नाद के सौंदर्य को शब्द में कोई कैसे लिखे? कोई पत्ता डाल से गिरा और उससे जो ध्वनि उत्पन्न हुई, उस अनुभूति को बयान करने के लिए क्या कवि होना जरूरी है? संभवत: हां. पर कवि के लिखे शब्द का अर्थ कई बार पढ़ कर नहीं, सुन कर ही स्पष्ट हो पाता है. पर यदि यह नाद अनहद हो तब? यह ख्याल कुमार गंधर्व (1924-1992) के कबीर को सुन कर बार-बार मन में आता है. कबीर की कविता में व्यक्त ‘अनाहत नाद (अनहद नाद)’ कुमार के ‘आहत नाद’ में आकर स्वर पाता है.
जब मैं कुमार गंधर्व को गाते सुनता हूँ- ‘ उड़ जायेगा हंस अकेला, जग दर्शन का मेला/ जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला’, तब लगता है कि शायद कबीर को कुमार गंधर्व का इंतजार था. कबीर को कुमार करीब चार सौ साल के बाद स्वर दे रहे थे. संभव है कि हमारे चारो ओर यह नाद पहले से व्याप्त था, आधुनिक तकनीक ने कुमार गंधर्व के माध्यम से हम तक पहुँचाने में सहायता की. कहा गया है-‘नाद को न भेद पायो, जो पायो सकल जगत में वही गुणी कहायो’. कुमार गुणी गायक थे.
कर्नाटक के धारवाड़ इलाके में आठ अप्रैल 1924 को जन्मे कुमार गंधर्व का नाम शिवपुत्र सिद्धारमैया कोमकली था. उनमें नैसर्गिक प्रतिभा थी और दस-ग्यारह वर्ष की उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि फैल गई, वे कुमार गंधर्व कहलाए. प्रोफेसर बी आर देवधर उनके गुरु थे, जो अपने शिष्यों को एक अलग रास्ता अख्तियार करने को प्रेरित करते थे. कुमार गंधर्व की क्रांतिकारी चेतना का उत्स यहाँ ढूंढा जा सकता है.
कुमार गंधर्व का जन्मशती वर्ष चल रहा है. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के इस गुणी गायक को एक बार फिर से याद किया जा रहा है. सच तो यह है कि वे संगीत प्रेमियों के मन से कभी गए ही नहीं. पिछले दशकों में यूट्यूब के माध्यम से उनकी ख्याल गायकी और भजन जन सुलभ हुए हैं.
भक्तिकालीन कवि कबीर अपनी विद्रोही, लोक-चेतना की वजह से पाँच सदी के बाद भी विभिन्न रूपों में लोक मन में व्याप्त हैं. यही कारण है युवाओं में भी उनके निर्गुण पदों की पैठ बढ़ी है. मधुप मुद्गल (कुमार गंधर्व के शिष्य) से लेकर प्रहलाद टिपाणिया और शबनम विरमानी के यहाँ कबीर कई रूप और स्वर में मौजूद हैं. अनायास नहीं कि युवा संगीतकारों के एक म्यूजिक बैंड का नाम ‘कबीर कैफे’ है!
बहरहाल, कुमार शास्त्रीय संगीत के मूर्धन्य साधक थे, पर थे लोक के करीब. कई जगह यह लिखा जा चुका है कि जब वर्ष 1948 में वे टीबी से पीड़ित होकर मालवा के देवास में स्वास्थ्य लाभ करने गए, तब वहाँ गाए जाने वाले लोक गायन से उन्होंने प्रेरणा ग्रहण की थी. वहाँ नाथपंथी जोगी कबीर के निर्गुण पदों को गाते थे. करीब छह वर्ष के बाद ‘कबीर के चदरिया’ को उन्होंने अपने राग से एक बार फिर बुना. उनके रचे बंदिशों में शास्त्रीय और लोक रंग एक साथ मिलते हैं.
कुमार गंधर्व के गायन में जो स्वर का उठान है और शब्दों के बीच जो शून्यता है उसे सुनने का सुख अनिर्वचनीय है. कबीर के लेखन में रहस्यात्मकता है, वहीं शास्त्रीय संगीत में अमूर्तता है. कुमार गंधर्व का गायन इस रहस्यात्मकता और अमूर्तता को भेद कर आम लोगों के करीब लेकर आया.
शास्त्रीय संगीत के कई मर्मज्ञ गायन में शब्द के महत्व को नकारते रहे हैं. मुकुंद लाठ ने एक जगह लिखा है: “संगीत में शब्द का प्रयोग आवश्यक नहीं, अवान्तर है. शब्द वहाँ आगंतुक है, न भी आए तो संगीत संगीत रह जाता है.” इसके उलट कुमार गंधर्व के लिए गायन में शब्द की महत्ता हमेशा रही. यह सिर्फ कबीर के प्रसंग में ही नहीं बल्कि जब वे सूरदास (ऊधो अँखियाँ अति अनुरागी) या मीरां (पिया जी म्हारे नैना आगे रहियो जी जी जी) को गाते हैं उससे स्पष्ट है. निर्गुण गायन से अलग उनको सुनना भी उतना ही प्रीतकर है.
कुमार गंधर्व के गायन का आनंद लेने के लिए शास्त्रीय संगीत का मर्मज्ञ होना जरूरी नहीं है. मै संगीत का जानकार नहीं हूँ, पर एक श्रोता के रूप में ऐसा लगता है कि यदि आप रसिक हैं, यही काफी है. और यही कुमार गंधर्व का भारतीय संगीत में असाधारण योगदान है, वे शास्त्रीय संगीत को लोक तक लेकर गए.
लेख की शुरुआत मैंने नाद सौंदर्य से की थी, आखिर में फिर उसी नाद की बात, जिसकी सार्थकता कुमार गंधर्व के यहाँ साफ सुनाई देती है:
‘सुनता है गुरु ज्ञानी ज्ञानी, ज्ञानी ज्ञानी
गगन में आवाज़ हो रही है झीनी झीनी, झीनी झीनी’.
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