Tuesday, June 20, 2023

दो पाटों के बीच में: अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा



हिंदी सिनेमा का इतिहास आधुनिक भारत के इतिहास के साथ-साथ चला है. एक सौ दस साल के इस इतिहास का अभी काल विभाजन नहीं हुआ है, न ही युगों और प्रमुख प्रवृत्तियों की अभी ढंग से शिनाख्त हुई है.  हालांकि अध्येता-पत्रकार सुविधानुसार आजादी के पहले मूक सिनेमा, आजादी के बाद पचास-साठ के दशक को स्वर्ण काल (नेहरूयुगीन आधुनिकताराष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति यहाँ मिलती है), सत्तर के दशक को समांतर सिनेमा (कला सिनेमा) और फिर 90 के दशक के बाद सामाजिक-आर्थिक बदलावों के बरक्स 21वीं सदी में हिंदी सिनेमा को परखते रहे हैं. ऐसे में पिछली सदी के 80 के दशक का सिनेमा अध्येताओं की नजर के ओझल रह जाता है, जबकि यह दशक काफी उथल-पुथल से भरा रहा. आगामी दशक में उदारीकरण-भूमंडलीकरण की जो बयार बही, तकनीक क्रांति आई उसने समाज के सभी संस्थानों को प्रभावित किया. सिनेमा इसका अपवाद नहीं है. सच यह है कि इन बदलावों शुरुआत भी 80 के दशक में ही हुई.  

असल में80 का दशक बॉलीवुड के लिए विरोधाभासों से भरा रहा है. एक तरफ मुख्यधारा के फिल्मकारों की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट रही थीवहीं समांतर सिनेमा के फिल्मकारोंअदाकारोंफिल्मों की चर्चा हो रही थी. उन्हें देश-दुनिया में विभिन्न पुरस्कारों से नवाजा जा रहा था.

अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना जैसे सितारे पार्श्व में चले गए, दर्शकों के चहेते जितेंद्र, मिथुन बन कर उभरे. इसी दशक में श्रीदेवी जैसी अभिनेत्री का उभार हुआ. मुख्यधारा (पॉपुलर) और समांतर (पैरेलल) के बीच सिनेमा की एक अन्य धारा-पल्प सिनेमा (सेक्स, हॉरर कहानियाँ) का बीज इसी दशक में पड़ा, जिसका बोलबाला 90 के दशक में रहा. मध्यमवर्ग के दर्शक सिनेमाघरों से दूर होते गए. वीडियो कैसेट रिकॉर्डर (वीसीआर) और पायरेसी का बाजार एक साथ उभरा. मैंने स्कूल के दिनों में अमिताभ बच्चन की फिल्म तूफानजादूगर और सलमान खान की मैंने प्यार किया बिहार के एक कस्बे में वीसीआर पर ही देखी थी.

पत्रकार और फिल्म अध्येता अभिजीत घोष की हाल में प्रकाशित हुई किताब-व्हेन अर्धसत्य मेट हिम्मतवाला’ हिंदी सिनेमा के इस दशक की रोचक ढंग से पड़ताल करती है. उन्होंने ठीक ही नोट किया है कि 80 का दशक भूत और भविष्य के बीच हाइफन की तरह काम किया. इस दशक ने भविष्य की आहट भी सुनी.’

आम तौर पर जब 80 के दशक के सिनेमा की बात होती है तब हिम्मतवालातोहफाडिस्को डांसरमैं आजाद हूँ’, ‘मैंने प्यार किया जैसी फिल्में जेहन में आती है. साथ ही कई मसाला फिल्में बनी जिनका कोई नामलेवा नहीं है. जबकि सच यह है कि इसी दशक में गोविंद निहलानी, कुंदन शाह, सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, सईद मिर्जा, श्याम बेनगल जैसे निर्देशकों की फिल्मों ने पिछले दशक की समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट किया. घोष इसे न्यू वेव 2.0 की संज्ञा देते हैं.

यहां उल्लेखनीय है कि अर्धसत्य जैसी यथार्थपरक सिनेमा के साथ ही हिंदी की कल्ट क्लासिक’ फिल्म जाने भी दो यारो  का यह चालीसवां साल है. हिंदी सिनेमा के इतिहास में हास्य को लेकर अनेक फिल्में बनीलेकिन जाने भी दो यारो’  जैसी कोई नहीं. घोष अपनी किताब में नोट करते हैं कि 80 के दशक का कला सिनेमा बॉक्स ऑफिस पर सफल साबित हुआ था. वे लिखते हैं कि रवींद्र धर्मराज की चक्र (1981) महज 9.5 लाख रुपए में बनी थी, जो उस वर्ष की दस सबसे हिट फिल्मों में शामिल थी. यही बात निहलानी की फिल्म आक्रोश,  अर्धसत्य और मीरा नायर की सलाम बॉम्बे (1989) आदि के बारे में भी कही जाती है. दामूल, कथा, पार्टीमंडीमिर्च मसाला, पार जैसी फिल्में इसी दशक में हिंदी सिनेमा के इतिहास का हिस्सा बनी, जिसकी चर्चा आज भी होती है.

कुमार शहानी की फिल्म तरंग (1984) भी इसी दशक में रिलीज हुई. माया दर्पण (1972) के बाद यह उनकी दूसरी फिल्म थी, जिसमें फॉर्म के प्रति उनकी एकनिष्ठता दिखाई देती है. शहानी की तरह ही फिल्म संस्थान पुणे से प्रशिक्षित कमल स्वरूप की फिल्म ओम-दर-बदर (1988) भी इसी दशक में बनी थी, जिसे वर्ष 2014 में सिनेमाघरों में हमने देखा था. हिंदी सिनेमा के अवांगार्द फिल्म मेकर इसे एक उत्तर आधुनिक फिल्म मानते हैं. इस कल्ट फिल्म का एक सिरा एबसर्ड’ से जुड़ता है तो दूसरी ओर एमबिग्यूटी’ के सिद्धांतों से. एक साथ मिथकविज्ञानअध्यात्मज्योतिषलोक और शास्त्र के बीच जिस सहजता से यह फिल्म आवाजाही करती है वह भारतीय फिल्मों के इतिहास में मिलना दुर्लभ है. भूमंडलीकरण के इस दौर में जिसे हम ग्लोकल’ कहते हैं उसकी छाया इस फिल्म में दिखती है. सामाजिक यथार्थ को कलात्मक ढंग से परदे पर चित्रित करने वाली समांतर सिनेमा की फिल्मों को एनएफडीसी’ (नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन) के माध्यम से सरकारी सहयोग प्राप्त थाआज यह सोच कर आश्चर्य होता है!

 (नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Wednesday, June 14, 2023

Mediated Politics and the Environment: A Case study of Odd-Even Scheme to Curb Air Pollution in Delhi

 


In the popular perception, globalisation has made the environment a public good. However, in the Indian context contemporary globalisation, which was heralded by liberalisation and privatisation of the Indian economy in 1991, started a new debate in the public sphere about environmentalism. It is mainly a development vs. environment debate, but at the same time, a consciousness among the middle class about the environment has also emerged in the twenty-first century India.

In the last decade, a new political party, namely, Aam Aadmi Party (AAP), was born out of a popular movement against corruption and promised an alternative politics. Among other things, it discussed environmentalism and launched an ‘odd-even policy’ to curb air pollution in the city of Delhi

In this essay, using my experiences as a media researcher and professional journalist I raise and seek to answer the question: has the media revolution changed the nature of environmental journalism in India? I explore the relationship between media, politics, and the environment by taking the Delhi government’s odd-even policy as a case study.

(Link: https://link.springer.com/chapter/10.1007/978-3-031-31252-6_9) 

(Abstract of my chapter in Media, Politics and Environment pp 111–117)

Monday, June 12, 2023

सुनहरा अतीत और वर्तमान प्रासंगिकता: इप्टा के अस्सी साल

 


चर्चित अदाकार जोहरा सहगल ने भारतीय जन नाट्य संघ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के शुरुआती दिनों को याद करते हुए लिखा है कि हर एक कलाकार जो बंबई (मुंबई) में 1940 और 1950 के बीच रह रहा थावह किसी न किसी रूप में इप्टा से जुड़ा था. 25 मई 1943 को बंबई के मारवाड़ी विद्यालय हॉल में इप्टा की शुरुआत हुई. गीत-संगीतनृत्यनाटक के जरिए मौजूदा ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत और फासीवाद से लड़ने के लिए इप्टा का गठन किया गया थाजिसके केंद्र में मेहनतकश जनता की संस्कृति थी.  इस जन संस्कृति  में  देशज कला रूपों और लोक संस्कृति को तरजीह दी गई. जाहिर हैइप्टा के नाटकों में गीत-संगीत हमेशा से रहा. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े साहित्यकारों और वामपंथी बुद्धिजीवियों की इसमें बड़ी भूमिका थी.  फ्रांस के चर्चित लेखकनाटककार रोम्यां रोलां की द पीपुल्स थिएटर' (1903) किताब से इप्टा ने अपना नाम लिया और नामकरण का श्रेय प्रसिद्ध वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा को जाता है. जनवादी थिएटर की दिशा में इप्टा ने क्रांतिकारी पहल की. बंगाल के अकाल (1942) की पृष्ठभूमि में लिखा नाटक नबान्न’ (निर्देशक शंभु मित्रा)जुबैदा’ (निर्देशक बलराज साहनी) की चर्चा आज भी होती है.

 

पिछले दिनों इप्टा के अस्सी साल पूरे होने पर मैंने चर्चित फिल्मकारनाट्यकर्मी और इप्टा के संरक्षक 92 वर्षीय एम एस सथ्यू ने जब बात किया तब उन्होंने कहा कि इप्टा देश में एमेच्योर थिएटर का एकमात्र ऐसा समूह है जिसने अस्सी साल पूरे किए हैं. एक आंदोलन और थिएटर समूह के रूप में किसी संगठन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है.’  एक दौर में देश के विभिन्न राज्यों में हजारों सदस्य इप्टा से जुड़े थे. आजादी के बाद 60 के दशक में यह आंदोलन कमजोर पड़ गया. राष्ट्रीय स्तर पर एक बिखराव दिखा हालांकि राज्य स्तर पर विभिन्न इकाई काम करती रही. इसी दशक में वाम राजनीतिक दलों में हुए विभाजन का असर इप्टा पर भी पड़ा.

 

कई नाट्य संगठन हालांकि इससे प्रेरित रहे हैं. इप्टा जैसे राजनीतिक-सांस्कृतिक संगठन की यह ऐतिहासिक भूमिका है. जुहू थिएटर आर्ट (बलराज साहनीबंबई)नटमंडल (दीना पाठकअहमदाबाद)शीला भट्ट (दिल्ली आर्ट थिएटर) कुछ ऐसे ही नाम हैं. साथ ही इप्टा के सदस्य रहे सफदर हाशमी की संस्था जन नाट्य मंच (1973) इप्टा से ही निकलीजिसने पचास साल पूरे किए हैं. आज नुक्कड़ नाटकों के लिए जनम पर्याय बन चुका है. इसकी पहल इप्टा ने की थी, जैसा कि एक बातचीत में ख्यात रंगकर्मी और जनम की अध्यक्ष मलयश्री हाश्मी ने पिछले साल मुझे कहा था: “इप्टा के शुरुआती दिनों (1943-44) में खास तौर पर बंबई में कामगारों के संघर्ष और सांप्रदायिक दंगे हुए थे. उस दौरान छोटे-छोटे नाटकबिना विधिवत स्क्रिप्ट केगली-चौराहे पर इप्टा से जुड़े कलाकार करते थे. इसकी अवधि दस-पंद्रह मिनट से ज्यादा नहीं होती थी. इसे मैं नुक्कड़ नाटक का प्रारूप समझती हूँ.” आम लोगों के बीच इप्टा अपने नाटकों को लेकर गया. जनता में राजनीतिक-सांस्कृतिक क्रांतिकारी चेतना का संचार, सामाजिक न्याय और मानव कल्याण घोषित उद्देश्य था.

 

प्रसंगवशसथ्यू ने वर्ष 1973 में देश विभाजन को लेकर गर्म हवा फिल्म बनाई जो आज भी अपनी संवेदनशीलता और कलाकारों की अदाकारी को लेकर याद की जाती है. उल्लेखनीय है कि इस फिल्म में इप्टा से जुड़े रहे बलराज साहनीकैफी आज़मीइस्मत चुगताईशौकत आजमी आदि की प्रमुख भूमिका थी. बलराज साहनी ने इप्टा के दिनों को याद करते हुए मेरी फिल्मी आत्मकथा (1974) में लिखा हैऔर इस तरह अचानक ही जिंदगी का एक ऐसा दौर शुरू हुआजिसकी छाप मेरे जीवन पर अमिट है. आज भी मैं अपने आपको इप्टा का कलाकार कहने में गौरव महसूस करता हूँ.” नया थिएटर (1959) के संस्थापक हबीब तनवीर का यह जन्मशती वर्ष है, इप्टा से शुरुआती दौर में वे भी जुड़े हुए थे.

 

नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में धरती के लाल (के ए अब्बास) और नीचा नगर (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. साहनी ने विस्तार से अपनी आत्मकथा में इन फिल्मों के निर्माण की चर्चा की है. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गईदोनों ही फिल्मों में संगीत सितार वादक रविशंकर ने दिया थाजो खुद इप्टा से जुड़े थे. इसी तरह ऋत्विक घटक और मृणाल सेन भी इप्टा से संबद्ध थे.

 

सथ्यू कहते हैं कि आज के दौर में थिएटर ग्रुप को चलाना आसान काम नहीं है. टेलीविजनसिनेमा में दस तरह के प्रलोभन और पैसा है. हालांकि कुछ लोग अभी भी नाटक को लेकर समर्पित हैं.  इस तरह के काम को लेकर युवाओं में जुनून है. ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि इप्टा सौ वर्ष पूरा करेगा. 

 

आज देश में सांप्रदायिकता और अधिनायकवादी सत्ता अपने उरूज पर हैऐसे में इप्टा और ऐसे संगठनों की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा है.  इप्टा की इकाई विभिन्न राज्यों-- बिहारअसममहाराष्ट्रकेरल आदि में सक्रिय है. पर जैसा कि सथ्यू कहते हैंसवाल है कि नए सदस्यों को संगठन से कैसे जोड़ा जाए!


(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)

Tuesday, June 06, 2023

सिनेमाघरों पर ओटीटी प्लेटफॉर्म की बढ़त

हाल में रिलीज हुई ‘किसी का भाई किसी की जान’ ‘तू झूठी मैं मक्कार’, 'अफवाह’ आदि फिल्में  बॉक्स ऑफिस पर खास करिश्मा नहीं दिखा पाई. इनमें से कुछ तो बुरी तरह पिट गईं, वहीं ‘जुबली’, ‘दहाड़’,  ‘सासबहु और फ्लेमिंगो’ वेब सीरीज और कटहल जैसी फिल्म की सोशल मीडिया में खूब चर्चा है.

एक आंकड़ा के मुताबिक भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म का बाजार सब्सक्रिप्शन सहित करीब दस हजार करोड़ रुपए का हैजो इस दशक के खत्म होते-होते तीस हजार करोड़ तक पहुँच जाएगा. अमेजननेटफ्लिक्सहॉटस्टारसोनीजी जैसे बड़े प्लेटफॉर्म के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं (मराठी, तमिल, तेलुगू, मलयालम, बांग्ला) में भी कई ओटीटी चैनल आज दर्शकों के मनोरंजन के लिए उपलब्ध हैं. प्रसंगवश, जियो बेबी की चर्चित मलयालम फिल्म द ग्रेट इंडियन किचन’ (2021) को पहले निर्देशक ने स्थानीय ‘नीस्ट्रीम’ वेबसाइट पर ही रिलीज किया था. जब फिल्म के बारे में चर्चा होने लगीअच्छे रिव्यू आने लगे तब अमेजन ने फिल्म को अमेजन प्राइम पर रिलीज किया. पिछले दिनों फिल्मकार नितिन चंद्रा ने मैथिली फिल्म जैक्सन हॉल्ट को भी एक वेबसाइट बेजोड़  पर ही रिलीज किया.

न सिर्फ दर्शक बल्कि बॉलीवुड के निर्माता-निर्देशक और कलाकारों की नज़र भी इस बढ़ते हुए बाजार पर टिकी है. विक्रमादित्य मोटवानी (जुबली)होमी अदजानिया (सासबहु और फ्लेमिंगो)रीमा कागती (दहाड़) जैसे चर्चित हिंदी फिल्म निर्देशक इन वेबसीरीज सीरीज से जुड़े हैं. याद करें कि पिछली सदी में भी समांतर सिनेमा के कई सफल फिल्मकार जैसे श्याम बेनेगलसईद मिर्जाकुंदन शाहसई परांजपे ने टेलीविजन की ओर रुख किया था और उन्हें सफलता भी मिली थी. भारत एक खोजनुक्कड़ये जो है जिंदगीअड़ोस-पड़ोस जैसे सीरियलों की याद आज भी पुरानी पीढ़ी के दर्शकों को है.

बहरहालस्मार्ट फोन पर सस्ते डाटा पैक और आने वाले समय में फाइव जी नेटवर्क की आसान उपलब्धता से ओटीटी प्लेटफॉर्म के कंटेंट में विविधता की उम्मीद है. असल मेंआज नई पीढ़ी का दर्शक घिसे-पिटेफार्मूले पर आधारित कहानियों से ऊब चुका है. उसे मनोरंजन के लिए नए विषय-वस्तु और पटकथा की तलाश हमेशा रहती हैजो विभिन्न ओटीटी प्लेटफार्म पर रिलीज होने वाली वेब सीरीज और फिल्मों की खासियत है. यहाँ प्रयोग करने की गुंजाइश हमेशा रहती है. 

कई प्रयोगशील फिल्मकार सिनेमाघरों के बदले ओटीटी को तरजीह दे रहे हैं. हाल ही में यशवर्धन मिश्रा की नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई फिल्म कटहल’ इसका उदाहरण है. कटहल और दहाड़ में हम पुलिस अधिकारी के रूप में दलित स्त्री की एक सशक्त छवि देखते हैं जो इसे विशिष्ट बनाता है. हिंदी सिनेमा में ऐसी छवि दुर्लभ है. कटहल हास्य-व्यंग्य के सहारे सामाजिक मुद्दों पर कुशलता से टिप्पणी करती है.

वेब सीरीज ने सिने जगत को कुछ बेहतरीन कलाकार भी दिए हैं. 'जुबलीमें अपारशक्ति खुरानावामिका गब्बीसिद्धांत गुप्ता की खूब तारीफ हो रही हैवहीं ‘दहाड़’ में विजय वर्मागुलशन देवैया ने एक बार फिर अपनी छाप छोड़ी है. यही बात ‘सासबहु और फ्लेमिंगो’ के राधिका मदनईशा तलवार जैसे अदाकारों के बारे में भी कहीं जा सकती है.

जहाँ जुबली’ सीरीज के केंद्र में बाम्बे के फिल्म स्टूडियो और उससे जुड़े कलाकारों की जिंदगी हैवहीं दहाड़ एक ‘क्राइम थ्रिलर’ है जिसका ताना-बाना भारतीय समाज में मौजूद जाति और पितृसत्ता के इर्द-गिर्द बुना गया है. नशे के व्यापार को आधार बनाती ‘सासबहु और फ्लेमिंगो’ में स्त्री किरदारों की प्रधानता है. इन सीरीज की खास बात विषय-वस्तु में नएपन के साथ प्रोडक्शन की गुणवत्ता भी है.

तकनीक क्रांति के इस दौर में मनोरंजन की दुनिया में सामग्री के उत्पादन और उपभोग के तरीकों में काफी बदलाव आया है. बॉलीवुड और सिनेमाघरों को ओटीटी प्लेटफॉर्म से चुनौती मिल रही है. निस्संदेहसिनेमा देखने का आनंद बड़े परदे पर सिनेमाघरों में ही हैजिसे शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण अभिनीत ‘पठान’ फिल्म ने एक बार फिर से साबित किया थालेकिन साल में दो-चार बॉक्स ऑफिस पर सफल फिल्में बॉलीवुड के कारोबार के लिए सुखद नहीं कही जा सकती.  सवाल है कि क्या ओटीटी की बढ़त से आने वाले वर्षों में मल्टीप्लेक्स सिनेमा घरों पर ग्रहण लग जाएगा या बॉलीवुड में सुधार की गुंजाइश बची है

(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)