राजस्थानी लोककथा पर आधारित ‘दुविधा’ देथा की बहुचर्चित कहानी रही है. इस कहानी को आधार बना कर अमोल पालेकर ने भी पहेली (2005) नाम से एक फिल्म निर्देशित की थी, जिसमें शाहरुख खान और रानी मुखर्जी की प्रमुख भूमिका थी. पिछले दिनों एनएसडी रंगमंडल ने ‘दुविधा’ कहानी पर ‘माई री मैं का से कहूं’ का मंचन किया था.
बहरहाल, समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल की फिल्म ‘दुविधा (1973)’ के पचास साल पूरे हो रहे हैं. ‘दुविधा’ के केंद्र में एक नवविवाहिता स्त्री है, जिसका पति शादी के दूसरे दिन ही घर छोड़ कर ‘दिसावर’ (व्यापार के लिए) निकल जाता है. इस बीच एक भूत पति का रूप धर घर वापस आता है और उस स्त्री के संग-साथ रहने लगता है. यह जानते हुए भी कि पति का रूप धरने वाला भूत है, वह नहीं जिसने उसका हाथ थामा था, स्त्री प्रतिरोध नहीं करती. भूत अपने छल को लेकर स्त्री से झूठ नहीं बोलता. पति (रवि मेनन) को लच्छी (राईसा पद्मसी) के अपरूप सौंदर्य की चाह नहीं है, वह हिसाब-किताब में उलझा है, पर भूत उस पर मोहित है. यहाँ विद्यापति की पंक्ति याद आती है-सुंदरि तुअ मुख मंगलदाता.
हिंदी सिनेमा में स्त्री का यह रूप सर्वथा अलग है. क्या एक स्त्री मौन रह कर अपनी स्वतंत्र चेतना का इस्तेमाल करती है? एक बच्चे का जन्म होता है. पति भी वापस लौट आता है. आखिर में, एक गड़रिए के न्याय से भूत को थैले में कैद कर दिया जाता है और कुएं में डाल दिया जाता है. उस स्त्री की क्या इच्छा थी, यह कोई नहीं पूछता. फिल्म देखने पर नए सवाल और नए अर्थ हमेशा उद्धाटित होते हैं.
मणि कौल ने साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनाई, हालांकि सबका आस्वाद अलग है. ‘दुविधा’ से पहले वे मोहन राकेश की कहानी ‘उसकी रोटी’ और नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ पर फिल्म बना चुके थे.
उनकी फिल्में सादगी, सिनेमाई दृष्टि, बिंबो-रंगो के संयोजन के लिए जानी जाती है. ‘उसकी रोटी’, ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘दुविधा’ में स्त्रियों के द्वारा विभिन्न देश-काल में इंतजार का चित्रण मिलता है. उल्लेखनीय है कि समांतर सिनेमा के फिल्मकारों ने नई कहानी को आधार बनाया जहाँ इंतजार प्रमुखता से चित्रित है.
मणि कौल की फिल्मों में विभिन्न कला रूपों-पेंटिंग, स्थापत्य और संगीत की आवाजाही सहजता से होती है. इस फिल्म में जिस तरह से लच्छी (राईसा पद्मसी) को परदे पर मणि कौल ने उकेरा है वह मिनिएचर पेंटिंग से प्रभावित है. यहाँ पर इस बात का उल्लेख जरूरी है कि राईसा प्रसिद्ध पेंटर अकबर पद्मसी की पुत्री हैं. जब उन्होंने इस फिल्म में अभिनय किया तब सोलह वर्ष की थी. प्रसंगवश, मुंबई में अकबर पद्मसी ने 1969-72 के दौरान ‘इंटर आर्ट विजन एक्सचेंज वर्कशाप’ (कार्यशाला) का आयोजन किया था, जिसमें मणि कौल, कुमार शहानी जैसे युवा फिल्मकारों ने भी भाग लिया था. कलाओं के बीच आवाजाही को लेकर हुए इस कार्यशाला का असर उनकी फिल्मों पर साफ है. कुमार शहानी की फिल्म ‘माया दर्पण’ (1972) भी रंग-योजना को लेकर याद की जाती है. पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित और मणि कौल के सहयोगी रहे फिल्मकार कमल स्वरूप बातचीत में अकबर पद्मसी को मणि कौल का गुरु कहते हैं.
‘दुविधा’ की शूटिंग बोरुंदा (देथा का गाँव) में हुई थी. इस लैंडस्केप से मणि भलीभांति परिचित थे. राजस्थान (जालौर) में मणि कौल का बचपन बीता और ग्रेजुएशन की शिक्षा उन्होंने जयपुर विश्वविद्यालय से ली थी और आगे फिल्म प्रशिक्षण के लिए वे पुणे फिल्म संस्थान (एफटीआईआई) गए. उनकी फिल्मों का स्वरूप लैंडस्केप से काफी प्रभावित रहा है.
इस फिल्म की सिनेमाटोग्राफी की चर्चा अलग से होनी चाहिए. आम तौर पर मणि कौल और कुमार शहानी की फिल्मों में पुणे संस्थान से प्रशिक्षित के के महाजन का छायांकन होता था, लेकिन इस फिल्म में बहुमुखी प्रतिभा के धनी नवरोज कांट्रैक्टर ने कैमरा संभाला. कांट्रेक्टर की यह पहली फिल्म होने के साथ ही मणि कौल की पहली रंगीन फिल्म थी.
बेहद सूक्ष्मता से किरदारों की भाव-भंगिमा को ब्यौरे के साथ से इस फिल्म में जिस तरह दिखाया गया है, वह सिनेमा और रंगमंच के फर्क के हमारे सामने लाता है. डोली में हिचकोले खाती लच्छी की 'एक फांक आंख, एक फांक नाक' के सौंदर्य को मणि कौल जिस संयम से दिखाया है, वह उन जैसे रसिक के बूते ही संभव है.
फिल्म के एक दृश्य का उल्लेख यहाँ जरूरी है जब लच्छी का पति दिसावर जाने को होता है: किवाड़ की ओट में टिमटिमाती लौ, किवाड़ खोल कर काजल भरी आंखों से लच्छी जिस तरह से घर-आंगन को देखती है, बाह्य प्रकाश में उसकी अंतर्मन की पीड़ा (विरह) साफ झलक उठती है.
मणि कौल की फिल्मों में ध्वनि के इस्तेमाल का काफी महत्व रहा है, हालांकि इस फिल्म में संवाद नहीं है, वॉयस ओवर का इस्तेमाल किया गया है. यहाँ मौन मुखर है. फिर भी संवाद से इतर एक सजग दर्शक फिल्म में विभिन्न रूप में आए ध्वनि की बारीकियों को सुन सकता है. मणि कौल की फिल्में संसाधनों से भी प्रभावित रही. उन्हें हमेशा वित्तीय संकट से जूझना पड़ा. कम बजट की इन फिल्मों को फिल्म वित्त निगम (एफएफसी) से सहायता मिली.
प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने 'फोर एंड ए क्वार्टर' (1974) शीर्षक लेख में इस फिल्म की आलोचना की थी, लेकिन आने वाले दशकों में अवांगार्द फिल्मकारों के वे प्रिय रहे. अनूप सिंह, पुष्पेंद्र सिंह, गुरविंदर सिंह, अमित दत्ता जैसे अवांगार्द फिल्मकारों के यहाँ मणि कौल की छाप स्पष्ट है.
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