साहित्य अकादमी ने वर्ष 2021 के लिए अनुवाद पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की है. इसके तहत 22 अनुदित किताबों को सम्मान मिला है, जिनमें चर्चित लेखिका शांता गोखले, अर्जुमंद आरा, धरणेन्द्र कुरकुरी आदि का नाम शामिल है. जहाँ शांता गोखले को मराठी (स्मृतिचित्रे, लेखिका लक्ष्मीबाई तिलक) से अंग्रेजी में अनुवाद (स्मृतिचित्रे: द मेमॉयर्स ऑफ़ ए स्प्रिटेड वाइफ) के लिए पुरस्कार मिला है, वहीं अर्जुमंद आरा को अंग्रेजी (द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस, लेखिका अरुंधति राय) से उर्दू में अनुवाद (बेपनाह शादमानी की मुम्लिकत) पर. यहाँ यह नोट करना उचित है कि दोनों ही अनुवाद की दुनिया में चर्चित नाम हैं. हिंदी के लिए धरणेन्द्र कुरकुरी को बसाव राज कट्टीमनी के कन्नड़ उपन्यास ‘ज्वालामुखिया मेले’ (ज्वालामुखी पर) को पुरस्कार दिया जाएगा.
साहित्य अकादमी के क्रिया-कलापों में अनुवाद को केंद्रीयता हासिल रहा है. क्या यह आश्चर्य नहीं कि वर्ष 1989 से साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार दिया जाता रहा है, पर उसकी चर्चा लोकवृत्त (पब्लिक स्फीयर) में विरले दिखती है. उल्लेखनीय है कि अभी तक विभिन्न भारतीय भाषाओं में सात सौ से ज्यादा कृतियों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. साहित्य अकादमी (1954) शुरुआत से विभिन्न साहित्य का अनुवाद प्रकाशित करता रहा है. प्रसंगवश, रवींद्रनाथ टैगोर के लिखे चर्चित उपन्यास ‘गोरा’ का हिंदी में अनुवाद लेखक अज्ञेय ने साहित्य अकादमी के लिए ही किया था.
गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘टूम ऑफ सैंड (डेजी रॉकवेल)’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अचानक से लोगों की दिलचस्पी अनुवाद कर्म में बढ़ गई है. चर्चित अनुवादक प्रोफेसर रीता कोठारी ने ‘रेत समाधि’ और उसके अंग्रेजी अनुवाद को लेकर पिछले दिनों लिखे एक लेख में महिला अनुवादकों की भूमिका को अलग से रेखांकित किया था. उन्होंने लिखा कि अनुवाद के इतिहास में, खास तौर से अंग्रेजी में, शुरुआती दौर से पुरुषों का एकाधिकार था जो कि पिछले कुछ दशकों में टूटता दिख रहा है.
सोशल मीडिया में इस बात पर बहस की जा रही है कि अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार के बाद हिंदी के साहित्य का अनुवाद अंग्रेजी में बढ़ेगा और उसकी पहुँच अंतरराष्ट्रीय बाजार तक होगी. पर सवाल भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य का भी है. क्या भारतीय भाषाओं में लिखे साहित्य की पहुँच देश के विभिन्न भाषाओं के पाठकों तक है? क्या इन भाषाओं में एक-दूसरे के साहित्य से पर्याप्त अनुवाद हो रहे हैं?
अनुवाद एक सांस्कृतिक कर्म है और भारत जैसे बहुभाषी देश में अनुवाद की महत्ता बढ़ जाती है. साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं का गठन इसी समझ पर आधारित रहा है कि अनुवाद के जरिए भारतीय भाषाओं और साहित्य के बीच आवाजाही बढ़ेगी और देश में सांस्कृतिक एकता की भावना का विकास होगा. यहाँ यह जोड़ना हालांकि उचित है कि अकेले साहित्य अकादमी के बूते विभिन्न भाषाओं में फैले विपुल साहित्यिक संपदा का अनुवाद संभव नहीं है. साहित्य अकादमी से जुड़े अधिकारियों से बात करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्तमान में यह संस्थान संसाधनों की कमी से जूझ रहा है, ऐसे में यहाँ बजट का हर वक्त टोटा लगा रहता है. आश्चर्य नहीं कि चौबीस भाषाओं में साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार के लिए दी जाने वाली राशि महज 50,000 रुपए ही है. अनुवाद जैसे श्रमसाध्य काम के लिए यह कहीं से उत्साहवर्धक नहीं है. यह सच है कि पिछले दशकों में कुछ ऐसे स्वतंत्र प्रकाशक उभरे हैं जिनकी रुचि विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित करने में रही है, पर यह पर्याप्त नहीं है. हिंदी की बात करें तो पाठकों में अनुदित पुस्तकों लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिखता है. ऐसे में प्रकाशक उन्हीं किताबों को तरजीह देते हैं जिन्हें पुरस्कार मिल चुका हो या मीडिया में जिसकी चर्चा हो. इसका फायदा अंग्रेजी में छपे ‘टाइटल’ को मिलता है, बनिस्बत क्षेत्रीय भाषाओं में छपे साहित्य के.
यहाँ पर यह भी जोड़ना उचित है कि समाज में अनुवाद को दोयम दर्जे का काम माना जाता है. साथ ही भारत के विश्वविद्यालयों में भाषा और साहित्य के केंद्रों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन और अनुवाद के प्रशिक्षण पर कोई जोर नहीं है. अगर विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन और अनुवाद के शिक्षण-प्रशिक्षण को बढ़ावा दिया जाए तो भारतीय साहित्य एक-दूसरे के करीब आएंगे और संवृद्ध होंगे. देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, ऐसे में अनुवाद कर्म (ट्रांसलेशन) को राष्ट्र (नेशन) के विचार के साथ रख कर देखना प्रासंगिक है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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