पिछले दिनों दिल्ली में सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट (सहमत) के एक कार्यक्रम में चर्चित गायिका शुभा मुद्गल ने जब ‘गजब ढा गयो तोरे नैना मुरारी/ मैं खो अपनी सुध-बुध दिल-ओ-जान हारी’ गजल गाया, तब वह यह जोड़ना नहीं भूली थी कि इसके लेखक अब्दुल हादी ‘काविश’ हैं. यह कार्यक्रम आजादी के पचहत्तरवें वर्षगांठ के तहत आयोजित किया गया जिसमें करीब दो सौ कलाकारों, कवियों, फोटोग्राफरों की एक प्रदर्शनी ‘हम सब सहमत’ नाम से जवाहर भवन में लगी है.
आज देश में जैसा माहौल है लोग सामाजिक सद्भाव, साहित्य या हिंदुस्तानी संगीत की उस परंपरा को याद नहीं करते, जहाँ पर हिंदू-मुस्लिम का राजनीतिक विभाजन मिट जाता है. विविधता में एकता भारतीय संस्कृति का ऐसा पहलू है जिस पर बहुत कम बातचीत होती है. सहिष्णुता की भावना इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है.
याद आया कि मिथिला के कर्ण कायस्थों में आषाढ़ के महीने में कुल देवता धर्मराज की पूजा की परंपरा रही है, जिसमें बच्चों का मुंडन संस्कार भी करवाया जाता है. इस पूजा में अनेक देवी-देवताओं का आह्वान होता है. ध्यान देने की बात है कि यहाँ पैगंबर हजरत मोहम्मद और मूसा की भी पूजा होती है. यह बात आज भले लोगों को आश्चर्य लगे पर परंपरा के रूप में यह सैकड़ों वर्षों से जारी है. जैसा कि सब जानते हैं कायस्थ कोर्ट-कचहरी में मुस्लिम शासकों के साथ रहते आए हैं, फारसी-उर्दू भी सीखते रहे. खान-पान, पहनावे के साथ-साथ धर्म और संस्कृति का इससे मेल-जोल हुआ. पूजा के अंत में यह विनती पढ़ी जाती है: हजरत छी हजार छी, पहुमीपुर पाटल छी. ओतय दीअ पीठ, अतय दीअ दृष्टि. बार-बार गुनाह माफ करब.”
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में बिहार में कायस्थों का काफी योगदान रहा है. कहा जाता है कि कर्ण कायस्थों के पूर्वज सैकड़ों वर्ष पहले दक्षिण राज्यों से आए थे. मिथिला के इतिहासकार कर्णाट वंश (1097-1325) के शासन के प्रसंग में कायस्थों का उल्लेख करते हैं. सैकड़ों वर्ष पुरानी ‘पंजी प्रथा’ का मुकम्मल अध्ययन अभी बाकी है. मिथिला पर गियासुद्दीन तुगलक के आक्रमण के साथ कर्णाट शासन का अंत हो गया पर बाद के शताब्दी में भी उनका दबदबा बना रहा.
एक यही दृष्टांत नहीं है जिससे विविध संस्कृतियों के आपसी मेल-जोल की झलक मिलती हो. इस लिहाज से चर्चित लेखक-प्रशासक कुमार सुरेश सिंह का 43 खंडों में प्रकाशित ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ काफी महत्व रखता है. इसमें भारत के कुल 4694 समुदायों का अध्ययन किया गया है.
इस अध्ययन की महत्ता को रेखांकित करते हुए प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है कि ‘भारत देश के विभिन्न समुदायों की विविधता, उनकी एकता और उनकी विशिष्टताओं को दर्शाने वाला ऐसा विराट दूसरा कोई शोध-कार्य नहीं हुआ.’ सिंह ने अपने अध्ययन में विभिन्न समुदायों के बीच साझी प्रवृत्तियों का विस्तार से उल्लेख किया है. आजादी के अमृत महोत्सव में विभिन्न समुदायों के बीच संकीर्णता के बदले आपसी सद्भाव के उन पहलूओं पर जोर दिया जाना चाहिए जिससे कि संघर्ष मिटे और शांति बहाल हो सके.
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