
ही पहुँच हुई. सभी कलाओं को खुद में समाहित करने की
वजह से समकालीन समय और समाज को प्रभावित करने में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण हो उठी.
इसके साथ ही सिनेमा माध्यम के स्वरूप, रसास्वादन और समाज के साथ अंतर्संबंधों की पड़ताल भी शुरु
हुई.
चिदानंद दास गुप्ता आजाद भारत में सिनेमा संस्कृति के प्रवर्तकों में से एक
थे. वर्ष 1947 में फिल्म सोसाइटी की स्थापना उन्होंने सत्यजीत रे और हरि
साधन गुप्ता के साथ मिल कर की थी. आश्चर्य नहीं कि बाद के वर्षों में जब विश्व
सिनेमा के पटल पर सत्यजीत रे अग्रिम पंक्तियों में खड़े हुए तब उनकी फिल्मों का
विस्तार से विवेचन-विश्लेषण उन्होंने ही किया था, जो ‘द सिनेमा आफ सत्यजीत
रे’ में संग्रहित है. इसके अतिरिक्त ‘टाकिंग अबाउट फिल्मस’, ‘द पेंटेड फेस: स्टडीज इन इंडियाज पापुलर सिनेमा’ उनकी चर्चित किताबें हैं. उन्होंने ‘फेडरेशन ऑफ फिल्म सोसाइटीज ऑफ इंडिया’ (1960) की शुरुआत भी की थी. रे इसके अध्यक्ष रह चुके थे और दासगुप्ता सचिव. इन संस्थाओं के माध्यम से विश्व की
बेहतरीन फिल्में देखने और विश्लेषण करने का मौका सिनेमा प्रेमियों और बाद के दशक
में उभरे सिनेमा निर्देशकों को मिला. 70-80 के दशक में देश में समांतर सिनेमा की
जो धारा बही (चिदानंद दास गुप्ता इसे अनपॉपुलर सिनेमा कहते हैं) उसे श्याम
बेनेगल, अडूर
गोपालकृष्णन, गिरीश कसरावल्ली जैसे फिल्मकारों ने पुष्ट
किया. इन निर्देशकों ने अपनी सिनेमाई यात्रा में हमेशा फिल्म सोसाइटी की भूमिका को
रेखांकित किया है.
साठ वर्षों के लेखन कर्म में चिदानंद दास गुप्ता ने करीब 2000 से ज्यादा
देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के लिए निबंध लिखे. उनके निबंध सिनेमा के
अखबारी समीक्षाओं से अलग हैं. साथ ही हाल के दशक में भारतीय सिनेमा के देश-विदेश
में जो अकादमिक अध्येता उभरे हैं उससे भी अलग है. जो चीज उन्हें अलगाती है वह है
उनकी सहज शैली. बिना किसी विशिष्ट शब्दावली (जार्गन) के सामाजिक-सांस्कृतिक
संदर्भों, संबंधों
के परिप्रेक्ष्य में सिनेमा को वे रोचक ढंग से परखते हैं. जब वे किसी फिल्म
निर्देशक के बारे में लिखते हैं तब उनकी फिल्मों की विवेचना के साथ ही निर्देशक का
राजनीतिक और सामाजिक बोध भी घेरे में आ जाता है. इसी क्रम में वे दूसरे निर्देशकों
से तुलना भी करते चलते हैं. मसलन श्याम बेनेगल की फिल्मों की विवेचना करते हुए वे
नोट करते हैं:
“बेनेगल की ज्यादातर फिल्में एक
वस्तुनिष्ठ सत्य सामने लेकर आती है-एक ऐतिहासिक तथ्य, एक दी गई स्थिति,
चरित्र या एक वर्ग- जिसे एक व्यवस्था, अनुशासन,
क्राफ्टमैनशिप से लगभग करीब से रचने की सिनेमा कोशिश करता है. निजी
भावपूर्ण फिल्में बनाना उनकी विशेषता नहीं है. इस मायने में वे ऋत्विक घटक से साफ
विपरीत हैं, जो बेहद भावपूर्ण थे. इसी के करीब मृणाल सेन हैं,
जिनके लिए वस्तुनिष्ठता का कोई मतलब नहीं है. तार्किकता बेनेगल के
फिल्म निर्माण को संचालित करती है, जिससे उनकी काल्पनिकता या
भावनाएँ मुक्त होने की कभी-कभार ही कोशिश करती है.”
वर्ष 1997 में चिदानंद दास गुप्ता भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में नेशनल फेलो
के रूप में मनोनीत थे. उस दौरान हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार भी वहीं
फेलो थे. उनको याद करते हुए वे कहते हैं-“उनको देख कर लगा नहीं कि वे इतने बड़े निर्देशक और
सिनेमा के समीक्षक हैं. वे रवींद्रनाथ ठाकुर के दादा द्वारका नाथ ठाकुर, जो एक बड़े व्यवसायी थे,
उन पर फिल्म बनना चाहते थे.” दुर्भाग्य से फिल्म बन नहीं पाई. दास गुप्ता फिल्म के लिए जरूरी वित्तीय पूंजी नहीं जुटा पाए थे. तलवार
कहते हैं कि “उन्होंने इस फिल्म
की स्क्रिप्ट को ड्रामेटाइज किया था और संस्थान में मौजूद फेलो से सेमिनार के
दौरान टेबल पर विभिन्न पात्रों के संवाद बुलवाए थे. काफी आनंद आया था इसमें.”
चिदानंद दास गुप्ता भले समीक्षक के रूप में चर्चित रहे हों उन्होंने
फिल्में भी निर्देशित की थी. वर्ष 1972 में उन्होंने पहली फिल्म ‘बिलेत फेरेट’ यानी फॉरेन/लंदन रिटर्न निर्देशित की थी, जो तीन कहानियों को समेटे हैं. एक कहानी
ऑक्सफोर्ड से लौटे शख्स के इर्द-गिर्द है, जो परिवार की
इच्छा के विपरीत व्यवसाय को चुनता है. ‘आमोदिनी (1994)’ उनकी चर्चित फिल्म
है, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार भी
मिला. 18वीं सदी में बंगाल के ब्राह्मण समाज में मौजूद कुलीनवाद (धनी व्यक्ति के
बीच बहुविवाह की प्रथा) पर एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी है. हास्य से पूर्ण इस फिल्म में अपर्णा सेन और कोंकणा सेन शर्मा की भी भूमिका है.
फिल्मकार चिदानंद दास गुप्ता पर उनका समीक्षक रूप हावी रहा. दास गुप्ता और
रे के जन्मशती वर्ष में सत्यजीत रे की पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) की
विशिष्टता को रेखांकित करते हुए उन्होंने जो लिखा है उससे बात समाप्त करना रोचक
होगा. उन्होंने लिखा है-“ पाथेर पांचाली सिनेमाई भाषा और इसकी भारतीयता दोनों ही दृष्टियों से पहले
कहीं न दिखाई देने वाली पूर्णता और आवेग को दर्शाने वाले भारतीय सिनेमा की शुरुआत
की प्रतीक बनी...इनमें से बहुत सी प्रवृत्तियाँ नये भारतीय सिनेमा का अंग बन गई
हैं और पहचान की कमी वाली व्यावसायिक फार्मूला फिल्मों के विरुद्ध प्रतिवाद का अंग
भी बन गई हैं.” यदि रे दुनिया भर के समीक्षकों के
प्रिय रहे तो दासगुप्ता 20वीं सदी के प्रमुख भारतीय निर्देशकों के प्रिय समीक्षक
थे. यह सत्यजीत रे, ऋत्विक
घटक, अडूर गोपालकृष्णन, मृणाल सेन और
श्याम बेनेगल जैसे निर्देशकों पर लिखे उनके लेख से स्पष्ट है. वे निर्देशकों को
संवारने वाले समीक्षक-आलोचक थे.
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