कुमार शहानी कला सिनेमा, जिसे समांतर सिनेमा भी कहा जाता है, के एक प्रतिनिधि फिल्मकार हैं. उनकी ‘माया दर्पण’ (1972), ‘तरंग’ (1984), ‘ख्याल गाथा’ (1989), ‘कस्बा’ (1990), ‘चार अध्याय’ (1997) आदि फिल्मों को कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, हालांकि मुख्यधारा के मीडिया में आज उनकी चर्चा नहीं होती है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1972 में रिलीज हुई ‘माया दर्पण’ फिल्म इस वर्ष अपने पचास वर्ष पूरे कर रही है. इस फिल्म को हिंदी में ‘बेस्ट फिल्म’ का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था. इस अवसर पर उनकी फिल्मों का पुनरावलोकन (रेट्रोस्पेक्टिव) जरूरी है, ताकि हिंदी सिनेमा में उनके विशिष्ट योगदान को रेखांकित किया जा सके.
बातचीत में शहानी कहते हैं कि ‘माया दर्पण’ के पचास वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में उनकी फिल्मों के प्रति रूचि दिखाई जा रही है और भविष्य में फिल्म निर्माण को लेकर हॉलीवुड से भी पूछताछ किया जा रहा है. पिछली सदी के 70-80 के दशक में उनके फिल्मों की चर्चा फ्रांस और अमेरिका के प्रतिष्ठित अखबारों में होती रही. असल में, पुणे फिल्म संस्थान से निर्देशन और पटकथा लेखन में प्रशिक्षित शहानी सिनेमा को उसी तरह विशिष्ट माध्यम के रूप में स्वीकार करते हैं जैसे कि कोई लेखक लेखन को या नाट्यकर्मी रंगमंच को. बिंब और ध्वनि का कुशल संयोजन जैसा उनकी फिल्मों में दिखता है, वह हिंदी सिनेमा के इतिहास में दुर्लभ है.
साठ के दशक में, फिल्म संस्थान में उन्हें फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसे गुरु मिले और ‘एपिक फार्म’ से उनका परिचय करवाया, वहीं छात्रवृत्ति लेकर जब वे पेरिस गए तब महान फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेसां के संग ‘उन फाम डूस (ए जेंटल वूमन, 1969)’ फिल्म में सहायक निर्देशक के रूप में जुड़े. उनकी फिल्मों पर दोनों ही निर्देशकों का असर है, लेकिन फिल्म-निर्माण की शैली उनकी निजी है. यहाँ सौंदर्यशास्त्र और विचारधारा में विरोध नहीं है.
कुछ वर्ष पहले एक बातचीत के दौरान उन्होंने कहा था कि ‘मैं सौभाग्यशाली था कि ब्रेसां और ऋत्विक घटक जैसे गुरुओं ने मेरा लालन-पालन किया.’ जहाँ ‘माया दर्पण’ फिल्म में तरन के ऊपर ब्रेसां की चर्चित फिल्म ‘मूशेत’ (1967) के केंद्रीय चरित्र की छाप दिखती है, वही ‘मिनिमलिज्म’ का प्रभाव भी. ब्रेसां की फिल्मों में जो मोक्ष या निर्वाण की अवधारणा है, उससे भी वे प्रभावित रहे हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास ‘चार अध्याय’ पर आधारित फिल्म पर ऋत्विक घटक का असर है.
उनकी सभी फिल्मों में फॉर्म या रूप के प्रति एक अतिरिक्त सजगता और संवेदनशीलता दिखती है. निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित ‘माया दर्पण’ फिल्म में हवेली को जिस तरह फिल्माया गया है वह सामंती परिवेश, केंद्रीय पात्र ‘तरन’ के मनोभावों, एकाकीपन को दर्शाने में कामयाब है. रंगों का कुशल संयोजन इस फिल्म की विशेषता है. वे कहते हैं ‘रंग हमारे होने की खुशबू को परिभाषित करता है.’ ‘माया दर्पण’ से लेकर ‘चार अध्याय’ तक ध्वनि का विशिष्ट प्रयोग उल्लेखनीय है. यह दुर्भाग्य ही है कि इस ‘अवांगार्द’ फिल्मकार को हमेशा संसाधन की कमी से जूझना पड़ा, लेकिन उपभोक्तावादी दौर में अपनी कला से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया.
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