हिंदी सिनेमा के चर्चित गीतकार शैलेंद्र की जन्मशती के अवसर पर मुख्यधारा और सोशल मीडिया में उनके योगदान की खूब चर्चा हो रही है. इसी सिलसिले में पिछले दिनों आकाशवाणी दिल्ली के रंग भवन सभागार में एक आयोजन किया गया था, जहाँ शैलेंद्र को याद करने जावेद अख्तर, इरशाद कामिल जैसे गीतकार मौजूद थे.
30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी में जन्मे शैलेंद्र की मुख्तसर सी जिंदगी रही. महज 43 साल. लेकिन इस ‘छोटी सी जिंदगानी’ में उन्होंने करीब आठ सौ गीत लिखे, जो आज भी लोगों की जुबान पर चढ़े हैं.
‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी या ‘दिल का हाल सुने दिलवाला, सीधी सी बात न मिर्च मसाला’ (श्री 420, 1955) वही लिख सकता है जो जीवन और जन से गहरे जुड़ा रहा हो. लोक मन में रचे-बसे ये गाने आजादी के बाद देश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को बखूबी व्यक्त करते हैं. बोलचाल की भाषा में लिखे और गहरे मानी से सजे न जाने कितने ही गाने मुहावरे की शक्ल ले चुके हैं.
बहरहाल, आजादी के बाद देश-दुनिया में हिंदी फिल्मी गीतों के प्रसार में रेडियो की प्रमुख भूमिका रही. उस दौर में अखबार का प्रसार बेहद कम था. यहाँ तक कि सिनेमाघरों की पहुँच भी देश के कोने-कोने तक नहीं थी. आज टीवी और इंटरनेट के दौर में भले दृश्य माध्यम जनसंचार के केंद्र में हो, लेकिन पिछली सदी के 80 के दशक तक रेडियो ही देश-दुनिया से जुड़ने और मनोरंजन का प्रमुख साधन था. सच तो यह है कि पचास-साठ के दशक में हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत ने एक अलग विधा का रूप ग्रहण किया. फिल्म संगीत के इस ‘स्वर्णकाल’ में आकाशवाणी (ऑल इंडिया रेडियो) के एक अध्याय पर नज़र डालना जरूरी है, जो आम लोगों की नजर से ओझल ही रहता आया है.
यूँ तो वर्ष 1936 में ही ऑल इंडिया रेडियो अस्तित्व में आ गया था. पर उस दौर में (विश्व युद्ध के दौरान) अंग्रेज शासक इसका इस्तेमाल प्रोपगेंडा के रूप में करते थे. 40 के दशक में महज दो लाख लोगों के पास ही रेडियो रिसीवर थे. हाल ही में प्रकाशित इसाबेल अलोंसो की किताब-‘रेडियो फॉर द मिलियंस’ में रेडियो समाचार और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसंग की विस्तार से चर्चा है. जब देश आजाद हुआ तब मात्र छह रेडियो स्टेशन थे जो वर्ष 1954 में 22 हो गए. जाहिर है, रेडियो सुनने की संस्कृति का विकास 40 और 50 के दशक में होने लगा था.
बहरहाल, आजाद भारत में सरकार की एक नीति ने रेडियो पर फिल्मी गानों के प्रसार पर ग्रहण लगा दिया था. यह ग्रहण 1952 से 1957 तक लगा रहा. अक्टूबर 1952 में जब बी वी केसकर देश के नए सूचना और प्रसारण मंत्री बने तब उन्होंने ऐलान किया कि ‘ये गाने दिनों दिनों अश्लील होते जा रहे हैं और पाश्चात्य देशों की धुनों का कॉकटेल हैं.’ उस समय हर दिन कुछ घंटे विभिन्न रेडियो स्टेशन से फिल्मी गानों का प्रसार होता था. केसकर ने निर्देश जारी किया कि रेडियो स्टेशन से हिंदी गानों का प्रसार नहीं होगा. हिंदी फिल्मी गानों की लोकप्रियता को देखते हुए सिनेमा उद्योग के लिए यह आघात से कम नहीं था. असल में, रेडियो के माध्यम से केसकर शास्त्रीय और सुगम संगीत का प्रसार करना चाहते थे. वे कहते थे कि फिल्म संगीत भारतीय संगीत परंपरा से दूर चला गया है. वे खुद शास्त्रीय संगीत में प्रशिक्षित थे.
वे एक तरफ मानते थे कि संगीत लोगों की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है, वहीं दूसरी तरफ सिनेमा गीत-संगीत जैसे जनमाध्यम से लोगों को दूर कर रहे थे. संचार के साधनों के समुचित विकास के बाद भी आज देश में शास्त्रीय संगीत का प्रसार एक खास तबके तक ही सीमित रहा है, जबकि फिल्म संगीत की पहुँच एक विशाल वर्ग तक हो चुकी है.
इस रोक के बाद फिल्मी गीत-संगीत की तलाश में श्रोताओं ने अन्य रेडियो स्टेशन की खोज शुरू की. यही दौर था जब रेडियो सिलोन (श्रीलंका ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन) क्षितिज पर उभरा, जहाँ से मुख्यतया फिल्मों गानों का ही प्रसार होता था. सरहद के पार, सिलोन भारत में फिल्मी गानों के लिए परिचित नाम हो गया. उद्घोषक अमीन सयानी और 'बिनाका गीतमाला' को लोग आज भी याद करते हैं. आकाशवाणी के श्रोताओं की संख्या घटती चली गई, मजबूरन सरकार ने अपने फरमान वापस लिए. साथ ही उसी साल संगीत को समर्पित ‘विविध भारती (बंबई)’ की स्थापना भी की गई.
एक तरह से फिल्म गीत-संगीत पर रोक केसरकर और भारत सरकार का शुद्धतावादी रवैया था जो ‘राष्ट्र’ और ‘नागरिक निर्माण को लेकर तत्पर दिखाई देता था. ऐसा नहीं कि इस फरमान का विरोध नहीं हुआ, पर जैसा कि अलोंसो ने लिखा है देश के प्रधानमंत्री नेहरू ने भी इस मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया और केसकर की ही चली थी.
अंत मे, कहते हैं कि नेहरू शैलेंद्र के लिखे गीत, ‘हम उस देश के वासी हैं जिस देश मे गंगा बहती है' (1960) को खूब पसंद करते थे. नेहरू के साथ शैलेंद्र की एक तस्वीर सोशल मीडिया पर भी खूब शेयर की जा रही है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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