Wednesday, December 07, 2022

आलाप लेते ऋषिकेश मुखर्जी के अमिताभ

 


पिछले दिनों अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर आनंद फिल्म का जिक्र करते हुए एक वाकया का उल्लेख किया था कि किस तरह उनके लाल होठों’ को लेकर फिल्म निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी सेट पर बिफर पड़े थे. उन्हें लगा था कि अमिताभ ने लिपस्टिक लगा रखी है. यह फिल्म जितना उस दौर के सुपर स्टार राजेश खन्ना के लिए याद की जाती है उतना ही उभरते हुए अदाकार अमिताभ बच्चन के लिए. सही मायनों में व्यावसायिक रूप से सफल इस फिल्म से ही अमिताभ पहचाने गए.

ऋषिकेश मुखर्जी (1922-2006) का यह जन्मशती वर्ष भी है. पिछली सदी के सत्तर के दशक में अमिताभ की जो फिल्में आई उसमें ‘जंजीर’, ‘दीवार’, ‘शोले’ आदि ने उन्हें एंग्री यंग मैन’ की छवि में बांध दियाआज यह विश्वास करना मुश्किल होता है कि ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में बनी फिल्म ‘आनंद’, ‘अभिमान’, ‘नमक हराम’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’ में भी अमिताभ ही थे. और ये फिल्में उथल-पुथल से भरे सत्तर के दशक में बन रही थी. हालांकि खुद मुखर्जी अमिताभ की स्टारडम  की छवि से खुश नहीं थे. वे कहते थे कि मसाला फिल्मों के निर्देशकों ने अमिताभ को स्टंटमैन’ बना दिया है. असल मेंसाफ-सुथरी और सहज शैली उनके फिल्मों की विशेषता थीजो मारधाड़हिंसा से कोसो दूर रही. परिवार और घर इन फिल्मों के केंद्र में है. ये ऋषिकेश मुखर्जी ही थे जो अमिताभ को शास्त्रीय संगीत प्रेमी के रूप में परदे पर लाने का हौसला रखते थे.

सत्तर के दशक में हिंदी सिनेमा में एक साथ तीन धाराएँ-मेनस्ट्रीमपैरलल और मिडिल प्रवाहित हो रही थी. प्रकाश मेहरामनमोहन देसाई जैसे निर्देशको के साथसमांतर सिनेमा के मणि कौलकुमार शहानी के लिए यह दशक जितना जाना जाता हैउतना ही मुखर्जी की ‘मध्यमार्गी’ फिल्मों के लिए भी.

सिनेमा के अध्येता जय अर्जुन सिंह ने अपनी किताब-द वर्ल्ड ऑफ ऋषिकेश मुखर्जी’ में उल्लेख किया है कि मुख्यधारा के फिल्म निर्देशक मनमोहन देसाई और समांतर सिनेमा के निर्देशक कुमार शहानी दोनों के ही मुखर्जी के साथ सहज रिश्ते थे. यह उनके व्यक्तित्व के उस पहलू को दिखाता है जिसकी स्पष्ट छाप उनकी फिल्मों पर है. इस किताब में वर्ष 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा को याद करते हुए शहानी ऋषि दा के घर (अनुपमा) पर जमावड़े का उल्लेख करते हैं: “वहां सौ-दो सौ युवाअधेड़ फिल्मकारों का जमावड़ा था. हमने आपातकाल का विरोध करते हुए एक पत्र इंदिरा गाँधी के नाम तैयार किया. ऐसा नहीं कि उससे कुछ निकला होपर देश में जो राजनीतिक माहौल था उसे लेकर ऋषि दा बहुत चिंतित थे.” उल्लेखनीय है कि अमिताभ बच्चन-रेखा अभिनीत आलाप (1977)’ फिल्म की असफलता के लिए वे आपातकाल को जिम्मेदार ठहराते थे. मुखर्जी की फिल्मोग्राफी में भी इस फिल्म का जिक्र नहीं होता, लेकिन यह एक उल्लेखनीय फिल्म है जहाँ अमिताभ 'स्टार' छवि से अलग एक अभिनेता के रूप में सामने आते हैं.

इस फिल्म में अमिताभ एक शास्त्रीय संगीत प्रेमी की भूमिका में हैंजो पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर वकालत नहीं करता है. यहाँ वकील पिता (ओम प्रकाश) एक पितृसत्ता के रूप में आते हैं, जिसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है. आलोक (अमिताभ) कहता हैमेरी जिंदगी कोई झगड़े में फंसी जमीन तो नहीं है कि पिताजी कानूनी खेल दिखा कर उसके बारे में जो चाहे फैसला कर लें. ये मुकदमा वो नहीं जीत सकते.” इस फिल्म में एक कलाकार अन्याय के खिलाफ खड़ा है. प्रसंगवशवर्ष 1977 में मनमोहन देसाई की अमर अकबर एंथनी’ फिल्म भी रिलीज हुई थी जो उस साल की सबसे सफल फिल्म रही थी. गीत-संगीत के लिहाज से भी यह एक बेहतरीन फिल्म है. यहाँ ‘आलाप’ लेते अमिताभ ‘एंग्री यंग मैन’ नहीं है बल्कि आलोक हैंइससे पहले ‘अभिमान (1973)’ में वे जया भादुड़ी के साथ एक गायक के रूप में दिखे थे.

70 के दशक में बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्में मध्यवर्ग को संबोधित करती है. ‘चुपके-चुपके’, ‘गोल माल’, ‘गुड्डी’ में हास्य के साथ मध्यवर्गीय ताने-बानेड्रामा को जिस खूबसूरती से उन्होंने रचा हैवह पचास वर्ष बाद भी विभिन्न उम्र से दर्शकों का मनोरंजन करती है. बिना ताम-झाम के कहानी कहने की सहज शैलीसामाजिकता और नैतिकता का ताना-बाना उन्हें समकालीन फिल्मकारों से अलग करता है. मध्यमार्गी सिनेमा के योगदान के लिए मुखर्जी को वर्ष 1999 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उल्लेखनीय है कि आनंद (1971) फिल्म से पहले मुखर्जी दिलीप कुमारराज कपूरदेवानंदगुरुदत्त जैसे अभिनेताओं को निर्देशित कर चुके थे.

मुखर्जी जितने कुशल फिल्म निर्देशक थे उतने की कुशल संपादक भी. उन्होंने विमल रॉय की चर्चित फिल्म ‘दो बीघा जमीन’, ‘मधुमती’ का संपादन किया था. वे विमल रॉय की फिल्मों में सहायक निर्देशक भी थे. वर्ष 1957 में वे पहली फिल्म मुसाफिर के साथ निर्देशन के क्षेत्र में उतरे पर राज कपूर-नूतन अभिनीत ‘अनाड़ी (1959)’ के निर्देशन के साथ उनकी प्रसिद्धि फैलती गई. उन्होंने करीब 40 फिल्मों का निर्देशन किया और वर्ष 1998 में रिलीज हुई 'झूठ बोले कौआ काटेउनकी आखिरी फिल्म थी.

सिंह लिखते हैं कि एक बार सत्तर के दशक में कुमार शहानी ने मुखर्जी से पूछा था कि तकनीक और सिनेमा के अद्यतन सिद्धांतों की जानकारी के बावजूद वे और प्रयोगात्मक चीजों की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए? उन्होंने कहा था कि 'हमारा परिवेश एक सीमा के बाद इसकी इजाजत नहीं देता'. यह कहने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि मुखर्जी की फिल्में बॉलीवुड की सीमा का अतिक्रमण कर संभावनाओं का विस्तार करती है. उनकी फिल्मों में जो जिंदगी का फलसफा है वह आज भी दर्शकों को अपनी ओर खींचता है.

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