छह साल पहले एक बातचीत के दौरान बेंगलुरु में रहने वाले चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा से जब मैंने समकालीन कन्नड़ सिनेमा के बारे पूछा था, उन्होंने मुझे ‘तिथि’ फिल्म देखने की सलाह दी थी. राम रेड्डी की इस फिल्म को कन्नड़ भाषा में ‘बेस्ट फिल्म’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. मुझे याद है कि इस फिल्म को देखने के लिए दिल्ली के एक सिनेमा हॉल में बमुश्किल पच्चीस-तीस लोग मौजूद थे. कर्नाटक के एक गांव में केंद्रित कड़वे यथार्थ और हास्य बोध से भरी इस फिल्म की हालांकि अंतरराष्ट्रीय जगत में भी खूब सराहना हुई थी. बिना किसी ‘स्टार’ के गैर पेशेवर कलाकारों ने इसमें अभिनय किया था.
पिछले महीने जब मैं ऋषभ शेट्टी के निर्देशन में बनी ‘कांतारा’ देख रहा था, इस बात की याद आ रही थी. यह फिल्म हाउसफुल थी और सिनेमा हॉल में लोगों का उत्साह देखते बनता था. असल में, ‘केजीएफ'’ और ‘कांतारा’ की बॉक्स ऑफिस पर असाधारण सफलता के बाद कन्नड़ सिनेमा ने देश भर के दर्शकों और समीक्षकों का ध्यान अपनी ओर खींचा है. इससे पहले जब भी पापुलर दक्षिण भारतीय सिनेमा की बात होती थी तब तमिल और तेलुगू फिल्मों का ही जिक्र होता था, वहीं मलयालम सिनेमा कलात्मक रूप से समीक्षकों की पसंद रही है. जाहिर है, कन्नड़ सिनेमा का जिक्र मुख्यधारा के मीडिया में छूट जाता रहा है.
निर्माता-निर्देशक ने फिल्म के सब-टाइटल में ‘कांतारा’ को ‘दंत कथा’ कहा है. शेट्टी इस फिल्म के लेखक और प्रमुख अभिनेता भी हैं. इस फिल्म को व्यावसायिक सिनेमाई सूत्रों से ही बुना गया है, लेकिन दक्षिण कर्नाटक के तटीय इलाकों की स्थानीय लोक-संस्कृति, परंपरा, आस्था-विश्वास, रीति-रिवाज, धार्मिक मान्यताओं और मिथक को कहानी के साथ खूबसूरती से पिरोया गया है. जंगल और जमीन के लिए आदिवासियों का राज्य सत्ता के साथ संघर्ष कहानी के केंद्र में है. इस फिल्म में ‘देव नर्तकों’ के दृश्य संयोजन की खूब चर्चा हुई है. खास तौर पर ‘क्लाइमेक्स’ के भव्य फिल्मांकन और सिनेमाई कौशल के लिए यह फिल्म वर्षों तक याद की जाएगी. इस फिल्म में कई दृश्य लोक में व्याप्त अंधविश्वास को भी दिखाता है. कई दृश्य तर्क की कसौटी पर खरे नहीं उतरते हैं. लेकिन व्यावसायिक सिनेमा के दर्शकों के लिए यह खास महत्व नहीं रखता, जब तक फिल्म लोगों का मनोरंजन करता रहे. इस मायने में ‘कांतारा’ एक सफल फिल्म है. यहाँ पर यह जोड़ना उचित होगा कि इस फिल्म का विश्लेषण पापुलर सिनेमा के फ्रेमवर्क से ही किया जाना चाहिए. इसमें समांतर सिनेमा के यथार्थ चित्रण को ढूंढ़ना व्यर्थ होगा. आलोचकों ने टिप्पणी की है कि इस फिल्म में जिस तरह से स्थानीय धार्मिक रीति-रिवाजों, ‘भूत कोला’ के दृश्यों को संयोजित किया गया है वह हिंदुत्ववादी राजनीति के पक्ष में जाता है.
पिछले दिनों एक इंटरव्यू के दौरान जब कन्नड़ सिनेमा के चर्चित निर्देशक गिरीश कसारावल्ली से दक्षिण सिनेमा की सफलता के संदर्भ में मैंने बातचीत की थी तब उन्होंने कहा था: “यह सही है कि इन फिल्मों ने सबका ध्यान दक्षिण भारतीय सिनेमा की तरफ खींचा है और दर्शकों से बड़ी मान्यता पाई है, लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा बहुत पहले से यह ध्यान खींचता आ रहा है. यह कोई हाल की बात नहीं है. अडूर गोपालकृष्णन (मलयालम सिनेमा) की बात हो या पट्टाभिरामा रेड्डी की संस्कार (1970), बीवी कारांथ की चोम्मना डुडी (1975) की. दूसरी फिल्मों को भी उनकी सिनेमा सामग्री और कला के लिए अखिल भारतीय पहचान मिली थी. चूंकि इन फिल्मों को कभी बहुत बड़े स्तर पर रिलीज नहीं किया गया, इसलिए उन्हें दर्शकों से इतनी मान्यता नहीं मिली, जितनी आज की फिल्मों को मिल रही है.” कन्नड़ के प्रसिद्ध साहित्यकार यू आर अनंतमूर्ति के उपन्यास ‘संस्कार’ पर आधारित फिल्म से कन्नड़ सिनेमा में समांतर सिनेमा का सूत्रपात हुआ, इसमें चर्चित नाटककार और अभिनेता गिरीश कर्नाड की प्रमुख भूमिका थी. गिरीश कर्नाड की फिल्म वंश वृक्ष (1971), कादु (1973), आंडोनोंदु कलदल्ली (1978) की भी खूब प्रशंसा हुई थी. इसी तरह 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा आंदोलन के दौरान गिरीश कसारावल्ली की फिल्म घटश्रद्धा (1977), तबराना कथे (1986) आदि को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली थी. वे आज भी फिल्म निर्माण में सक्रिय हैं. ‘तिथि’ जैसी फिल्में कन्नड़ सिनेमा की इसी समांतर धारा की श्रेणी में आती है, जहाँ हाशिए के समाज का यथार्थ दिखाई देता है. हाल के वर्षों में पॉपुलर और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. ‘कांतारा’ का नायक हाशिए के समाज का प्रतिनिधित्व करता है.
बहरहाल, ‘कांतारा’ की सफलता के बरक्स कन्नड़ सिनेमा के इतिहास पर एक नज़र डाल लेना जरूरी है. कन्न्ड़ में पहली फिल्म भक्त ध्रुव (1934) बनी. इसी वर्ष ‘सती सुलोचना’ भी प्रदर्शित हुई थी. हालांकि कन्नड़ सिनेमा एक उद्योग का रूप 1950 के दशक में जाकर लिया. ‘बेदारा कन्नपा’ फिल्म से सुप्रसिद्ध अभिनेता राजकुमार (1929-2006) वर्ष 1954 में प्रवेश किया और लगभग 200 कन्न्ड़ फिल्मों में अभिनय किया. अनेक पुरस्कारों सहित सिनेमा में योगदान के लिए उन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. अभिनेता पुनीत राजकुमार इनके ही पुत्र थे, जिनका पिछले साल देहांत हो गया. मरणोपरांत इस वर्ष रिलीज हुई उनकी फिल्म ‘जेम्स’ ने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा दी थी. इसी तरह कन्नड़ के एक प्रतिभाशाली फिल्मकार, अभिनेता शंकर नाग (1954-1990) की चर्चा होती रही है, जिन्होंने आर के नारायण की बहुचर्चित कृति ‘मालगुडी डेज’ (1986-87) को दूरदर्शन के लिए निर्देशित किया था, जो हमारे बचपन की स्मृतियों में शामिल है.
‘कांतारा’ की सफलता को हम कन्नड़ सिनेमा के इतिहास, देश की बदलती सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति, संचार के साधनों (इंटरनेट, मोबाइल फोन की उपलब्धता) और फिल्म वितरण के नेटवर्क के तत्वों के जरिए व्याख्या कर सकते हैं. ‘कांतारा’ लोक संस्कृति के तत्वों से बुनी गई फिल्म है, जिसमें स्थानीयता पर जोर है. क्या ‘ग्लोबल’ के दौर में यह ‘लोकल’ की वापसी है? ‘कांतारा’ की सफलता कन्नड़ सिनेमा की धारा को किस तरफ ले जाती है, आने वाले समय में यह देखना रोचक होगा. साथ ही बॉलीवुड इस फिल्म से क्या सीख लेता है यह सवाल भी मौजूं है.
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